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Showing posts from 2020

सूफ़ी फाइलें | रूमी की रोशनख्याली

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अपनी धुन में मग्न होकर रक्स करते सूफ़ी दरवेशों की परम्परा शुरू करने वाले मौलाना ' रूमी ' के नाम से आज कौन वाक़िफ नहीं है। रूमी का उर्स, त्योहार की तरह तकरीबन इसी समय तुर्की के कोन्या में मनाया जा रहा है।  रूमी की कही बातें और उनपर लिखी गईं किताबें तो खूब मशहूर हुई हैं, लेकिन उनके अपने फलसफों को ज़्यादातर पश्चिमी कलेवर में ढालकर ही परोसा गया है। लगभग विक्टोरियन समय से ही रूमी के वक्तव्यों को पश्चिमी देशों में प्रचारित किया गया लेकिन उनकी लेखनी से इस्लामी प्रभाव को हटाकर, ताकि सूफीवाद को इस्लाम से अलग पंथ के तौर पर दिखाया जा सके; हालांकि रूमी खुद ताउम्र कुरान पढ़ने बा'शर और दीन के पंथी ही रहे।  रूमी ने अपने फलसफों को मस्नवी नाम की किताब में पिरोया और उनके गुरु शम्स तब्रेजी का असर उनकी लेखनी में हमेशा रहा। ' वाहदत अल अद्यान' या सर्वधर्म सम्भाव जैसी सार्वभौमिकता की बात भी रूमी करते हैं और अपने मुर्शिद शम्स तब्रेजी के लिए अपना अथाह मोह भी खुलकर बयान करते हैं, लेकिन रूमी की यह बातें उनकी किताब ' The Forbidden Rumi : Suppressed Poems of Rumi on Love, He...

सूफ़ी फाइलें | शाह लतीफ़ और महिला किरदार

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आबिदा परवीन ने जिस ' शाह लतीफ़ ' का कलाम गाकर दुनिया को मदमस्त कर दिया, उसी अब्दुल शाह लतीफ़ का उर्स इस दफा कोरोना के चलते नहीं मनाया जा रहा।  अब्दुल लतीफ़ एक ऐसे सूफी संत हुए, जिन्होंने सिंध के आम मेहनतकश लोगों की ज़िंदगी पर अपनी कविताएं लिखीं और इसीलिए शाह लतीफ़ ' सिंधी भाषा के शेक्सपियर' भी कहलाए गए। शाह लतीफ़ की कविताओं में मुगलिया हुक़ूमत के पतन के बाद आपसी झगड़ों में उलझे हुए सूबा-ए-सिंध की हूक सुनाई देती है !  शाह लतीफ़ ने जोगियों और फकीरों की सोहबत में दुनियावी मोह छोड़कर सिंध के रेतीले टीलों (भिट) में अपना डेरा जमाया था, इसीलिए उनके डेरे को आज ' भिट शाह' के नाम से भी जाना जाता है।  शाह लतीफ़ की मशहूर काव्य रचना ' शाह जो राग ' में सिंध की लोककथाओं से मूमल, सस्सी, मारवी, नूरी, लीलां, सूरथ जैसे महिला किरदार लिए गए हैं, जिनके किस्सों में वफादारी और उसूलपरस्ती के साथ जुर्रत भी दिखाई देती है। शाह लतीफ़ के लिखे इस 'रिसालो' की गूंज मुल्तान से राजस्थान होते हुए, काठियावाड़ और बलोच लोकगीतों में भी मिलती है।  शाह लतीफ़ की भिट शाह (स...

सूफ़ी फाइलें | दाता दरबार

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" वंगां चढ़ा लो कुड़ियों, मेरे दाता दे दरबार दियां"   लोकगायक आरिफ़ लोहार अपना चिमटा बजाते हुए जुगनी को जिस दाता दरबार की वंगां (चूड़ियां) चढ़ाने को कहते हैं, वो है सूफ़ी संत ' अल हुजविरी' या 'दाता गंज बख्श' की लाहौर (पाकिस्तान) में बसी मज़ार, जहां 6 अक्तूबर से सालाना उर्स शुरू हो गया।  दाता दरबार का नाम दक्षिण एशिया के सबसे मकबूल सूफ़ी तीर्थों में लिया जाता है। कमाल की बात यह है कि मुग़ल शासनकाल से लेकर नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली की छापामारी के दौर तक में कभी दाता दरबार पर आँच नहीं आई। महाराजा रंजीत सिंह के राज के दौरान भी दाता दरबार की साख बरक़रार रही और अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान भी इस दरगाह को किसी तरह से बदलने या नुकसान पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं की गई।  जुल्फिकार भुट्टो ने जहां दाता दरबार में एक स्वर्ण दरवाज़ा चढ़ाया तो जनरल ज़िया ने यहां एक विशाल मस्जिद बनवाकर अपनी राजनीतिक वैद्यता पर मुहर लगवाई। बेनज़ीर भुट्टो के खिलाफ़ जब सियासी दुष्प्रचार किया गया कि वह पश्चिमी सभ्यता में पली-बड़ी नास्तिक खातून हैं तो बेनज़ीर ने भी दाता दरबार मे...

सूफ़ी फाइलें | गांधी की आख़िरी तीर्थयात्रा

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महरौली की गलियों में बसी है ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह , एक ऐसे सूफी संत जिनके नाम पर क़ुतुब मीनार का नाम रखा गया और जिन्होंने मोईनुद्दीन चिश्ती (अजमेर) के सिलसिले को आगे बढ़ाया।  महात्मा गांधी , जो अमूमन किसी मंदिर-मस्जिद में नहीं जाते थे, उन्होंने अपनी हत्या से महज़ तीन दिन पहले यानि 27 जनवरी 1948 को इस दरगाह में हाज़िरी दी थी। कहा जा सकता है कि क़ुतुब साहेब दरगाह की ज़ियारत उनकी ज़िन्दगी की आखिरी तीर्थयात्रा जैसी थी।   1947 के दंगों में बख़्तियार काकी की इस दरगाह को काफी नुकसान पहुंचाया गया था। जब गांधीजी ने सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ़ 1948 में आमरण अनशन शुरू किया तो उनकी 6 मांगों में से एक मांग थी कि प्रायश्चित के तौर पर हिन्दू और सिख, दंगों में तोड़ी गई बख़्तियार काकी की दरगाह की मरम्मत करवाएं.. ..और गांधीजी की हत्या के बाद उनकी इच्छानुसार दरगाह की मरम्मत करवाई भी गई। दंगों के बाद दरगाह में सालाना उर्स नहीं मनाया गया था, लेकिन गांधी की हाज़िरी के बाद उर्स मनाया भी गया और सिख भाइयों ने उसी सूफ़ी बरामदे में कव्वाली गाकर उसी धार्मिक समरसता को ब...

सूफ़ी फाइलें | सूफीवाद और सिक्खी की सांझी परम्परा

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"फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से,  हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से.." यह अल्फ़ाज़ लिखे अल्लामा इकबाल ने सिख धर्म के संस्थापक ' गुरु नानक देवजी ' की शान में। आज 'गुरुपूरब' या 'प्रकाश पर्व' के तौर पर गुरु नानक देवजी की जयंती पूरी दुनिया में मनाई जा रही है। ऐसे में गुरुनानक के भक्ति आन्दोलन और सूफीवाद से जुड़ाव को पलटकर देखने के लिए भी यह वक्त सबसे मुनासिब है।  बेदी समुदाय (वेद पढ़ने वाले) में जन्मे नानक ने अपने धर्म-संप्रदाय की खींची लकीरों को लांघ कर दुनिया भर में तीर्थयात्राएं की, जिन्हें नानक की ' उदासियां ' कहा गया। अपनी उदासियों के दौरान उन्हें सानिध्य मिला नाथ जोगियों का और ऋषि-मुनियों का। ऐसी ही एक उदासी (तीर्थ यात्रा) की उन्होंने मक्का (हज) की और अफ़ग़ानिस्तान, बग़दाद की, जहां उन्होंने इस्लामी अध्यात्म/ सूफीवाद को और करीब से जाना और समझा।    मकबूल सूफी संत ' बाबा फरीद' की वाणी से नानक इतना प्रभावित हुए कि उसे ' गुरुबाणी ' में भी शामिल किया गया। हिंदुस्तान में समकालीन उदय होने के कारण सूफीवाद ...

सूफ़ी फाइलें | बुल्ला की जाना मैं कौन

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" बुल्ले शाह असां मरना नाहिं, गोर पेया कोई होर.."  (It is not me in the grave, it is someone else) जो सूफी शायर दिल तोड़ने की बजाय मसीतों और मंदिरों को तोड़ने की बात कहे, खुद को ना हिन्दू माने, ना तुर्क ना पेशावरी, जो किसी ऐसी जगह जा बसने की बात करे जहां जात-पात के झगड़े ना हों, जो इश्क़ की बात करे इबादत से भी पहले, ऐसे अलमस्त संत का नाम हुआ 'बाबा बुल्ले शाह', जिनका उर्स पाकिस्तान के कसूर (शहर) में उनकी मज़ार पर आज मनाया जा रहा है।  बुल्ले शाह ने इंकलबी नारे बेशक ना लगाए हों, लेकिन अपने कलाम और जीवनशैली में उन्होंने विद्रोह को ही चुना। बुल्ले शाह ने जब शाह इनायत नाम के संत को अपना गुरु माना, तो उनके समाज में खलबली मच गई क्योंकि बुल्ले शाह सय्यद थे, रुतबे में ऊंचे और शाह इनायत थे अराईं, जो शालीमार बाग (लाहौर) में माली का भी काम करते थे। पर बुल्ले शाह ने बहनों-भाभियों की दलीलों को अनसुना कर अपने गुरु का दामन नहीं छोड़ा।  बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ 'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ ला...

जा, तुझे बहिश्त नसीब हो !

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मिसेज साहनी की आंखें सुर्खरू हो जाती जब भी वह आलम को अपनी यादों में बसे आंगन के कंधारी अनारों की कहानी सुनाती। धीरे-धीरे अपनी ज़ाती बातों का पिटारा एक मानूस अजनबी के सामने खोलना बहुत बड़ी बात थी उनकी जैसी अक्खड़ और अनखी औरत के लिए। लेकिन लड़खड़ाते हुए उम्र की इस आखिरी दहलीज पर आलम जैसे इंसान का सहारा पाकर मिसेज साहनी का मन दोबारा हरीयाने लगा था। आलम एक एनजीओ से जुड़ा था जो अकेलेपन से गुजरते बुजुर्गों के साथ वक़्त बिताने के लिए हस्सास नौजवानों को ट्रेन करता था। आलम 2 साल से पार्ट टाइम यह काम कर रहा था और मिसेज साहनी का ज़िम्मा संभाले उसे 9 माह ही हुए थे। इन नौ महीने में आलम ने मिसेज साहनी का विश्वास जीत लिया था और अब वह आलम को घर का एक हिस्सा मानने लगीं थीं।  असाइनमेंट के पहले ही रोज़ आलम जब मिसेज साहनी की साउथ दिल्ली वाली कोठी के गेट से अंदर घुसा था, अपने बरामदे में बैठी संतरा छील कर खाती हुईं मिसेज साहनी ने वहीं से चिल्ला कर कहा था, "ओए! कौन है तू ते कित्थे चला आंदा ए? किनू मिल्लना ए? सोनी...ओह सोनी! देखीं कौन है।" आलम थोड़ा शर्मसार हुआ था लेकिन यहां कौन उसे देख ...

सयानी दीवानी : दियासलाइयों का दस्ता

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    राधाकृष्ण प्रकाशन से आई किताब ' सयानी दीवानी ' प्रख्यात लेखिका नूर ज़हीर की लिखी कहानियों का एक ऐसा दस्ता है, जो अपनी भाषा, बनावट और सार के लिहाज से हर पाठक को बाँधने की सलाहियत रखता है। यह कहानी संकलन माचिस की उस डिबिया की तरह है जिसकी हर कहानी अपने आप में एक दियासलाई है, जो सामाजिक रिवायतों और बनावटी रिश्तों की खुरदुरी सतह से रगड़कर बगावत की चिंगारी हर किरदार की शक़्ल में सामने लेकर आती है।  "..ज़्यादातर पुरुष महिलाओं को खेलनेवाली गुड़िया समझते हैं, मुझे मालूम नहीं था पुरुषों को ख़ुद भी गुड्डा बनने की इतनी तमन्ना होती है!”   (गोलाकार के तीन कोण)  लेखिका नूर ज़हीर के लिखे किरदार आपको  रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में चलते-फिरते मिल जाएंगे, कभी सब्ज़ी खरीदते हुए, कभी पड़ोस की बालकनी में सुस्ताते हुए, कभी किसी त्योहार के रोज़ किसी रिश्तेदार के यहाँ, कभी अपनी माँओ-मौसियों में, कभी अपने दफ्तर के किसी कलीग में; और फिर यह दोस्ताना किरदार हाथ थाम कर अपनी कहानी में पाठक को सहज ही खींच ले जाते हैं। किरदारों की परतें खुलते-खुलते पाठक उनमें अपनी छाया देखने लगता है और फिर कह...

सूफ़ी फाइलें | आमिर ख़ुसरो : सूफ़ी सुख़नवर

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'अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई। जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।' पहली दफ़ा ही होगा कि ' तूती-ए-हिन्द ',  आमिर ख़ुसरो के उर्स-मुबारक पर निज़ामुद्दीन का बरामदा क़व्वालियों से गूँज नहीं रहा होगा।  कोरोना लॉकडाउन के चलते जून माह में भी 'महबूब-ए-इलाही' निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह ज़ायरीन के लिए बंद ही रहेगी और आज आमिर खुसरो को याद करते हुए हम सिर्फ़ उनकी ज़िन्दगी और शायरी का ज़िक्र ही कर सकते हैं।  सियासत की सड़क पर चलते-चलते तसव्वुफ़ के बरगद के नीचे बैठकर सुस्ता लेने वाले खुसरो ने दिल्ली में ग्यारह दफ़ा निज़ाम बदलते देखा और पांच सुल्तानों के दरबार में बतौर राज-कवि भी रहे। लेकिन दुनियावी ज़िम्मेदारियों की गठरी कंधे पर उठाए हुए भी खुसरो, अपने मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन की सोहबत में रूहानी गहराईयों में उतरते चले गए।  जहाँ निज़ामुद्दीन और ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ के बीच सियासी रस्साकशी बढ़ी, वहीं खुसरो ने अपने पीर की बारगाह पर न हाज़री देनी छोड़ी और न सुल्तान को ही नाराज़ किया। इसी सिलसिले में खुसरो ने ' तुग़लक़नामा ' भी लिखा जो ग़ियासुद्दीन के बसाये इस नए शहर का लेख...

सूफ़ी फाइलें : कशकोल और ईद का चांद

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सूफ़ी फकीर कशकोल उठाए हुए ई द का चांद देखकर कभी आमिर खुसरो ने कहा था,  " ईद-उल-फितर के चांद ने जहान को खूबसूरत बना दिया /  इस नूर जैसी मय कहां है और कहां है इस चांद जैसा जाम? " चांद में जाम देखने वाले सूफी संतों ने शायद कुछ इसी तरह अपने भिक्षापात्र यानि ' कशकुल ' को भी अर्धचंद्र की शक्ल दे दी होगी, जिसमें वे घूम-घूम कर अनाज मांगते या पानी पीते फिरते थे। 'कश्कुल' एक किस्म का अर्धचंद्राकार कटोरा होता है, जो सूफी दरवेशों के दुनियावी  मोहभंग का प्रतीक है, उनकी फकीरी की निशानी। कांधे पर कंबल ओढ़े और हाथ में कशकुल उठाए फिरने वाले सूफी फकीर मानते हैं कि अंतर्मन को भी उस चांद-से गहरे कटोरे की तरह तजुर्बों से भरना चाहिए और समय आने पर सब वापिस बाहर उंडेल देना चाहिए। सूफ़ी शायर हाफ़िज़ ने भी कहा, " सूरज ही मय है और चांद है जाम, अगर भरना ही चाहते हो  तो सूरज को आधे चांद में भर दो .." एक सूफी कहानी में ऐसे ही एक बार बादशाह किसी फकीर का कशकोल भरते-भरते अपना पूरा खज़ाना लुटा देता है मगर कशकोल खाली ही रह जाता है, जिसपर फकीर कहता है,"ऐ नादान! ये ख़...

सूफ़ी फाइलें : सूफ़ी सरज़मीं - कश्मीर

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मख़दूम साहिब दरगाह की ज़ियारत करते लोग/ 1948 ' पी र वेर' या 'सूफ़ी संतों की धरती' के नाम से भी मशहूर रहा है कश्मीर। ईरान से आए सूफ़ी संत 'सैय्यद अली हमदानी' की झेलम किनारे बसी दरगाह 'खानकाह-ए-मौला' हो, 'दस्तगीर साहिब' की खूबसूरत दरगाह हो, चरार-ए-शरीफ में 'नंद ऋषि' की मज़ार हो, हरि-परबत पर 'मखदूम साहिब' की दरगाह हो या ऐश्मुकाम में 'ज़ैन शाह' की गुफानुमा मज़ार हो, कश्मीरी आवाम की तर्ज़-ए-ज़िन्दगी में सूफीवाद का असर गहरा रहा है। यहां नूरुद्दीन वली भी 'नंदऋषि' के नाम से मशहूर हुए और हर धर्म के लोगों के पीर बने। बौद्ध राजकुमार रींचन यहां आकर सूफ़ी ऋषि 'बुलबुल शाह' के प्रभाव में मुसलमान हुए। नन्दऋषि के सानिध्य में 'ज़ैन सिंह' सूफ़ी पीर 'ज़ैनुद्दिन' हो गए। मगर जब कश्मीर जला तो सूफीवाद की ये निशानियां भी कई-कई बार जलीं! 1995 की घेराबंदी में चरार-ए-शरीफ़ जला, 2012 में दस्तगीर साहिब दरगाह में आग लगी, 2017 में खानकाह-ए-मौला जल कर खाक हुआ, लेकिन लोगों के दबाव और  Intach Kashmir  जैसी संस्थाओं के द...

सूफ़ी फाइलें : दिल्ली दूर है

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निज़ामुद्दीन बाओली & तुगलकाबाद क़िला ता रीख़ गवाह है कि सियासत और रूहानियत की रस्साकशी और जुगलबंदी ने दिल्ली को कई शक्लों में ढाला। 14वीं सदी में जब सूफ़ी पीर 'हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया' का असर-ओ-रसूख़ उरूज पर था, तब दिल्ली की गद्दी संभाली 'घियासुद्दिन तुगलक' उर्फ़ 'गाज़ी मलिक' ने। घियासुद्दीन तुगलक ने जब सियासत के मुकाबले सूफीवाद का बढ़ता असर देखा तो औलिया को नीचा दिखाने के लिए तरकीबें सोचने लगे। उसी वक़्त निज़ामुद्दीन की डेरे के पास एक बाओली का काम चल रहा था लेकिन घियासूद्दीन ने तुग़लकाबाद के क़िले  की तामीर शुरू कर दी और फरमान सुनाया कि दिल्ली के सब मज़दूर सिर्फ़ क़िला बनाने के काम में लगेंगे। लेकिन औलिया के प्रति आदर भाव का असर ऐसा था कि फरमान के बावजूद मज़दूर दिन में क़िले के निर्माण में लगे रहते और रात में दीयों की रोशनी में निज़ामुद्दीन की बाआेली की खुदाई करते। सुल्तान को जब यह पता चला तो उसने शहर भर में तेल की बिक्री पर रोक लगा दी ताकि दीए ना जलाए जाएं लेकिन तमाम रुकावटों के बावजूद औलिया की सरपरस्ती में बाओली का काम बदस्तूर चलता रहा, जिससे सुल्...

सूफ़ी फाइलें : सूफीवाद में माताओं का श्रेय

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अ लिफ शफाक़ अपनी किताब ' ब्लैक मिल्क ' में लिखती हैं, " सूफियों का मानना है कि यह दुनिया मां के गर्भ जैसी है और हम सब अजन्मे बच्चे। जब इस दुनिया से निकलने का समय आता है तो हम सब डरते हैं यह सोचकर कि सब खत्म हो जाएगा लेकिन मृत्यु गर्भ से निकलकर एक नई ज़िंदगी शुरू करने जैसा है! " सूफीवाद में कई ज़िक्र मिलते हैं जो बताते हैं कि कैसे इस रहस्यमय पंथ के उभार के पीछे माताओं का श्रेय भी रहा। सूफी शायर बाबा फरीद की मां, करासुम बीबी ही उनकी पहली आध्यात्मिक गुरु थीं। निज़ामुद्दीन औलिया की माँ , बीबी ज़ुलेखा की सिखाई हुई बातों का असर उनकी वाणी में मिलता है। आज बीबी ज़ूलेखा का मक़बरा क़ुतुब मीनार के पास अदचीनी गांव में गुमनाम सा पड़ा है। कश्मीर के सूफी संत नंद ऋषि को बचपन में दूध पिलाने वाली योगिनी ' ललदद्द' या 'लल्लेश्वरी ' का प्रभाव उनपर ताउम्र रहा। ईरानी सूफी दार्शनिक अबू यजीद बस्तामी की मां ने उन्हें बेटे के फ़र्ज़ से आज़ाद कर आध्यात्मिक साधना करने की प्रेरणा दी। बाबा बुल्ले शाह अपनी कविताओं में एक ऐसी बुज़ुर्ग मां की तरह बात रखते हैं जो घर परिवार के तजु...

सूफ़ी फाइलें : हाफ़िज़ से टैगोर तक की यात्रा

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शीराज़ (ईरान) में हाफ़िज़ का मकबरा/रबींद्रनाथ ठाकुर, ईरानी अफसरान के साथ मकबरे पर/1932 स न 1932 का मई महीना था, जब ईरान के शासक, रज़ा शाह पहलवी ने रबींद्रनाथ टैगोर को ईरान आने का न्यौता दिया। टैगोर पहुंचे और अपना जन्मदिन भी टैगोर ने ईरानी श्रोताओं को अपनी कविताएं सुनाते हुए मनाया। टैगोर के पिता, ईरानी सूफ़ी शायर ' हाफ़िज़ ' की ग़ज़लों के मुरीद हुए करते थे, इसीलिए टैगोर भी ईरान के शिराज़ में स्थित 'हाफ़िज़' के मक़बरे में पहुंचे। संयोग ही था कि सदियों पूर्व, बंगाल के शासक ने भी सूफी शायर हाफ़िज़ को अपने यहां आने का न्यौता दिया था पर सेहत के चलते आने में असमर्थ हाफ़ि ज़ ने एक ग़ज़ल भेजकर माफी मांग ली थी, जिसमें लिखा था, ' हिंदुस्तान के सब तोते (शायर) अभिभूत हो जाएंगे इस मिश्री की डली-सी फ़ारसी ग़ज़ल को चखकर, जो मैं बंगाल भेज रहा हूं.. ' सदियों बाद जब बंगाल का मकबूल कवि टैगोर ईरान आया तो मानो हाफ़िज़ की अधूरी यात्रा की कड़ी फिर कविता से जुड़ गई। टैगोर लिखते हैं," हाफ़िज़ के मकबरे पर बैठे हुए लगा जैसे उनकी आंखों से निकलता नूर कई सदियों का सफर तय करके मे...

सूफ़ी फाइलें : समाजवादी सूफी

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का र्ल मार्क्स के जन्म के तकरीबन 100 साल पहले, पेरिस कम्यून के 150 साल पहले और फ्रांसीसी क्रांति के भी 200 साल पहले अविभाजित हिंदुस्तान और आज के सिंध (पाकिस्तान) में सूफ़ी संत ' शाह इनायत ' ने नारा दिया, "जो ज़मीन जोतेगा, वही खाएगा".. बाबा बुल्ले शाह के गुरु, शाह इनायत ने सामंतवाद के खिलाफ लोगों से ' सामूहिक खेती ' करने का आह्वान किया और छोट-बड़ाई भूल अपने शागिर्दों को बराबरी और मिलजुल कर उपजाने और खाने की प्रेरणा दी। बेशक, सामंती साईं इस समाजवादी तर्ज़ को पचा नहीं पाए और शाह इनाय त समेत उनके कम्यून को ख़त्म करवा दिया गया लेकिन इतिहास में शाह इनायत का नाम हमेशा के लिए ' सिंध के समाजवादी सूफी ' के तौर पर दर्ज हो गया, जिसने सिर्फ़ झूमने, त्यागने और पूजने ही नहीं, बल्कि लड़ने, जूझने और कमाने-खाने के लिए फकीरों को प्रेरित किया।

सूफ़ी फाइलें : दमा दम मस्त कलंदर

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अ प्रैल में कोरोना वायरस के चलते पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सूफी संत ' लाल शहबाज़ कलंदर ' की दरगाह पर होने वाला सालाना उर्स भी रद्द कर दिया गया। ' दमा दम मस्त कलंदर ' वाला पीर। उन्ही के शुरू किए हुए कलंदरी तरीके/सिलसिले पर चलने वाले सूफी अक्सर काला/लाल चोगे पहने, गांजा फूंकते हुए, सामाजिक और धार्मिक रिवायतों को धता बताते हुए फिरते हैं। अंग्रेज़ अपने साथ जो यूरोपीय पूंजीवाद और विक्टोरियन आधुनिकता लाए, उसके मापदंडों पर फकीरी और आत्मरोपित अध्यात्म और सरमायादारी का त्याग फिट नहीं बै ठते थे। रूहानी दौलत जैसी सूफियाना बातें खारिज की गईं और सूफ़ी फक्कड़ों की निष्क्रियता पर सवाल उठाए गए, उन्हें मुस्लिम समाज के पतन का कारण तक बताया गया। शायद इसी क्रम में इक़बाल जैसे सुधारकों ने भी इस अलमस्त जीवनशैली का विरोध किया। लेकिन लाल शहबाज़ कलंदर के मुरीद आज भी अपनेआप में एक विद्रोह हैं धार्मिक अतिवाद के खिलाफ, ढकोसलों और दुनियावी भागदौड़ के ख़िलाफ़ ! वैसे सिंध में लाल शहबाज़ कलंदर के साथ झूलेलाल का नाम भी लिया जाता है जो हिन्दुओं के ईष्ट हैं और कहते हैं कि मिथकों में दोनों को...

सूफ़ी फाइलें : इक़बाल और फकीरी

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फोटो:   ©️ सोहेल करमानी/flickr आ बिदा परवीन की आवाज़ गूंज रही है गाते हुए, " मन लागो यार फ़कीरी में... " और सोच रही हूं कि काफी ओवररेटेड है 'फकीरी' अध्यात्म और कविता की दुनिया में। वैसे (शायर-दार्शनिक) अल्लामा इक़बाल के सूफीवाद पर किए गए काम को खंगाल कर देखने पर भी फकीरी की नई परतें खुलती हैं। इक़बाल का दीनी सफ़र धर्मनिरपेक्षता के पड़ाव से होते हुए सूफीवाद की ओर मुड़ा और फिर इस्लामी झुकाव पर आकर रुका। इक़बाल ने 'जलालुद्दीन रूमी' को अपना मुर्शिद माना और सूफीवाद के 'कादरी तरीके' से जुड़े रहे। लेकिन सूफीवाद से  उन्हें यह शिकवा रहा कि इसने इंसान को झूठा त्याग सिखाया है और पूरी तरह से अपनी अज्ञानता और आध्यात्मिकता में डूबा रहने को बढ़ावा दिया है। इक़बाल का मानना था कि सूफीवाद में निष्क्रियता (passivity) फ़ारसी और यूनानी विचार के कारण आई थी, इसीलिए उन्होंने चाहा कि मुरीद फ़ारसीवाद के कोहरे से निकले और अरब की रेगिस्तानी धूप में चले। इसी कारण इक़बाल को सूफीवाद का मुखालिफ भी समझा जाने लगा लेकिन उनकी सूफीवाद की आलोचना एक बाहरी व्यक्ति की आलोचना नहीं थी। ब...

सूफ़ी फाइलें : मेला चरागां

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क्या संयोग है कि प्रधानमंत्री मोदी के 5 अप्रैल की शाम दीया जलाने के आह्वान के साथ मुझे लाहौर में लगभग इसी समय मनाया जाने वाला मेला चरागां याद आ गया, जो सूफी संत 'शाह हुसैन' और उनके मुरीद 'माधो लाल' की मज़ार पर लगने वाले सालाना उर्स के साथ मनाया जाता है। महाराजा रंजीत सिंह के समय से इस मेले में सारे लाहौर शहर को दीए, मोमबत्तियों से रोशन किया जाता था और हिन्दू, मुसलमान, सिख सब मिलकर अपनी सांझी तहजीब को ढोल, नगाड़े, धमाल और सूफिया कलाम पर झूमते मलंगों को देखकर मनाया करते थे। आज भी यह मेला बैसाख में तीन चार दिन च लता है। एक डॉक्यूमेंट्री है छोटी सी, देखिएगा कैसे  सामूहिक उन्माद में झूमती है जनता मेला चरागां में। 

अल्लाह बिस्मिल्लाह मेरी जुगनी

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आखिर कौन थी जुगनी? या कौन 'है' ? हर औरत जैसी लगने वाली मगर एक रहस्यमई पहचान लिए आज़ाद जगह-जगह फिरने वाली ? ना हिन्दू, ना सिख, ना मुसलमान। ना ब्याहता, ना कुंवारी, ना रईस, ना फ़कीर। नाम अल्लाह का भी लेती है, साईं का भी, पीर, गुरु और हरि का भी ! कभी जालंधर, कभी कलकत्ता, कभी कश्मीर घूमघूम कर रूहानी फलसफे बटोरती हुई जुगनी! दाता दरबार में भी मिल जाएगी, मदीने में भी और टेनिस कोर्ट में भी! सरहद के इस पार भी और उस पार भी! आखिर कौन हुई जुगनी? पंजाब चाहे हिंदुस्तान वाला हो या पाकिस्तान वाला, 'जुगनी' का नाम लोकसंगीत में आज भी ज़ोर शोर से गूंजता है। जहां पारंपरिक चित्रों में पंजाबी महिलाएं अक्सर चरखा कातती, चूल्हे पर रोटियां सेंकती या गिद्दा डालती दिखाई जाती हैं, वहीं जुगनी एक ऐसी उन्मुक्त किरदार है, जो अलग-अलग शहरों और तजुर्बों से अकेले ही गुजरती है और अपनी आंखों-देखी के माध्यम से रूहानी फलसफे बयान करती है। इस उपमहाद्वीप में जहां इब्न बतूता, बाबा नानक और राहुल सांकृत्यायन जैसे पुरुष यात्रियों के वृतांत सराहे गए हों, वहां पितृसत्ता की लक्ष्मण-रेखा लांघ कर दुनिया घूमने वाली...

मेला : तहज़ीबों का संगम

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इक़बाल सुहैल अपनी ग़ज़ल में फरमाते हैं, "मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं जौहर दरियाओं के संगम से बढ़ कर तहज़ीबों का संगम होता है।" मेल-जोल का बहाना बनकर मेलों ने सदियों से तहज़ीबों को जोड़ कर रखने का काम किया है। चाहे कुम्भ मेला हो या दशहरा का मेला, गोवा का कार्निवल हो या बिहार का सोनपुर मेला, लोक संस्कृति और सामूहिक उत्तेजना के प्रतीक के रूप में मेलों का महत्त्व अद्वितीय रहा है।  नदियों किनारे लगने वाले मेलों में सबसे प्रख्यात है अर्ध कुम्भ और महाकुम्भ मेला, जो हर छः और बारह सालों के अंतराल में गंगा, यमुना, शिप्रा और गोदावरी नदी के किनारे लगता है। कुम्भ मेला सनातन धर्म की एक विशाल झांकी के समान होता है, जिसमें प्रचंड जनसमूह, बतौर दर्शनार्थी और श्रद्धालु हिस्सा लेता है। कुम्भ मेले की भीड़ को लेकर मिलने-बिछड़ने की लोकोक्तियाँ भी मशहूर हैं। साधुओं के अखाड़ों का शक्ति प्रदर्शन, आपसी टकराव, भगदड़ और जनसैलाब कुम्भ मेले से जुड़ी विशिष्टताएँ हैं।  इसी तरह मान्यता है कि  बिहार के सिमरिया में आयोजित होने वाले कुम्भ मेला का इतिहा...