सूफ़ी फाइलें : सूफ़ी सरज़मीं - कश्मीर

मख़दूम साहिब दरगाह की ज़ियारत करते लोग/ 1948

'पीर वेर' या 'सूफ़ी संतों की धरती' के नाम से भी मशहूर रहा है कश्मीर। ईरान से आए सूफ़ी संत 'सैय्यद अली हमदानी' की झेलम किनारे बसी दरगाह 'खानकाह-ए-मौला' हो, 'दस्तगीर साहिब' की खूबसूरत दरगाह हो, चरार-ए-शरीफ में 'नंद ऋषि' की मज़ार हो, हरि-परबत पर 'मखदूम साहिब' की दरगाह हो या ऐश्मुकाम में 'ज़ैन शाह' की गुफानुमा मज़ार हो, कश्मीरी आवाम की तर्ज़-ए-ज़िन्दगी में सूफीवाद का असर गहरा रहा है। यहां नूरुद्दीन वली भी 'नंदऋषि' के नाम से मशहूर हुए और हर धर्म के लोगों के पीर बने। बौद्ध राजकुमार रींचन यहां आकर सूफ़ी ऋषि 'बुलबुल शाह' के प्रभाव में मुसलमान हुए। नन्दऋषि के सानिध्य में 'ज़ैन सिंह' सूफ़ी पीर 'ज़ैनुद्दिन' हो गए।
मगर जब कश्मीर जला तो सूफीवाद की ये निशानियां भी कई-कई बार जलीं! 1995 की घेराबंदी में चरार-ए-शरीफ़ जला, 2012 में दस्तगीर साहिब दरगाह में आग लगी, 2017 में खानकाह-ए-मौला जल कर खाक हुआ, लेकिन लोगों के दबाव और Intach Kashmir जैसी संस्थाओं के दख़ल से ये इमारतें फिर से उठ खड़ी हुईं। 1921 के आसपास शायर 'इक़बाल' अपनी कश्मीरी जड़ें तलाशते यहां खिंचे चले आए लेकिन सूफी संतों की सिखाई 'ज़ब्त' से खुश नहीं हुए। इक़बाल चाहते थे कि सूफी संत, आवाम को उनके हक़ की लड़ाई के लिए प्रेरित करे। और आज जब मैदान-ए-जंग बना हुआ है कश्मीर तो केंद्र सरकार के बढ़ावे पर कुछ सूफ़ी गुटों ने दोबारा कश्मीर का रुख किया है जो वहां की धधकती सियासी ज़मीन को सूफीवाद के चश्मे से तर कर सकें और शांति दूत बनकर घर-घर जाएं। लेकिन जानकार कहते हैं कि रोमन सभ्यता की तरह आवाम को (सूफीवाद का) 'ब्रैड और सर्कस' देकर बहुत देर बहलाना नामुमकिन है। 

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