सूफ़ी फाइलें | दाता दरबार
"वंगां चढ़ा लो कुड़ियों, मेरे दाता दे दरबार दियां"
लोकगायक आरिफ़ लोहार अपना चिमटा बजाते हुए जुगनी को जिस दाता दरबार की वंगां (चूड़ियां) चढ़ाने को कहते हैं, वो है सूफ़ी संत 'अल हुजविरी' या 'दाता गंज बख्श' की लाहौर (पाकिस्तान) में बसी मज़ार, जहां 6 अक्तूबर से सालाना उर्स शुरू हो गया।
दाता दरबार का नाम दक्षिण एशिया के सबसे मकबूल सूफ़ी तीर्थों में लिया जाता है। कमाल की बात यह है कि मुग़ल शासनकाल से लेकर नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली की छापामारी के दौर तक में कभी दाता दरबार पर आँच नहीं आई। महाराजा रंजीत सिंह के राज के दौरान भी दाता दरबार की साख बरक़रार रही और अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान भी इस दरगाह को किसी तरह से बदलने या नुकसान पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं की गई।
जुल्फिकार भुट्टो ने जहां दाता दरबार में एक स्वर्ण दरवाज़ा चढ़ाया तो जनरल ज़िया ने यहां एक विशाल मस्जिद बनवाकर अपनी राजनीतिक वैद्यता पर मुहर लगवाई। बेनज़ीर भुट्टो के खिलाफ़ जब सियासी दुष्प्रचार किया गया कि वह पश्चिमी सभ्यता में पली-बड़ी नास्तिक खातून हैं तो बेनज़ीर ने भी दाता दरबार में हाज़िरी देकर अपने विरोधियों की तोहमतों का जवाब दिया था। लालू प्रसाद यादव जब 2003 में पहली बार लाहौर आए तो उनकी भी इच्छा दाता दरबार पर माथा टेकना थी।
अलग-अलग दौर-ए-सियासत में आबाद रहने वाली इस दरगाह पर हाल में कट्टरपंथियों ने दो बार बड़े आत्मघाती हमले किए, जिसके बाद दरगाह में चौकसी बढ़ा दी गई है। लेकिन इस 'कोरोना' के दौर में उर्स मनाते ज़ायरीन खुद एक तरह के खतरे से खेलते हुए मालूम हो रहे हैं।
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