सूफ़ी फाइलें : सूफीवाद में माताओं का श्रेय
अलिफ शफाक़ अपनी किताब 'ब्लैक मिल्क' में लिखती हैं, "सूफियों का मानना है कि यह दुनिया मां के गर्भ जैसी है और हम सब अजन्मे बच्चे। जब इस दुनिया से निकलने का समय आता है तो हम सब डरते हैं यह सोचकर कि सब खत्म हो जाएगा लेकिन मृत्यु गर्भ से निकलकर एक नई ज़िंदगी शुरू करने जैसा है!" सूफीवाद में कई ज़िक्र मिलते हैं जो बताते हैं कि कैसे इस रहस्यमय पंथ के उभार के पीछे माताओं का श्रेय भी रहा। सूफी शायर बाबा फरीद की मां, करासुम बीबी ही उनकी पहली आध्यात्मिक गुरु थीं। निज़ामुद्दीन औलिया की माँ, बीबी ज़ुलेखा की सिखाई हुई बातों का असर उनकी वाणी में मिलता है। आज बीबी ज़ूलेखा का मक़बरा क़ुतुब मीनार के पास अदचीनी गांव में गुमनाम सा पड़ा है। कश्मीर के सूफी संत नंद ऋषि को बचपन में दूध पिलाने वाली योगिनी 'ललदद्द' या 'लल्लेश्वरी' का प्रभाव उनपर ताउम्र रहा। ईरानी सूफी दार्शनिक अबू यजीद बस्तामी की मां ने उन्हें बेटे के फ़र्ज़ से आज़ाद कर आध्यात्मिक साधना करने की प्रेरणा दी। बाबा बुल्ले शाह अपनी कविताओं में एक ऐसी बुज़ुर्ग मां की तरह बात रखते हैं जो घर परिवार के तजुर्बों से लबरेज़ हो। सूफीवाद में मां का संतों पर इतना गहरा असर होने के बावजूद अफ़सोस होता है जब दरगाहों में औरतों को गर्भ-गृह में प्रवेश नहीं दिया जाता और वे जालियों पर ही मन्नती धागे बांध कर खुश हो लेती हैं।
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