सूफ़ी फाइलें | सूफीवाद और सिक्खी की सांझी परम्परा

"फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से, 
हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से.."

यह अल्फ़ाज़ लिखे अल्लामा इकबाल ने सिख धर्म के संस्थापक 'गुरु नानक देवजी' की शान में। आज 'गुरुपूरब' या 'प्रकाश पर्व' के तौर पर गुरु नानक देवजी की जयंती पूरी दुनिया में मनाई जा रही है। ऐसे में गुरुनानक के भक्ति आन्दोलन और सूफीवाद से जुड़ाव को पलटकर देखने के लिए भी यह वक्त सबसे मुनासिब है। 

बेदी समुदाय (वेद पढ़ने वाले) में जन्मे नानक ने अपने धर्म-संप्रदाय की खींची लकीरों को लांघ कर दुनिया भर में तीर्थयात्राएं की, जिन्हें नानक की 'उदासियां' कहा गया। अपनी उदासियों के दौरान उन्हें सानिध्य मिला नाथ जोगियों का और ऋषि-मुनियों का। ऐसी ही एक उदासी (तीर्थ यात्रा) की उन्होंने मक्का (हज) की और अफ़ग़ानिस्तान, बग़दाद की, जहां उन्होंने इस्लामी अध्यात्म/ सूफीवाद को और करीब से जाना और समझा।   

मकबूल सूफी संत 'बाबा फरीद' की वाणी से नानक इतना प्रभावित हुए कि उसे 'गुरुबाणी' में भी शामिल किया गया। हिंदुस्तान में समकालीन उदय होने के कारण सूफीवाद और सिक्खी में कई समानताएं मिलती हैं। नानक ने सूफी फ़कीरों वाला भेष अपनाया, गेरुआ वस्त्र और हाथ में तस्बीह; ज़िक्र की तर्ज़ पर 'सिमरण' और बांट कर खाने (वंड खाओ) की तर्ज़ पर 'लंगर', सूफ़ी दरगाहों और गुरुद्वारों की एक सांझी परम्परा का हिस्सा रहा है। 

गुरु नानक देवजी को निर्वाण प्राप्त हुआ पंजाब की नदी 'काली बैन' में स्नान करने के बाद, जब तीन दिन बाद नदी से बाहर आकर उन्होंने पहला संदेश दिया,"ना कोई हिन्दू, ना मुसलमान"..यानि जो मुसलमान इस्लाम का सच्चा अनुसरण करे और वह सच्चा हिन्दू जो हिन्दू धर्म का सच्चा निर्वाहन करे, वही उनका सच्चा शिष्य या 'सिख' बन सकता है। भेदभाव मिटाकर सर्वधर्म का सार अपनी वाणी में पिरोकर नानक ने मानवता का अमिट संदेश दिया। 

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