सूफ़ी फाइलें | रूमी की रोशनख्याली
अपनी धुन में मग्न होकर रक्स करते सूफ़ी दरवेशों की परम्परा शुरू करने वाले मौलाना 'रूमी' के नाम से आज कौन वाक़िफ नहीं है। रूमी का उर्स, त्योहार की तरह तकरीबन इसी समय तुर्की के कोन्या में मनाया जा रहा है।
रूमी की कही बातें और उनपर लिखी गईं किताबें तो खूब मशहूर हुई हैं, लेकिन उनके अपने फलसफों को ज़्यादातर पश्चिमी कलेवर में ढालकर ही परोसा गया है। लगभग विक्टोरियन समय से ही रूमी के वक्तव्यों को पश्चिमी देशों में प्रचारित किया गया लेकिन उनकी लेखनी से इस्लामी प्रभाव को हटाकर, ताकि सूफीवाद को इस्लाम से अलग पंथ के तौर पर दिखाया जा सके; हालांकि रूमी खुद ताउम्र कुरान पढ़ने बा'शर और दीन के पंथी ही रहे।
रूमी ने अपने फलसफों को मस्नवी नाम की किताब में पिरोया और उनके गुरु शम्स तब्रेजी का असर उनकी लेखनी में हमेशा रहा। 'वाहदत अल अद्यान' या सर्वधर्म सम्भाव जैसी सार्वभौमिकता की बात भी रूमी करते हैं और अपने मुर्शिद शम्स तब्रेजी के लिए अपना अथाह मोह भी खुलकर बयान करते हैं, लेकिन रूमी की यह बातें उनकी किताब 'The Forbidden Rumi : Suppressed Poems of Rumi on Love, Heresy and Intoxication' में शामिल होने के बाद से खूब विवादित भी रहीं।
इसी तरह 1925 में तुर्की में कमाल अतातुर्क के सत्ता में आते ही सूफी सिलसिलों पर पाबंदियां लगाई गईं, जिससे रूमी के शुरू किए मेवलवी सिलसिले के अनुयायियों को छुपकर मिलना पड़ता और गुपछिप समा महफिलें होती।
हालांकि अब तुर्की में सूफी दरवेशों का रक्स सैलानियों को टिकट देकर भी दिखाया जाता है पर आज केे बदलते तुर्की में रूमी की सुझाई सूफियाना रोशनख़याली के लिए कितनी जगह बची है, यह कहना मुश्किल है।
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