सयानी दीवानी : दियासलाइयों का दस्ता
राधाकृष्ण प्रकाशन से आई किताब 'सयानी दीवानी' प्रख्यात लेखिका नूर ज़हीर की लिखी कहानियों का एक ऐसा दस्ता है, जो अपनी भाषा, बनावट और सार के लिहाज से हर पाठक को बाँधने की सलाहियत रखता है। यह कहानी संकलन माचिस की उस डिबिया की तरह है जिसकी हर कहानी अपने आप में एक दियासलाई है, जो सामाजिक रिवायतों और बनावटी रिश्तों की खुरदुरी सतह से रगड़कर बगावत की चिंगारी हर किरदार की शक़्ल में सामने लेकर आती है।
लेखिका नूर ज़हीर के लिखे किरदार आपको रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में चलते-फिरते मिल जाएंगे, कभी सब्ज़ी खरीदते हुए, कभी पड़ोस की बालकनी में सुस्ताते हुए, कभी किसी त्योहार के रोज़ किसी रिश्तेदार के यहाँ, कभी अपनी माँओ-मौसियों में, कभी अपने दफ्तर के किसी कलीग में; और फिर यह दोस्ताना किरदार हाथ थाम कर अपनी कहानी में पाठक को सहज ही खींच ले जाते हैं। किरदारों की परतें खुलते-खुलते पाठक उनमें अपनी छाया देखने लगता है और फिर कहानी कभी ज़िन्दगी के अंदर होती है तो कभी ज़िन्दगी कहानी के बाहर ।
ज़्यादातर कहानियाँ औरतों की ज़िन्दगी के इर्द गिर्द ही रक़्स करती हैं लेकिन खास बात यह है कि यह किरदार हालात का शिकार तो होते हैं मगर समझौतापरस्त हरगिज़ नहीं होते। हर किरदार एक जद्दोजेहद में हैं लेकिन हथियार डाल कर समर्पण करता नहीं दिखता। धर्म और रिवाज़ों की सलीब सदियों से अपने कन्धों पर ढोती औरतें इन कहानियों में इस सलीब को सवालिया निशान की तरह समाज की छाती पर गाड़ देती हैं। बरसों समाज की बनाई सीधी सड़क पर चलती यह औरतें जुर्रत से अपने मन की कच्ची पगडंडियों पर डगमगाती हुई दौड़ने लगती हैं। उन्मुक्त लेकिन सख्त इरादे वाली औरतें, रिश्तों की दिहाड़ी में ताउम्र ज़ाया होती औरतें, ज़िम्मेदारियों से रिटायर होने को छटपटाती औरतें, पागलपन की दहलीज़ पर खड़ी औरतें, सिगरटें फूंकती और किताबें पढ़ती हुई औरतें, सोती औरतें और जागती औरतें..
इन कहानियों में औरतों की बौद्धिक भूख और जिस्मानी चाहतों को भी बड़ी नज़ाकत के साथ रखा गया है। उनका अपने हक़ के लिए जागृत होना, धर्म की बजाय यथार्थ में हल तलाशना, अपनी आपबीती के ज़ख्मों को खुली धूप दिखाना लेखिका की रोशनख़याली की तरफ भी इशारा करता है। इन कहानियों में बेबस होकर किरदार किसी हीरो का इंतज़ार नहीं करते बल्कि 'BE YOUR OWN HERO' की तर्ज़ पर अपनी कहानी की कमान खुद सँभालते हैं।
एक और आयाम जो इन कहानियों को खास बनाता है वो यह कि हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों और सूफियों तक में कैसे औरतों को दोयम दर्ज़ा हासिल है, किरदारों के माध्यम से यह बार-बार बेबाकी से दोहराया जाता है। औरतों के लिए न जन्नत में जगह है और न मोक्ष-मार्ग, इन सवालों से द्वन्द करते किरदार सब्र की सीख को ठुकरा कर कैसे तर्कशीलता और तजुर्बे की राह चुनते हैं, यह पढ़ना बेहद दिलचस्प है।
लेखिका नूर ज़हीर की भाषा बेहद शीरीं हैं, उर्दू और हिंदी की जुगलबंदी इस रचना को भाषाई स्तर पर और ज़्यादा संपन्न बनाती है। कहीं भी लेखक का लहजा उपदेशात्मक नहीं होता, निहित अर्थों की गाँठें कहानी अपनेआप ही खोलती चली जाती है। स्त्रीवाद की समझ कैसे गल्प के माध्यम से विकसित हो जाए, कम शब्दों में कैसे ज़िन्दगी के फ़लसफ़े पिरोए जाएं, यह समझने के लिए एक पाठक का 'सयानी दीवानी' से गुज़ारना लाज़मी है।
Comments
Post a Comment