सूफ़ी फाइलें : इक़बाल और फकीरी

फोटो: ©️सोहेल करमानी/flickr

बिदा परवीन की आवाज़ गूंज रही है गाते हुए, "मन लागो यार फ़कीरी में..." और सोच रही हूं कि काफी ओवररेटेड है 'फकीरी' अध्यात्म और कविता की दुनिया में। वैसे (शायर-दार्शनिक) अल्लामा इक़बाल के सूफीवाद पर किए गए काम को खंगाल कर देखने पर भी फकीरी की नई परतें खुलती हैं। इक़बाल का दीनी सफ़र धर्मनिरपेक्षता के पड़ाव से होते हुए सूफीवाद की ओर मुड़ा और फिर इस्लामी झुकाव पर आकर रुका। इक़बाल ने 'जलालुद्दीन रूमी' को अपना मुर्शिद माना और सूफीवाद के 'कादरी तरीके' से जुड़े रहे। लेकिन सूफीवाद से उन्हें यह शिकवा रहा कि इसने इंसान को झूठा त्याग सिखाया है और पूरी तरह से अपनी अज्ञानता और आध्यात्मिकता में डूबा रहने को बढ़ावा दिया है। इक़बाल का मानना था कि सूफीवाद में निष्क्रियता (passivity) फ़ारसी और यूनानी विचार के कारण आई थी, इसीलिए उन्होंने चाहा कि मुरीद फ़ारसीवाद के कोहरे से निकले और अरब की रेगिस्तानी धूप में चले। इसी कारण इक़बाल को सूफीवाद का मुखालिफ भी समझा जाने लगा लेकिन उनकी सूफीवाद की आलोचना एक बाहरी व्यक्ति की आलोचना नहीं थी। बल्कि यह सूफी आत्म-समालोचना की शानदार परंपरा का ही हिस्सा था, जिससे सूफ़ीमत के अंदर से ही सुधार का रास्ता निकाला जा सके। हालांकि फक्कड़-मिज़ाजी के उलट अति-अनुशासित जमातें इतिहास में कहीं ज़्यादा खतरनाक साबित हुई हैं, यह भी सच है !

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