सूफ़ी फाइलें : हाफ़िज़ से टैगोर तक की यात्रा

शीराज़ (ईरान) में हाफ़िज़ का मकबरा/रबींद्रनाथ ठाकुर, ईरानी अफसरान के साथ मकबरे पर/1932

न 1932 का मई महीना था, जब ईरान के शासक, रज़ा शाह पहलवी ने रबींद्रनाथ टैगोर को ईरान आने का न्यौता दिया। टैगोर पहुंचे और अपना जन्मदिन भी टैगोर ने ईरानी श्रोताओं को अपनी कविताएं सुनाते हुए मनाया। टैगोर के पिता, ईरानी सूफ़ी शायर 'हाफ़िज़' की ग़ज़लों के मुरीद हुए करते थे, इसीलिए टैगोर भी ईरान के शिराज़ में स्थित 'हाफ़िज़' के मक़बरे में पहुंचे। संयोग ही था कि सदियों पूर्व, बंगाल के शासक ने भी सूफी शायर हाफ़िज़ को अपने यहां आने का न्यौता दिया था पर सेहत के चलते आने में असमर्थ हाफ़िज़ ने एक ग़ज़ल भेजकर माफी मांग ली थी, जिसमें लिखा था, 'हिंदुस्तान के सब तोते (शायर) अभिभूत हो जाएंगे इस मिश्री की डली-सी फ़ारसी ग़ज़ल को चखकर, जो मैं बंगाल भेज रहा हूं..'
सदियों बाद जब बंगाल का मकबूल कवि टैगोर ईरान आया तो मानो हाफ़िज़ की अधूरी यात्रा की कड़ी फिर कविता से जुड़ गई। टैगोर लिखते हैं,"हाफ़िज़ के मकबरे पर बैठे हुए लगा जैसे उनकी आंखों से निकलता नूर कई सदियों का सफर तय करके मेरे दिल में उतर रहा है। जैसे हम दोनों ही मयखाने में बैठे हम-प्याला हैं जो आत्मज्ञान का रस पी रहे हैं!"
असल यात्री वही, जो मीलों बाहर भी घूमे और खुद के अन्दर भी गहरे उतरे।

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