अल्लाह बिस्मिल्लाह मेरी जुगनी
आखिर कौन थी जुगनी? या कौन 'है' ? हर औरत जैसी लगने वाली मगर एक रहस्यमई पहचान लिए आज़ाद जगह-जगह फिरने वाली ? ना हिन्दू, ना सिख, ना मुसलमान। ना ब्याहता, ना कुंवारी, ना रईस, ना फ़कीर। नाम अल्लाह का भी लेती है, साईं का भी, पीर, गुरु और हरि का भी ! कभी जालंधर, कभी कलकत्ता, कभी कश्मीर घूमघूम कर रूहानी फलसफे बटोरती हुई जुगनी! दाता दरबार में भी मिल जाएगी, मदीने में भी और टेनिस कोर्ट में भी! सरहद के इस पार भी और उस पार भी! आखिर कौन हुई जुगनी?
पंजाब चाहे हिंदुस्तान वाला हो या पाकिस्तान वाला, 'जुगनी' का नाम लोकसंगीत में आज भी ज़ोर शोर से गूंजता है। जहां पारंपरिक चित्रों में पंजाबी महिलाएं अक्सर चरखा कातती, चूल्हे पर रोटियां सेंकती या गिद्दा डालती दिखाई जाती हैं, वहीं जुगनी एक ऐसी उन्मुक्त किरदार है, जो अलग-अलग शहरों और तजुर्बों से अकेले ही गुजरती है और अपनी आंखों-देखी के माध्यम से रूहानी फलसफे बयान करती है। इस उपमहाद्वीप में जहां इब्न बतूता, बाबा नानक और राहुल सांकृत्यायन जैसे पुरुष यात्रियों के वृतांत सराहे गए हों, वहां पितृसत्ता की लक्ष्मण-रेखा लांघ कर दुनिया घूमने वाली जुगनी के गीत गाया जाना भी एक विद्रोह से कम नहीं है।
यूं तो जुगनी (पु° जुगनू) चमकने वाला एक पतंगा होती है, मगर सूफ़ी जिस तस्बीह (माला) के मनके फेरते रहते हैं, उसे भी जुगनी ही कहते हैं। पंजाब में गले में पहने जाने वाले ताबीज़ को भी जुगनी ही कहते हैं ।
रावलपिंडी के आसपास, पोटोहर की लोककथाओं में भी एक जुगनी-रावल का किस्सा मिलता है, जिसमें कहते हैं कि रावल की हत्या किए जाने के बाद जुगनी दीवानी होकर जगह-जगह भटकने लगी, जिसपर आगे चलकर लोकगीत लिखे गए। लेकिन यह दावा भी पक्का नहीं क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि 19वीं सदी के एक सूफ़ी संत, बाबा रोडे शाह फ़कीर जलाली ने जुगनी पर आधारित गीतों की रचना की।
एक और किस्सा है कि जुगनी दरअसल 'jubilee' शब्द से निकला है। 1887 ई में जब ब्रिटिश हुकूमत की गोल्डन जुबली मनाई जा रही थी, तब हिंदुस्तान के अलग-अलग प्रांतों में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतीक स्वरूप एक मशाल घुमाई गई, जिसके इस्तकबाल में लोकगीत और विरसे के प्रोग्राम होते थे। उस समय पंजाब में मांदा और बिष्णा नाम के दो लोकगायक हुए, जिन्होंने जुबली मंच के आसपास ही अपना मंच लगाकर लोकगीतों से अंग्रेजी हुकूमत की मज़म्मत करनी शुरू की, जिससे लोगों में आज़ादी को लेकर चेतना जगी। जुबली मशाल जैसे जगह-जगह घूमी, वैसे वैसे अपभ्रंश बनकर जुगनी के गीत भी उन्हीं जगहों को रेफरेंस लेकर बुन दिए गए। जुगनी, इस तरह, आज़ादी का पहला प्रोटेस्ट गीत भी बनी।
चिमटा बजाकर मदमस्त सूफियाना कलाम गाने वाले पाकिस्तान के लोकगायक आलम लोहार ने जुगनी को 1940 के दशक में पुनर्जन्म दिया और मशहूर किया। साहीवाल में जन्मे पंजाबी गायक हज़ारा सिंह रमता ने भी अपने अलहदा अंदाज़ में जुगनी गाकर लोकपरम्परा में नया अध्याय जोड़ा। इसके बाद आसा सिंह मस्ताना, कुलदीप मानक, गुरदास मान, आरिफ लोहार और रब्बी शेरगिल तक ने अपने गीतों में जुगनी को ज़िंदा रखा, रवां रखा।
जुगनी आज भी सफ़र पर है, एक दर्शनार्थी की तरह, एक चश्मदीद गवाह की तरह, समाज- सियासत - मज़हब और ज़िन्दगी को गौर से देखती हुई, अपनी सूफियाना तबीयत के मुताबिक निष्कर्ष निकालती हुई, सीखती सिखाती हुई, अनंत अनादि!
👌
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