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Showing posts from June, 2020

सूफ़ी फाइलें | आमिर ख़ुसरो : सूफ़ी सुख़नवर

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'अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई। जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।।' पहली दफ़ा ही होगा कि ' तूती-ए-हिन्द ',  आमिर ख़ुसरो के उर्स-मुबारक पर निज़ामुद्दीन का बरामदा क़व्वालियों से गूँज नहीं रहा होगा।  कोरोना लॉकडाउन के चलते जून माह में भी 'महबूब-ए-इलाही' निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह ज़ायरीन के लिए बंद ही रहेगी और आज आमिर खुसरो को याद करते हुए हम सिर्फ़ उनकी ज़िन्दगी और शायरी का ज़िक्र ही कर सकते हैं।  सियासत की सड़क पर चलते-चलते तसव्वुफ़ के बरगद के नीचे बैठकर सुस्ता लेने वाले खुसरो ने दिल्ली में ग्यारह दफ़ा निज़ाम बदलते देखा और पांच सुल्तानों के दरबार में बतौर राज-कवि भी रहे। लेकिन दुनियावी ज़िम्मेदारियों की गठरी कंधे पर उठाए हुए भी खुसरो, अपने मुर्शिद हज़रत निज़ामुद्दीन की सोहबत में रूहानी गहराईयों में उतरते चले गए।  जहाँ निज़ामुद्दीन और ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ के बीच सियासी रस्साकशी बढ़ी, वहीं खुसरो ने अपने पीर की बारगाह पर न हाज़री देनी छोड़ी और न सुल्तान को ही नाराज़ किया। इसी सिलसिले में खुसरो ने ' तुग़लक़नामा ' भी लिखा जो ग़ियासुद्दीन के बसाये इस नए शहर का लेख...

सूफ़ी फाइलें : कशकोल और ईद का चांद

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सूफ़ी फकीर कशकोल उठाए हुए ई द का चांद देखकर कभी आमिर खुसरो ने कहा था,  " ईद-उल-फितर के चांद ने जहान को खूबसूरत बना दिया /  इस नूर जैसी मय कहां है और कहां है इस चांद जैसा जाम? " चांद में जाम देखने वाले सूफी संतों ने शायद कुछ इसी तरह अपने भिक्षापात्र यानि ' कशकुल ' को भी अर्धचंद्र की शक्ल दे दी होगी, जिसमें वे घूम-घूम कर अनाज मांगते या पानी पीते फिरते थे। 'कश्कुल' एक किस्म का अर्धचंद्राकार कटोरा होता है, जो सूफी दरवेशों के दुनियावी  मोहभंग का प्रतीक है, उनकी फकीरी की निशानी। कांधे पर कंबल ओढ़े और हाथ में कशकुल उठाए फिरने वाले सूफी फकीर मानते हैं कि अंतर्मन को भी उस चांद-से गहरे कटोरे की तरह तजुर्बों से भरना चाहिए और समय आने पर सब वापिस बाहर उंडेल देना चाहिए। सूफ़ी शायर हाफ़िज़ ने भी कहा, " सूरज ही मय है और चांद है जाम, अगर भरना ही चाहते हो  तो सूरज को आधे चांद में भर दो .." एक सूफी कहानी में ऐसे ही एक बार बादशाह किसी फकीर का कशकोल भरते-भरते अपना पूरा खज़ाना लुटा देता है मगर कशकोल खाली ही रह जाता है, जिसपर फकीर कहता है,"ऐ नादान! ये ख़...

सूफ़ी फाइलें : सूफ़ी सरज़मीं - कश्मीर

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मख़दूम साहिब दरगाह की ज़ियारत करते लोग/ 1948 ' पी र वेर' या 'सूफ़ी संतों की धरती' के नाम से भी मशहूर रहा है कश्मीर। ईरान से आए सूफ़ी संत 'सैय्यद अली हमदानी' की झेलम किनारे बसी दरगाह 'खानकाह-ए-मौला' हो, 'दस्तगीर साहिब' की खूबसूरत दरगाह हो, चरार-ए-शरीफ में 'नंद ऋषि' की मज़ार हो, हरि-परबत पर 'मखदूम साहिब' की दरगाह हो या ऐश्मुकाम में 'ज़ैन शाह' की गुफानुमा मज़ार हो, कश्मीरी आवाम की तर्ज़-ए-ज़िन्दगी में सूफीवाद का असर गहरा रहा है। यहां नूरुद्दीन वली भी 'नंदऋषि' के नाम से मशहूर हुए और हर धर्म के लोगों के पीर बने। बौद्ध राजकुमार रींचन यहां आकर सूफ़ी ऋषि 'बुलबुल शाह' के प्रभाव में मुसलमान हुए। नन्दऋषि के सानिध्य में 'ज़ैन सिंह' सूफ़ी पीर 'ज़ैनुद्दिन' हो गए। मगर जब कश्मीर जला तो सूफीवाद की ये निशानियां भी कई-कई बार जलीं! 1995 की घेराबंदी में चरार-ए-शरीफ़ जला, 2012 में दस्तगीर साहिब दरगाह में आग लगी, 2017 में खानकाह-ए-मौला जल कर खाक हुआ, लेकिन लोगों के दबाव और  Intach Kashmir  जैसी संस्थाओं के द...

सूफ़ी फाइलें : दिल्ली दूर है

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निज़ामुद्दीन बाओली & तुगलकाबाद क़िला ता रीख़ गवाह है कि सियासत और रूहानियत की रस्साकशी और जुगलबंदी ने दिल्ली को कई शक्लों में ढाला। 14वीं सदी में जब सूफ़ी पीर 'हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया' का असर-ओ-रसूख़ उरूज पर था, तब दिल्ली की गद्दी संभाली 'घियासुद्दिन तुगलक' उर्फ़ 'गाज़ी मलिक' ने। घियासुद्दीन तुगलक ने जब सियासत के मुकाबले सूफीवाद का बढ़ता असर देखा तो औलिया को नीचा दिखाने के लिए तरकीबें सोचने लगे। उसी वक़्त निज़ामुद्दीन की डेरे के पास एक बाओली का काम चल रहा था लेकिन घियासूद्दीन ने तुग़लकाबाद के क़िले  की तामीर शुरू कर दी और फरमान सुनाया कि दिल्ली के सब मज़दूर सिर्फ़ क़िला बनाने के काम में लगेंगे। लेकिन औलिया के प्रति आदर भाव का असर ऐसा था कि फरमान के बावजूद मज़दूर दिन में क़िले के निर्माण में लगे रहते और रात में दीयों की रोशनी में निज़ामुद्दीन की बाआेली की खुदाई करते। सुल्तान को जब यह पता चला तो उसने शहर भर में तेल की बिक्री पर रोक लगा दी ताकि दीए ना जलाए जाएं लेकिन तमाम रुकावटों के बावजूद औलिया की सरपरस्ती में बाओली का काम बदस्तूर चलता रहा, जिससे सुल्...

सूफ़ी फाइलें : सूफीवाद में माताओं का श्रेय

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अ लिफ शफाक़ अपनी किताब ' ब्लैक मिल्क ' में लिखती हैं, " सूफियों का मानना है कि यह दुनिया मां के गर्भ जैसी है और हम सब अजन्मे बच्चे। जब इस दुनिया से निकलने का समय आता है तो हम सब डरते हैं यह सोचकर कि सब खत्म हो जाएगा लेकिन मृत्यु गर्भ से निकलकर एक नई ज़िंदगी शुरू करने जैसा है! " सूफीवाद में कई ज़िक्र मिलते हैं जो बताते हैं कि कैसे इस रहस्यमय पंथ के उभार के पीछे माताओं का श्रेय भी रहा। सूफी शायर बाबा फरीद की मां, करासुम बीबी ही उनकी पहली आध्यात्मिक गुरु थीं। निज़ामुद्दीन औलिया की माँ , बीबी ज़ुलेखा की सिखाई हुई बातों का असर उनकी वाणी में मिलता है। आज बीबी ज़ूलेखा का मक़बरा क़ुतुब मीनार के पास अदचीनी गांव में गुमनाम सा पड़ा है। कश्मीर के सूफी संत नंद ऋषि को बचपन में दूध पिलाने वाली योगिनी ' ललदद्द' या 'लल्लेश्वरी ' का प्रभाव उनपर ताउम्र रहा। ईरानी सूफी दार्शनिक अबू यजीद बस्तामी की मां ने उन्हें बेटे के फ़र्ज़ से आज़ाद कर आध्यात्मिक साधना करने की प्रेरणा दी। बाबा बुल्ले शाह अपनी कविताओं में एक ऐसी बुज़ुर्ग मां की तरह बात रखते हैं जो घर परिवार के तजु...

सूफ़ी फाइलें : हाफ़िज़ से टैगोर तक की यात्रा

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शीराज़ (ईरान) में हाफ़िज़ का मकबरा/रबींद्रनाथ ठाकुर, ईरानी अफसरान के साथ मकबरे पर/1932 स न 1932 का मई महीना था, जब ईरान के शासक, रज़ा शाह पहलवी ने रबींद्रनाथ टैगोर को ईरान आने का न्यौता दिया। टैगोर पहुंचे और अपना जन्मदिन भी टैगोर ने ईरानी श्रोताओं को अपनी कविताएं सुनाते हुए मनाया। टैगोर के पिता, ईरानी सूफ़ी शायर ' हाफ़िज़ ' की ग़ज़लों के मुरीद हुए करते थे, इसीलिए टैगोर भी ईरान के शिराज़ में स्थित 'हाफ़िज़' के मक़बरे में पहुंचे। संयोग ही था कि सदियों पूर्व, बंगाल के शासक ने भी सूफी शायर हाफ़िज़ को अपने यहां आने का न्यौता दिया था पर सेहत के चलते आने में असमर्थ हाफ़ि ज़ ने एक ग़ज़ल भेजकर माफी मांग ली थी, जिसमें लिखा था, ' हिंदुस्तान के सब तोते (शायर) अभिभूत हो जाएंगे इस मिश्री की डली-सी फ़ारसी ग़ज़ल को चखकर, जो मैं बंगाल भेज रहा हूं.. ' सदियों बाद जब बंगाल का मकबूल कवि टैगोर ईरान आया तो मानो हाफ़िज़ की अधूरी यात्रा की कड़ी फिर कविता से जुड़ गई। टैगोर लिखते हैं," हाफ़िज़ के मकबरे पर बैठे हुए लगा जैसे उनकी आंखों से निकलता नूर कई सदियों का सफर तय करके मे...

सूफ़ी फाइलें : समाजवादी सूफी

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का र्ल मार्क्स के जन्म के तकरीबन 100 साल पहले, पेरिस कम्यून के 150 साल पहले और फ्रांसीसी क्रांति के भी 200 साल पहले अविभाजित हिंदुस्तान और आज के सिंध (पाकिस्तान) में सूफ़ी संत ' शाह इनायत ' ने नारा दिया, "जो ज़मीन जोतेगा, वही खाएगा".. बाबा बुल्ले शाह के गुरु, शाह इनायत ने सामंतवाद के खिलाफ लोगों से ' सामूहिक खेती ' करने का आह्वान किया और छोट-बड़ाई भूल अपने शागिर्दों को बराबरी और मिलजुल कर उपजाने और खाने की प्रेरणा दी। बेशक, सामंती साईं इस समाजवादी तर्ज़ को पचा नहीं पाए और शाह इनाय त समेत उनके कम्यून को ख़त्म करवा दिया गया लेकिन इतिहास में शाह इनायत का नाम हमेशा के लिए ' सिंध के समाजवादी सूफी ' के तौर पर दर्ज हो गया, जिसने सिर्फ़ झूमने, त्यागने और पूजने ही नहीं, बल्कि लड़ने, जूझने और कमाने-खाने के लिए फकीरों को प्रेरित किया।

सूफ़ी फाइलें : दमा दम मस्त कलंदर

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अ प्रैल में कोरोना वायरस के चलते पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सूफी संत ' लाल शहबाज़ कलंदर ' की दरगाह पर होने वाला सालाना उर्स भी रद्द कर दिया गया। ' दमा दम मस्त कलंदर ' वाला पीर। उन्ही के शुरू किए हुए कलंदरी तरीके/सिलसिले पर चलने वाले सूफी अक्सर काला/लाल चोगे पहने, गांजा फूंकते हुए, सामाजिक और धार्मिक रिवायतों को धता बताते हुए फिरते हैं। अंग्रेज़ अपने साथ जो यूरोपीय पूंजीवाद और विक्टोरियन आधुनिकता लाए, उसके मापदंडों पर फकीरी और आत्मरोपित अध्यात्म और सरमायादारी का त्याग फिट नहीं बै ठते थे। रूहानी दौलत जैसी सूफियाना बातें खारिज की गईं और सूफ़ी फक्कड़ों की निष्क्रियता पर सवाल उठाए गए, उन्हें मुस्लिम समाज के पतन का कारण तक बताया गया। शायद इसी क्रम में इक़बाल जैसे सुधारकों ने भी इस अलमस्त जीवनशैली का विरोध किया। लेकिन लाल शहबाज़ कलंदर के मुरीद आज भी अपनेआप में एक विद्रोह हैं धार्मिक अतिवाद के खिलाफ, ढकोसलों और दुनियावी भागदौड़ के ख़िलाफ़ ! वैसे सिंध में लाल शहबाज़ कलंदर के साथ झूलेलाल का नाम भी लिया जाता है जो हिन्दुओं के ईष्ट हैं और कहते हैं कि मिथकों में दोनों को...

सूफ़ी फाइलें : इक़बाल और फकीरी

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फोटो:   ©️ सोहेल करमानी/flickr आ बिदा परवीन की आवाज़ गूंज रही है गाते हुए, " मन लागो यार फ़कीरी में... " और सोच रही हूं कि काफी ओवररेटेड है 'फकीरी' अध्यात्म और कविता की दुनिया में। वैसे (शायर-दार्शनिक) अल्लामा इक़बाल के सूफीवाद पर किए गए काम को खंगाल कर देखने पर भी फकीरी की नई परतें खुलती हैं। इक़बाल का दीनी सफ़र धर्मनिरपेक्षता के पड़ाव से होते हुए सूफीवाद की ओर मुड़ा और फिर इस्लामी झुकाव पर आकर रुका। इक़बाल ने 'जलालुद्दीन रूमी' को अपना मुर्शिद माना और सूफीवाद के 'कादरी तरीके' से जुड़े रहे। लेकिन सूफीवाद से  उन्हें यह शिकवा रहा कि इसने इंसान को झूठा त्याग सिखाया है और पूरी तरह से अपनी अज्ञानता और आध्यात्मिकता में डूबा रहने को बढ़ावा दिया है। इक़बाल का मानना था कि सूफीवाद में निष्क्रियता (passivity) फ़ारसी और यूनानी विचार के कारण आई थी, इसीलिए उन्होंने चाहा कि मुरीद फ़ारसीवाद के कोहरे से निकले और अरब की रेगिस्तानी धूप में चले। इसी कारण इक़बाल को सूफीवाद का मुखालिफ भी समझा जाने लगा लेकिन उनकी सूफीवाद की आलोचना एक बाहरी व्यक्ति की आलोचना नहीं थी। ब...

सूफ़ी फाइलें : मेला चरागां

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क्या संयोग है कि प्रधानमंत्री मोदी के 5 अप्रैल की शाम दीया जलाने के आह्वान के साथ मुझे लाहौर में लगभग इसी समय मनाया जाने वाला मेला चरागां याद आ गया, जो सूफी संत 'शाह हुसैन' और उनके मुरीद 'माधो लाल' की मज़ार पर लगने वाले सालाना उर्स के साथ मनाया जाता है। महाराजा रंजीत सिंह के समय से इस मेले में सारे लाहौर शहर को दीए, मोमबत्तियों से रोशन किया जाता था और हिन्दू, मुसलमान, सिख सब मिलकर अपनी सांझी तहजीब को ढोल, नगाड़े, धमाल और सूफिया कलाम पर झूमते मलंगों को देखकर मनाया करते थे। आज भी यह मेला बैसाख में तीन चार दिन च लता है। एक डॉक्यूमेंट्री है छोटी सी, देखिएगा कैसे  सामूहिक उन्माद में झूमती है जनता मेला चरागां में।