2019 की पांच पठनीय किताबें



वर्ष 2019 को मुड़कर देखने पर पूरा विश्व ही एक बेचैन दौर से गुजरता हुआ दिखाई पड़ता है। सत्ता और जनता के बीच के गड़बड़ाते शक्ति संतुलन के चलते व्यवस्थाएं डांवाडोल दिखाई दीं और विश्व भर में यथास्थिति और परिवर्तन के बीच झूलते मुल्क आंतरिक द्वंद में संलिप्त मिले। दक्षिण अमरीका के चिली से लेकर ब्राजील के जंगलों तक, हांगकांग की सड़कों से लेकर भारत के कस्बों तक, फिलिस्तीन की गलियों से फ्रांस के चौराहों तक फैले आंदोलनों की सरगर्मियों को सत्ता के वाटर कैनोन तक डगमगा नहीं पाए। नव-फासीवाद के उभरते प्रभाव के ख़िलाफ़ 'बेला चाओ' एंथम से गूंजती सभाएं हों या सूडान के सत्ताधीशों के ख़िलाफ़ 'थौरा!' (क्रांति) का उद्घोष करती महिलाएं हों, सामाजिक और राजनैतिक उथल पुथल से दुनिया का कोई कोना शायद ही अनछुआ बचा हो। ग्रेटा थनबर्ग की अगुवाई में जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला गया स्कूलों में, जो फैलते-फैलते सड़कों और राजधानियों से होते हुए संयुक्त राष्ट्र के भवन तक पहुंच गया। यौन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ महिलाओं के वेगपूर्ण आह्वान ने दुनिया भर को झकझोरा। विद्यार्थियों ने शिक्षा और संविधान को बचाने के लिए अपनी पीठों को ढाल बना कर सत्ता की लाठियां खाई। दुआ में उठे हाथों ने मुट्ठियां भींच कर इंकलाबी नारे लगाए। नव-उदारवाद और साम्राज्यवाद के पैरों तले रौंदे गए विस्थापितों ने नए मुल्कों के दरवाज़े खटखाये और अपने हक के लिए हूक लगाई। राजनैतिक और सामाजिक रूप से ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में युवाओं से तटस्थता की अपेक्षा करना उनके भविष्य और वर्तमान के साथ फरेब करने के बराबर है। बतौर युवा, अपने परिवेश में हो रहे अन्याय और दुनिया भर के आंदोलनों से मुँह मोड़ कर हम अपने खोल में बंद नहीं रह सकते। भविष्य की दिशा निर्धारण के लिए और अन्तःचेतना के लिए भी ज़रूरी है कि हम उदास कविताओं और रूमानी दरियाओं  में गोते लगाते उपन्यासों से उबर कर ऐसी किताबें उठाएँ जो हमें अपने इतिहास की परतों तक ले जाएँ , वर्तमान का सूरत-ए -हाल दिखाए और भविष्य की  रूपरेखा खुद गढ़ने की सलाहियत दे। साल 2019 में आईं ऐसी ही पांच किताबों का ज़िक्र करना ज़रूरी है जिन्हें पढ़ने की सलाह मैं ज़ाती तौर पर दूंगी। 


1 . 'देसगांव' (अभिषेक श्रीवास्तव)
पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की हाल ही में आई किताब 'देसगांव' उनकी प्रकाशित रिपोर्टों का एक ऐसा दस्ता है जो गैर-प्रायोजित ज़मीनी जनांदोलनों का लेखा-जोखा बयान करती है। जिला बनारस के एक छोटे से गांव से चलने वाले 'अगोरा प्रकाशन' से आई उनकी ये किताब जनआंदोलनों के पीछे की राजनीती को भी उतनी ही तफ़्सील से बेनकाब करती है जितनी वास्तविक संघर्षों की कहानी कहती है। एक संवाददाता के तौर पर धूल फांकते हुए कच्ची पगडंडियों से गुज़रकर, कहानी की जड़ तक जाकर, आम- जन से संवाद स्थापित कर फैक्ट्स खोद कर लाने के लिए लेखक के प्रति सम्मान और बढ़ जाता है। कहीं भी लेखक की अपनी विचारधारा या पूर्वाग्रह रिपोर्ट पर हावी होता नहीं दिखता। हिमाचल, पंजाब, उत्तराखंड और राजस्थान की रिपोर्ट पढ़कर लगा कि कितना साहसिक और ज़रूरी है इन 'माइक्रोस्कोपिक' मुद्दों को मुख्यधारा में लाकर खड़ा करना। ना तो अपनी तरह की ये पहली किताब है, और चाहूंगी कि ना यह आख़िरी किताब हो। न्यूजरूम की काग़ज़ी पत्रकारिता के सामने एक बड़ी चुनौती रखती है 'देसगांव' जैसी ज़मीनी पत्रकारिता। 'देसगांव' को ₹249 /- में मँगवा सकते हैं। 

2 . 'बोलना ही है' (रवीश कुमार)
 रैमन मेग्सेसे अवार्ड 2019 से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार से अब तक एक ही बार बात कर पाई हूँ और ट्रोल्स के हमलों के निजी होने की शुरुआत ही थी तब। एक आम नागरिक के तौर पर सिर्फ़ इतना ही कहा था उनसे कि हम आपके साथ हैं। मेरे जैसे किसी भी आम जन के उनके साथ होने न होने से कुछ बदलता नहीं है पर उनके बोलने से मेरे जैसों की आवाज़ और मुद्दे ज़रूर सत्तासीनों के कानों में गूँज पाते हैं। रवीश जी की साफ़गोई, अन्याय के ख़िलाफ़ उनकी बेबाकी और ज़मीनी आदमी होने के चलते आम जन के मुद्दों को लेकर उनकी संवेदनशीलता ही उनकी पहचान है। लेखक एक आम नागरिक के तौर पर ही अपनी चिंताओं और मंथन को इन लेखों की शक्ल में लेकर आया है। लोकतंत्र, संस्कृति और राष्ट्र के बारे में उनके लेखों का यह संकलन पढ़ते हुए बतौर एक नागरिक हम खुद को कठघरे में खड़ा पाते हैं, मौजूदा हालत पर गंभीरता से सोचने को मजबूर हो जाते हैं और अपने प्रजातंत्र के अस्तित्व पर मंडराते खतरों को लेकर सचेत भी हो जाते हैं। उनकी किताब 'बोलना ही है' के लिए आबिद अदीब का एक शे'र ही कहा जा सकता है:
'जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे रहे न रहे 
वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं..'
राजकमल प्रकाशन से आई किताब 'बोलना ही है' को ₹225/- में मँगवा सकते हैं।


3 . 'जेएनयू में नामवर सिंह' (सुमन केशरी)
अरावली की पहाड़ियों में बोए गए आदर्श सपनों की जन्मस्थली रहा है जेएनयू, जिसकी नींव को सींचने वाले हुए नामवर सिंह जैसे शिक्षक, जिन्होंने, बक़ौल प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल सर, न सिर्फ पढ़ाया बल्कि सिखाया। किताब 'जेएनयू में नामवर सिंह' को पढ़ते हुए आप सीपिया-टोन में रंगे 70 के दशक के जेएनयू को देख पाएँगे, जहाँ के बोहेमियनपन में काउंटर-कल्चर की झलक थी, जहाँ वर्चस्व की संस्कृति का विकल्प तलाशते हुए नामवर सिंह 'दूसरी परंपरा की खोज' (की रचना) कर देते हैं; 'सेन्टर ऑफ इंडियन लैंगुएजेज़' में हिंदी और उर्दू को साथ-साथ पढ़ाने की पुरज़ोर वक़ालत करते हैं ; जहाँ स्टूडेंट यूनियन के विरोध पर इंदिरा गांधी चांसलर पद से इस्तीफा दे देती हैं; जहाँ केवल वास्तुकला में ही नहीं, बल्कि बौद्धिक वातावरण में एक 'एस्थेटिक-डायमेंशन' रहता है; जहाँ कमज़ोर आर्थिक और सामाजिक पृष्टभूमि से आने वालों को दाखिले में तरजीह दी जाती है।
सुमन केशरी जी ने किताब में जेएनयू और डॉ नामवर सिंह से वाबस्ता विद्यार्थियों, अध्यापकों, कर्मचारियों के लेखों का अद्भुत संचयन किया है, जिन्हें पढ़ते हुए आप इस विश्विद्यालय की अकादमिक संस्कृति  को और अच्छे से समझ पाते हैं। आज जब मेनस्ट्रीम मीडिया में जेएनयू जैसे संस्थानों को बदनाम किया जा रहा हो, ऐसे में 'जेएनयू में नामवर सिंह' जैसी किताब को पढ़कर न सिर्फ नुक्ता-ए-नज़र साफ़ होता है बल्कि ऐसे संस्थानों और शिक्षकों के लिए सम्मान और बढ़ जाता है। 'जेएनयू में नामवर सिंह' का दूसरा संस्करण 2019  में राजकमल प्रकाशन से आया है और ₹695/- में उपलब्ध है।  


4 . 'एक था डॉक्टर, एक था संत' (अरुंधति रॉय)
 जब मेरे सामने गाँव के रूमानी चित्रण के पीछे की परतें खुल रही थीं, तभी भीमराव अम्बेडकर के लेख  'जाति का विनाश' (Annihilation of Caste)को पढ़ा था और शत प्रतिशत सटीक भी पाया था। दिल्ली आना हुआ तो जेएनयू में अक्सर अम्बेडकरवादी राजनीति करने वालों को वामपंथी, हिंदुत्ववादी और गांधीवादी विचारधाराओं से टकराते देखना भी दिलचस्प लगा, लेकिन हाल में इस वैचारिक और राजनैतिक टकराव की वजह को तफ्सील से समझाने के लिए अरुंधति रॉय की किताब 'एक था डॉक्टर, एक था संत' को बड़ा श्रेय दिया जाना चाहिए। प्रो. रतन लाल और अनिल यादव जयहिंद द्वारा आंग्ल भाषा से हिंदी में अनूदित इस किताब में न सिर्फ अम्बेडकर, गांधी और वामपंथ की मतभिन्नता को बारीकी से उकेरा गया है बल्कि गांधी की पूजनीयता को भी (आदरपूर्वक) सवालों के कटघरे में रख कर देखा गया है। किताब के एक अंश में रॉय लिखती हैं, "भारत में गांधी आलोचना करने पर न केवल नाक-भौं सिकोड़ी जाती है, बल्कि ऐसी आलोचना को सेंसर भी किया जाता है। इसके अनेकों कारणों में से एक है, जो सेक्युलरवादी बताते हैं, कि हिन्दू-राष्ट्रवादी इस आलोचना को झपट लेंगे और इसका इस्तेमाल कर फायदा उठाएँगे। सच्चाई यह है कि जाति के विषय पर गाँधी के विचार और दक्षिणपंथी हिंदुओं के विचारों में कभी कोई खास दूरी रही ही नहीं।" जाति की राजनीति की जड़ें टटोलने और जातिवाद के नासूर का अलग अलग पद्धतियों से इलाज करने वाले दो कद्दावर नेताओं के अंतर्विरोध और जद्दोजहद पेश करने वाला एक ज़रूरी दस्तावेज़ है ये किताब। राजकमल प्रकाशन से इस साल आई 'एक था डॉक्टर, एक था संत' का मूल्य है ₹150 /- रुपए और आसानी से उपलब्ध है। 


5. 'कश्मीरनामा-इतिहास और समकाल' (अशोक कुमार पांडेय)
कश्मीर के इतिहास से लेकर राजनीति और समाज से लेकर साहित्य को जानना हो तो अशोक कुमार पांडेय की लिखी किताब  'कश्मीरनामा-इतिहास और समकाल' से बेहतर और कोई किताब अब तक नहीं आई है। 2018 में राजपाल प्रकाशन से आई 'कश्मीरनामा' के महज़ दो साल के अंदर 4 संस्करण आ चुके हैं और पाठकों का प्यार इसे मुसलसल मिल रहा है। कश्मीर पर हिंदी भाषा में इतना शोधपरक काम इससे पहले नहीं किया गया है। अफवाहों और प्रोपेगंडा के चरम समय में 'कश्मीरनामा' का पढ़ा जाना एक सुखद अनुभूति है क्योंकि ये किताब कश्मीर के ताने बाने का बारीकी और संवेदनशीलता से अन्वेषण करती है। 2019 में कश्मीर से धारा 370 और 35-ए हटाए जाने के बाद 'कश्मीरनामा' में एक परिशिष्ट और जोड़ा गया जिससे ये किताब मौजूदा परिपेक्ष में और प्रासंगिक हो जाती है। घाटी के बारे में फैली गलतफहमियों केअँधेरे में 'कश्मीरनामा' जैसी किताब का आना और पढ़ा जाना एक मशाल जलाने जैसा ज़रूरी है। 'कश्मीरनामा' ₹362 /- में आसानी से उपलब्ध है। 
 




Comments