एक था डॉक्टर, एक था संत (अरुंधति रॉय) : पुस्तक-समीक्षा



जब मेरे सामने गाँव के रूमानी चित्रण के पीछे की परतें खुल रही थीं, तभी भीमराव अम्बेडकर के लेख 'annihilation of caste'/ 'जाति का विनाश' को पढ़ा था और शत प्रतिशत सटीक भी पाया था। दिल्ली आना हुआ तो जेएनयू में अक्सर अम्बेडकरवादी राजनीति करने वालों को वामपंथी, हिंदुत्ववादी और गांधीवादी विचारधाराओं से टकराते देखना भी दिलचस्प लगा, लेकिन हाल में इस वैचारिक और राजनैतिक टकराव की वजह को तफ्सील से समझाने के लिए अरुंधति रॉय की किताब 'एक था डॉक्टर, एक था संत' को बड़ा श्रेय दिया जाना चाहिए।
इस किताब में न सिर्फ अम्बेडकर, गांधी और वामपंथ की मतभिन्नता को बारीकी से उकेरा गया है बल्कि गांधी की पूजनीयता को भी (आदरपूर्वक) सवालों के कटघरे में रख कर देखा गया है।
किताब के एक अंश में रॉय लिखती हैं, "भारत में गांधी आलोचना करने पर न केवल नाक-भौं सिकोड़ी जाती है, बल्कि ऐसी आलोचना को सेंसर भी किया जाता है। इसके अनेकों कारणों में से एक है जो सेक्युलरवादी बताते हैं, यह है कि हिन्दू-राष्ट्रवादी इस आलोचना को झपट लेंगे और इसका इस्तेमाल कर फायदा उठाएँगे। सच्चाई यह है कि जाति के विषय पर गाँधी के विचार और दक्षिणपंथी हिंदुओं के विचारों में कभी कोई खास दूरी रही ही नहीं।"

हो सके तो ज़रूर पढ़िएगा।

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