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Showing posts from 2022

राजपूत और सिख संबंध : साफ़ नज़र और साफ़ नीयत से पुनर्वलोकन

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आज गुरु गोबिंद सिंहजी के जन्म दिहाड़े पर उन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हुए साल की आखिरी पोस्ट लिख रही हूं राजपूतों और खालसा पंथ के गहरे संबंधों पर। अफ़सोस होता है कि कुछ शरारती तत्त्वों द्वारा गुरु गोबिंद सिंह जी और राजपूतों/क्षत्रियों के रिश्तों के बीच तनाव पैदा करने की नीयत से इतिहास को विकृत किया जाता है; प्रेरित नैरेटिव सेट किया जाता है लेकिन इतिहास को झुठलाना और ज़िंदा सबूत मिटाना इतना आसान भी नहीं होता।  राय भुल्लर भट्टी पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में भट्टी वंश के एक राजपूत मुस्लिम के जागीरदार थे। वे उस गाँव के मुखिया थे जहाँ 1469 में गुरु नानक का जन्म हुआ था। बाद में राय बुलर ने तलवंडी का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे पहले रायपुर के नाम से जाना जाता था। यह शहर बाद में ननकाना साहिब के नाम से जाना गया। जन्म साखी के अनुसार, राय बुलर भट्टी ही गुरु नानक देवजी के दूसरे भक्त बने , तथा गुरु साहिब की बहन उनकी पहली भक्त थीं। इससे ज़ाहिर है कि सिख पंथ और सिख गुरुओं के सबसे पहले अनुयाई राजपूत ही हुए और सिक्खी को अपनाकर राजपूतों ने अपनी खुली सोच और भक्तिभावना का सदा से ही परिच...

अल्लामा इक़बाल: परिंदों की दुनिया का दरवेश

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'अल्लामा इक़बाल'- एक ऐसा किरदार जिसने ' सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा ' जैसा नगमा लिख वतन-परस्ती से सफर शुरू किया, दर्शनशास्त्र की परतें टटोली और आखिरी मकाम में अध्यात्म की राह पर चलते हुए कर्मयोग का संदेश दिया। अल्लामा इकबाल ने अपनी शायरी में ' शाहीन ' (Falcon) और ' खुदी ' (Dynamic Self) जैसे प्रतीकों को इस्तेमाल कर गूढ़ फलसफे रचे।  "बयाबां की खलवत खुश आती है मुझको, अज़ल से है फितरत मेरी रहबाना.. परिंदों की दुनिया का दरवेश हूं मैं, कि शाहीं बनाता नहीं आशियाना.." "The solitude of the wilderness pleases me, By nature I was always a hermit.. I am the dervish of the kingdom of birds, The eagle does not make nests." अल्लामा इक़बाल के सूफीवाद पर किए गए काम को खंगाल कर देखने पर भी 'फकीरी' की नई परतें खुलती हैं। बेशक, इक़बाल ने सूफ़ी संत मौलाना रूमी को अपना मुर्शिद माना लेकिन इन्होंने सूफीवाद में 'फकीरी' को छोड़ कर्म और संघर्ष करने पर हमेशा ज़ोर दिया। सूफीवाद से उन्हें यह शिकवा रहा कि इसने इंसान को झूठा त्य...

उदासी पंथ : समन्वयता और संघर्ष का इतिहास

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आज पंथिक इतिहास को मुड़कर देखें तो सामने आता है कि बेशक, प्रथम गुरु बाबा नानक ने सिख पंथ की गुरगद्दी अपने पुत्र श्रीचंद की जगह गुरु अंगद देवजी को सौंपी मगर गुरु नानक देवजी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचन्द के चलाए 'उदासी संप्रदाय' की जड़ें आज भी सिख पंथ के साथ ही गुंथी हुई मिलती हैं।  उदासी पंथ शुरू करने वाले बाबा श्रीचंद ने मलामती सूफियों, जैन मुनियों और नाथ जोगियों का सा भेष धारण किया और दरवेशों की तरह भटकने, वेदांत और सिक्खी का संदेश बांटने और फिर डेरों पर लौटकर ध्यान करने की अलग राह दिखाई थी। लेकिन उनके रहते उदासी पंथ और सिख पंथ में कोई विरोधाभास या टकराव पैदा नहीं हुआ। खालसा की फौज जब मुगलों से लड़ने में मुब्तिला थी, तब आनंदपुर साहिब, हरिमंदिर साहिब और हजूर साहिब जैसे सिख गुरुद्वारों का प्रबंधन उदासी पंथ के महंतों ने देखना शुरू किया। कहते हैं, सन 1780 के आसपास उदासी साधुओं ने ही वह नहर खोदी जिससे ताज़ा पानी हरिमंदिर साहिब के पवित्र सरोवर में आकर मिलता है।  लेकिन 1920 के दशक में सिखों ने उदासी पंथी महंतों से गुरुद्वारों का प्रबन्धन...

हथियारबंद बचपन: बुनियाद में बोया बारूद

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"..जो कल तक अपनी तख्ती पर हमेशा अम्न लिखता था,  वह बच्चा रेत पर अब जंग का नक्शा बनाता है.." अज़ीम शायर मुनव्वर राना के यह अल्फाज़ युद्ध के ताप से बेमौसम पके हुए उन तमाम बच्चों की याद दिलाते हैं, जिनके बचपन की इबारत पर किसी ने बारूद रगड़ दिया। कश्मीर से कुर्दिस्तान और काबुल से दंतेवाड़ा तक कितने ही अनाम बच्चे अघोषित युद्धों में जूझते हुए मारे गए और शहीदों- हलाकों की गिनती में शुमार होने लायक कद भी न ला सके।  रूसी लेखक व्लादिमीर बोगोमोलोव का लघु उपन्यास 'इवान' ऐसे ही एक नन्हे युद्ध नायक पर आधारित है, जो इन कई सोवियत बच्चों की तरह दुश्मन के कब्जेवाले इलाके में फंसा रह गया और बड़ों के साथ लड़ाई में जूझ गया। इवान जैसे बच्चों में से सभी ने हथियार नहीं उठाए, बहुतों ने अपनी क्षमता के अनुसार बड़ों की सहायता की। लगातार मीलों चलना, सोए बिना रातें काटना, अचूक निशाना लगाना और घायलों की मरहम पट्टी करना भी उन्होंने युद्धरूपी स्कूल के पाठ की तरह सीख लिया। दंतेवाड़ा के जंगलों में भटकते हुए आदिवासियों के सशत्र आंदोलन के बीच अरुंधति रॉय एक ऐसे ही बच...

जेसीबी: एक मशीन का राजनैतीकरण

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पिछले कुछ दिनों से बुल्डोजर या JCB मशीन के राजनीतीकरण के चलते मैं बहुत सोच में पड़ी रही। कुछ सालों से हमारे ग्रामीण से इंडस्ट्रियल होते इलाके में ट्रैक्टर के बाद सबसे उपयोगी बनकर जो मशीन उभरी है वो है 'जेसीबी'..! हमारी पथरीली ज़मीन से खोद कर बड़े बड़े बोल्डर निकालने से लेकर बुनियादें खोदने तक, नदियों में माइनिंग करने से लेकर हाईवे की फोर लेनिंग में जुटे हुए यह पीले पंजे इतने मल्टी-पर्पज रहे हैं कि लोग वाकई खड़े होकर साइट पर इनका जलवा देखते हैं। कितने ही बेरोजगार युवकों ने जेसीबी लेकर कमाई का साधन जुटा लिया है। सड़कों पर यह मशीन बड़ी ठसक से दौड़ती मिलती है आजकल। लेकिन हालही में इसके राजनीतीकरण और विध्वंसक इस्तेमाल से इसका रेपुटेशन फौजी टैंक जैसा बना दिया गया है, जो सिर्फ़ तोड़फोड़ और दहशत का सबब हो।  प्रलेस द्वारा आयोजित एक सेमिनार में बुलडोजर (जेसीबी) पर एक सेशन रखा गया है: "क्या क्या तोड़ता है बुल्डोजर". ऐसे ही पिछले दिनों The Wire ने एक लेख छापा 'The Bulldozer Is the Latest Symbol of Toxic Masculinity to Create Havoc in the Po...

फूलन देवी : बंदूक से बुद्ध तक

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फूलन देवी ने पहली बगावत की अपनी ज़मीन अपने ही शरीकों द्वारा हड़पे जाने के खिलाफ़। फूलन देवी की दूसरी बगावत थी अपने पति द्वारा किए जाने वाले मैरिटल रेप के विरुद्ध। फूलन देवी की अगली बगावत थी एक पिछड़ी जाति की महिला होने के बावजूद मिलीजुली जाति वाले बागियों के टोले में शामिल होने की। बेहमई कांड की जिम्मेदारी कभी साफतौर पर फूलन ने ली ही नहीं। फूलन ने आगे चलकर उग्र विरोध किया अपने नाम पर बनाई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म बैंडिट क्वीन में परोसी गई मिथ्या का।  फूलन को अगर आप बैंडिट क्वीन जैसे manipulative cinema से जानते हैं या दस्यु सुंदरियों को लेकर छपी पल्प-फिक्शन-नुमा रिपोर्टों से, तो दोबारा सोचिए! फूलन देवी का 'पॉलिटिकल कैपिटल' की तरह आज तक दोहन करने वालों ने उसे देवी, नायिका और दस्यु सुंदरी बताकर उसके किरदार और कहानी की जैसी लीपापोती की है, वह न सिर्फ़ फूलन की छवि के लिए बल्कि एक न्यायाभिलाषी समाज के लिए भी घातक है।  प्रो दिलीप मण्डल 2017 में छपे अपने एक लेख में लिखते हैं कि फूलन देवी को ठाकुरों के मुकाबले खड़ा करने वाले दुष्ट लोग हैं। यहां जाति का ...

फ़िल्म समीक्षा: बाजरे दा सिट्टा (पंजाबी)

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बॉलीवुड में स्त्री-केंद्रित फ़िल्मों को लेकर जितना हल्ला और प्रचार किया जाता है, उससे काफ़ी बेहतर काम Regional Cinema में हो रहा है, और बड़ी सहजता के साथ। ऐसी ही एक स्त्री-केंद्रित पंजाबी फ़िल्म हालही में देखी, ' बाजरे दा सिट्टा ', जो लगातार बेहतर होते पंजाबी सिनेमा का सबूत है।  फ़िल्म की कहानी दो ऐसी बहनों पर आधारित है जो बेहतरीन गाती हैं मगर पितृसत्तात्मक परिवार/समाज के दबाव के चलते अपने हुनर को लोकलाज और अपने दाज की परतों तले दबाने को मजबूर भी हैं।  फ़िल्म 'पंजाब की कोयल' कहलाए जाने वाली मशहूर लोकगायिका सुरिंदर कौर और उनकी बहन प्रकाश कौर की याद भी दिलाती है।  सिनेमेटोग्राफी और गीत तो कमाल हैं हीं, साथ में फिल्म का ' सेपिया टोन्ड स्केप' एक बार के लिए दर्शक को पुराने पंजाब में खींच ले जाता है।  यूं तो पंजाब की औरतों को मैंने मर्दों के मुक़ाबिल हक़ से लड़ते-जूझते ही देखा है, लेकिन कुछ महीन समाजी फॉल्ट लाइन्स इस फ़िल्म ने उजागर की हैं, जो सामंती ग्रामीण परिवेश में बसने वाली हर औरत को आज भी झकझोरेगी और...

नीलम

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"बहन, ज़रा फूलों को हाथ में लेकर पोज़ कीजिए। बिल्कुल 'कभी-कभी' की राखी लगेंगी तस्वीर में!" जबरवान पहाड़ियों के आगे फूलों को हाथ में लिए खड़ी रश्मि की तस्वीर जब उभर कर आई तो वाकई वो किसी हीरोइन से कम नहीं लग रही थी। श्रीनगर में बीएड करते हुए उसे 6 माह हो चले थे और इम्तिहान के बाद अब जाकर वो शालीमार और निशात बाग देख पाई थी।  रश्मि को यह पहाड़ अपने गांव जैसे ही लगते इसीलिए घर की याद कम आती थी। रश्मि को यहां के बच्चों की पढ़ाई के प्रति लगन देखकर बड़ी खुशी होती थी, क्योंकि अपने यहां उसने ज़्यादातर बच्चों को पढ़ाई से भागते ही देखा था। खुद भी लगन से पढ़ती, बर्फबारी के बाद लाइट चले जाने पर मोमबत्ती की लौ में लेक्चर की तैयारी करती। कई बार रात में सोते हुए कांगड़ी बिस्तर पर गिर जाती तो फटाफट पानी के छींटे देती। कड़ाके की ठंड में रात भर गीले बिस्तर पर सोना भी एक तपस्या जैसा ही होता था।  श्रीनगर की गलियों में औरतों को अपने बच्चे का हाथ पकड़कर खरीदारी करने जाते देख वो भी अपने आने वाले कल के सपने देखती। स्थानीय लोगों से मिलने वाली आत्मीयता उसके दिल को भिगोए रहती। कई बार...

सूफ़ी फाइलें: दमा दम मस्त कलंदर

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'उसने उलझा दिया दुनिया में मुझे, वर्ना एक और कलंदर होता..' दक्षिण एशिया में मानते हैं कि सूफियों में कुल ढाई कलंदर हुए हैं, जिसमें से पहला नंबर पानीपत स्थित पीर बू अली शाह कलंदर का है। दूसरे नंबर पर पाकिस्तान में स्थित लाल शाहबाज कलंदर आते हैं और ईराक की राबिया बसरी को महिला होने की वजह से आधा कलंदर माना जाता है, हालांकि कुछ जानकारों ने इस मान्यता को खारिज भी किया है। सूफियों के इसी कलंदरी सिलसिले में खानाबदोशी और मलंग हो जाने की रिवायत है। कहते हैं कि आगे चलकर हिंदुस्तान में इसी सिलसिले के कई आम पैरोकार हुए, जिन्होंने अपने पीर बू अली शाह के सुझाए जाने पर जंगली भालू पालकर और तमाशा दिखाकर जीवनयापन करना शुरू किया और 'कलंदर' ही कहलाए जाने लगे। कलंदरों की यह जमात भी सूफी फकीरों की ही तरह खानाबदोश होती है।  इन्हीं कलंदरों को ओरिएंटलिस्ट गेज़ से देखा गया 'अरेबियन नाइट्स' जैसी रचनाओं में। मज़े की बात यह भी है कि मुग़ल बादशाह बाबर को भी उनकी दरियादिली के लिए इतिहास में 'कलंदर' के नाम से बुलाया गया।  मोह-माया और दीन-दुनिया छोड़कर दर-दर फिरने वाले इन ...

रेत समाधि को बुकर पुरस्कार : लेखकों के लिए हिंदी राष्ट्रीयता के कुएं से निकलने का अलार्म

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गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' के अंग्रेज़ी तर्जुमे 'Tomb of Sand' को बुकर पुरस्कार मिलने पर हिंदी भाषा और अंग्रेज़ी भाषा, दोनों मुबारक की हकदार हैं। यह एक अद्भुत जुगलबंदी है, कि हिंदी में सोचा-लिखा गया उपन्यास, अंग्रेज़ी पाठकों और ज्यूरी पर भी उतना ही पुर-असर रहा, जितना मूल भाषा में। हिंदी भाषा का गौरव तो बढ़ा ही है लेकिन अब समय आ गया है कि लेखक, हिंदी के साथ कम से कम दो और भाषाओं में लिखना शुरू करें। झुंपा लाहिड़ी का हालिया उपन्यास Whereabouts उन्होंने पहले इटालियन भाषा में ही सोचा, लिखा और फिर उसका अनुवाद अंग्रेज़ी में किया। ऐसा करके हम भाषा, संस्कृति और स्थानीयता के वाटरटाइट खांचों से भी निकल पाते हैं। मशहूर लेखक James Baldwin खुद को commuter(यात्री) कहते हैं क्योंकि अपने लेखन से वे संस्कृतियों, शहरों, भाषाओं के बीच आवागमन कर पाते हैं। अरुंधति रॉय को बुकर मिलने के बाद एक पाठक उनसे पूछता है कि क्या किसी लेखक ने कभी एक मास्टरपीस अपनी मातृभाषा के अलावा किसी और भाषा में लिखा है? अरुंधति कहती हैं नाबोकोव ने, लेकिन असल में Algorithm ही है जो एक लेखक को उ...