फ़िल्म समीक्षा: बाजरे दा सिट्टा (पंजाबी)
बॉलीवुड में स्त्री-केंद्रित फ़िल्मों को लेकर जितना हल्ला और प्रचार किया जाता है, उससे काफ़ी बेहतर काम Regional Cinema में हो रहा है, और बड़ी सहजता के साथ। ऐसी ही एक स्त्री-केंद्रित पंजाबी फ़िल्म हालही में देखी, 'बाजरे दा सिट्टा', जो लगातार बेहतर होते पंजाबी सिनेमा का सबूत है।
फ़िल्म की कहानी दो ऐसी बहनों पर आधारित है जो बेहतरीन गाती हैं मगर पितृसत्तात्मक परिवार/समाज के दबाव के चलते अपने हुनर को लोकलाज और अपने दाज की परतों तले दबाने को मजबूर भी हैं।
फ़िल्म 'पंजाब की कोयल' कहलाए जाने वाली मशहूर लोकगायिका सुरिंदर कौर और उनकी बहन प्रकाश कौर की याद भी दिलाती है।
सिनेमेटोग्राफी और गीत तो कमाल हैं हीं, साथ में फिल्म का 'सेपिया टोन्ड स्केप' एक बार के लिए दर्शक को पुराने पंजाब में खींच ले जाता है।
यूं तो पंजाब की औरतों को मैंने मर्दों के मुक़ाबिल हक़ से लड़ते-जूझते ही देखा है, लेकिन कुछ महीन समाजी फॉल्ट लाइन्स इस फ़िल्म ने उजागर की हैं, जो सामंती ग्रामीण परिवेश में बसने वाली हर औरत को आज भी झकझोरेगी और रिएलिटी चैक देगी!
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