अल्लामा इक़बाल: परिंदों की दुनिया का दरवेश
'अल्लामा इक़बाल'- एक ऐसा किरदार जिसने 'सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा' जैसा नगमा लिख वतन-परस्ती से सफर शुरू किया, दर्शनशास्त्र की परतें टटोली और आखिरी मकाम में अध्यात्म की राह पर चलते हुए कर्मयोग का संदेश दिया।
अल्लामा इकबाल ने अपनी शायरी में 'शाहीन' (Falcon) और 'खुदी' (Dynamic Self) जैसे प्रतीकों को इस्तेमाल कर गूढ़ फलसफे रचे।
"बयाबां की खलवत खुश आती है मुझको,
अज़ल से है फितरत मेरी रहबाना..
परिंदों की दुनिया का दरवेश हूं मैं,
कि शाहीं बनाता नहीं आशियाना.."
"The solitude of the wilderness pleases me,
By nature I was always a hermit..
I am the dervish of the kingdom of birds,
The eagle does not make nests."
अल्लामा इक़बाल के सूफीवाद पर किए गए काम को खंगाल कर देखने पर भी 'फकीरी' की नई परतें खुलती हैं। बेशक, इक़बाल ने सूफ़ी संत मौलाना रूमी को अपना मुर्शिद माना लेकिन इन्होंने सूफीवाद में 'फकीरी' को छोड़ कर्म और संघर्ष करने पर हमेशा ज़ोर दिया। सूफीवाद से उन्हें यह शिकवा रहा कि इसने इंसान को झूठा त्याग सिखाया है और पूरी तरह से अपनी अज्ञानता और आध्यात्मिकता में डूबा रहने को बढ़ावा दिया है। इक़बाल का मानना था कि सूफीवाद में निष्क्रियता (passivity) फ़ारसी और यूनानी विचार के कारण आई थी, इसीलिए उन्होंने चाहा कि मुरीद फ़ारसीवाद के कोहरे से निकले और अरब की रेगिस्तानी धूप में चले।
सन 1921 के आसपास शायर 'इक़बाल' अपनी कश्मीरी जड़ें तलाशते कश्मीर खिंचे चले आए लेकिन सूफी संतों की सिखाई 'ज़ब्त' से खुश नहीं हुए। इक़बाल चाहते थे कि सूफी संत, आवाम को उनके हक़ की लड़ाई के लिए प्रेरित करे।
इन्हीं वजूहात के चलते इक़बाल को सूफीवाद का मुखालिफ भी समझा जाने लगा जबकि सूफीवाद की उनकी आलोचना एक बाहरी व्यक्ति की आलोचना नहीं थी; बल्कि यह सूफी आत्मसमालोचना की शानदार परंपरा का ही हिस्सा था, जिससे सूफ़ीमत के अंदर से ही सुधार का रास्ता निकाला जा सके।
एक तरफ जहां दुनिया पश्चिम की तरफ देखकर अभिभूत थी, वहीं इक़बाल ने अपनी पूर्वी संस्कृति की हिमायत की, इसकी 'लॉस्ट ग्लोरी' को अपनी शायरी के माध्यम से दुनिया के सामने रखा।
इक़बाल ने अपने नग्मे में श्री राम को सिर्फ़ हिन्दू इष्ट नहीं, बल्कि ईमाम-ए-हिन्द (spiritual leader of Indian subcontinent) बतलाया। इक़बाल ने अपनी नज़्म 'लेनिन खुदा के हजूर में' रूसी क्रान्ति के नायक लेनिन को भी खुदा के दरबार में दुनिया में हो रही नाइंसाफियों के खिलाफ़ शिकवा करते दिखाया।
इनके नाम पर लाहौर (पाकिस्तान) में 'इक़बाल पार्क' भी बनाया गया, जो भुट्टो से लेकर इमरान खान और मुशर्रफ़ से लेकर कट्टरपंथी गुटों के ऐतिहासिक सियासी जलसों का गवाह रहा है। 1984 में दिल्ली के जसोला में जब अंसारुल्लाह नाम के आदमी ने प्लॉट काट कॉलोनी बनानी शुरू की तब इक़बाल की ग़ज़लों से प्रभावित होकर ही इन्होंने कॉलोनी का नाम रखा 'शाहीन बाग़', जो हाल में सीएए विरोधी आन्दोलन का गढ़ होने के चलते मशहूर भी हुई।
अक्सर अल्लामा का नाम लेते ही ज्यादातर लोग इनका सुझाया हुआ 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' याद करते हुए इन्हें '47 विभाजन का इल्ज़ाम देकर इनका आगे-पीछे का सारा बेहतरीन रचना-कर्म ख़ारिज कर देते हैं। सवाल यह है कि क्या गलतफहमी, बेबस हालात, मुश्किल चुनाव या ढलती उम्र के किसी पड़ाव में लिए गए एक stand की बुनियाद पर किसी के आजीवन संघर्ष से अर्जित body of work को इतनी आसानी से ख़ारिज किया जाना जायज़ होता है?
अल्लामा इक़बाल की ज़िंदगी पर आधारित एक नाटक "सर इक़बाल", जिसमें उनका सेक्युलर प्रवृत्ति से धीरे-धीरे इस्लामिक स्टेट के तरफदार के तौर पर क्रम-विकास जानने को मिला। यह याद दिलाता है कि तश्कील-ए-सीरत किसी को भी पूरी तरह बदल कर एक नया इंसान बना सकती है।
अल्लामा इक़बाल के ही अल्फाज़ में कुछ यूं कोई यह सवाल उठाए:
"तान-ए-अग्यार है, रुसवाई है, नादारी है..
क्या तेरे नाम पे मरने का इवज़ ख्वारी है?"
("Enemy taunting, reputation waning, deprivation daunting..
Is humiliation the sole reward of our suffering race?")
He was सेक्युलर not judged by faith-#relegion
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