उदासी पंथ : समन्वयता और संघर्ष का इतिहास
आज पंथिक इतिहास को मुड़कर देखें तो सामने आता है कि बेशक, प्रथम गुरु बाबा नानक ने सिख पंथ की गुरगद्दी अपने पुत्र श्रीचंद की जगह गुरु अंगद देवजी को सौंपी मगर गुरु नानक देवजी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचन्द के चलाए 'उदासी संप्रदाय' की जड़ें आज भी सिख पंथ के साथ ही गुंथी हुई मिलती हैं।
उदासी पंथ शुरू करने वाले बाबा श्रीचंद ने मलामती सूफियों, जैन मुनियों और नाथ जोगियों का सा भेष धारण किया और दरवेशों की तरह भटकने, वेदांत और सिक्खी का संदेश बांटने और फिर डेरों पर लौटकर ध्यान करने की अलग राह दिखाई थी।
लेकिन उनके रहते उदासी पंथ और सिख पंथ में कोई विरोधाभास या टकराव पैदा नहीं हुआ। खालसा की फौज जब मुगलों से लड़ने में मुब्तिला थी, तब आनंदपुर साहिब, हरिमंदिर साहिब और हजूर साहिब जैसे सिख गुरुद्वारों का प्रबंधन उदासी पंथ के महंतों ने देखना शुरू किया। कहते हैं, सन 1780 के आसपास उदासी साधुओं ने ही वह नहर खोदी जिससे ताज़ा पानी हरिमंदिर साहिब के पवित्र सरोवर में आकर मिलता है।
लेकिन 1920 के दशक में सिखों ने उदासी पंथी महंतों से गुरुद्वारों का प्रबन्धन वापिस लेकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी को सौंप दिया। आज भी उदासी पंथ के साधु, सिख-सूफ़ी-हिंदू धर्म के मुहाने पर खड़े मिलते हैं और अपने मत, मठों, अखाड़ों और डेरों की स्वायत्तता बनाए रखने के लिए संघर्षशील हैं।
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