हथियारबंद बचपन: बुनियाद में बोया बारूद

"..जो कल तक अपनी तख्ती पर हमेशा अम्न लिखता था, 
वह बच्चा रेत पर अब जंग का नक्शा बनाता है.."

अज़ीम शायर मुनव्वर राना के यह अल्फाज़ युद्ध के ताप से बेमौसम पके हुए उन तमाम बच्चों की याद दिलाते हैं, जिनके बचपन की इबारत पर किसी ने बारूद रगड़ दिया। कश्मीर से कुर्दिस्तान और काबुल से दंतेवाड़ा तक कितने ही अनाम बच्चे अघोषित युद्धों में जूझते हुए मारे गए और शहीदों- हलाकों की गिनती में शुमार होने लायक कद भी न ला सके। 


रूसी लेखक व्लादिमीर बोगोमोलोव का लघु उपन्यास 'इवान' ऐसे ही एक नन्हे युद्ध नायक पर आधारित है, जो इन कई सोवियत बच्चों की तरह दुश्मन के कब्जेवाले इलाके में फंसा रह गया और बड़ों के साथ लड़ाई में जूझ गया। इवान जैसे बच्चों में से सभी ने हथियार नहीं उठाए, बहुतों ने अपनी क्षमता के अनुसार बड़ों की सहायता की। लगातार मीलों चलना, सोए बिना रातें काटना, अचूक निशाना लगाना और घायलों की मरहम पट्टी करना भी उन्होंने युद्धरूपी स्कूल के पाठ की तरह सीख लिया।

दंतेवाड़ा के जंगलों में भटकते हुए आदिवासियों के सशत्र आंदोलन के बीच अरुंधति रॉय एक ऐसे ही बच्चे मंगतू का ज़िक्र करती हैं। मंगतू भी दस बच्चों के दल का सदस्य है जो युवा कम्युनिस्टों के सचल स्कूल की पहली खेप का हिस्सा हैं जिन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया जा रहा है और साम्यवाद के बुनियादी सिद्धांतों में दीक्षित भी किया जा रहा है। युवा कम्युनिस्टों को बंदूकें लेकर चलने या वर्दी पहनने की इजाज़त नहीं है। लेकिन वे झिलमिलाती आंखें लिए जनमुक्ति छापामार सेना के जत्थों का पीछा करते हैं, फिल्मी अभिनेताओं के प्रशंसकों की तरह। 

फ्लैशबैक 1947: जब कश्मीर की कच्ची कलियों के हाथों में बंदूकें थमाई गईं हमलावर पाकिस्तानी कबाइलियों से मुकाबले के लिए और बच्चों की इस पलटन को नाम दिया गया 'बाल सेना', जो एंड्रयू व्हाइटहॉल की खींची इस तस्वीर में अपनी काठ की राइफलें कंधे पर उठाए मुस्तैद खड़े हैं पैलेडियम सिनेमाहॉल के आगे, नेहरू के इस्तकबाल के लिए।

कश्मीर की बुनियाद में बारूद बोने वाले सियासतदान तो आए और चले गए पर नई पौध बरसों प्रॉक्सी-वॉर की आग में झुलसती रही। अब यहां इसी अघोषित युद्ध में बच्चों के हाथों में या तो मजबूरन औजार हैं, या फिर पत्थरनुमा हथियार हैं। फ़िल्म 'हामिद' का नन्हा नायक किताबों से निकलकर अपने पिता की तरह कश्ती बनाना सीखता है और अंत आते आते हताशा में पत्थर भी उठा लेता है। पत्थर उठाए हुए यह कोमल हथेलियों भी उतनी ही पत्थर हो जाती हैं जितने ज़बरवान के पहाड़!

खालिद हुसैनी की The Kite Runner में भी बच्चे युद्ध से पहले किताबों और पतंगों में अपनी दुनिया ढूंढते फिरते हैं मगर युद्ध उन्हें रिफ्यूजी बनाकर बचपन नाम के देश से ही महरूम कर देता है। 
इराक तुर्की के बॉर्डर पर पनाहगुज़ीनों की अस्थाई बस्ती में Turtles Can Fly जैसी त्रासद कहानी पनपती है, जो गृहयुद्ध का शिकार हुए ऐसे बच्चों पर आधारित है जिनके खिलौने बन गए हैं लैंडमाइन, चुके हुए कारतूस और डिश एंटीना। तानाशाह के अत्याचारों से त्रस्त ये कुर्दों का दस्ता जिस शिद्दत से अमरीकी चढ़ाई का इंतज़ार कर रहा है, उसे The Great American Dream की खुशफेहमी का ही विस्तार कहा जा सकता है। कोई बच्चा अनाथ है, कोई अपनी टांग खो चुका है, कोई अपनी बाजुएं खो चुका है मगर अपनी अपनी तरह से सब नन्हे सिपाही संघर्षरत हैं। फ़िल्म की बाल नायिका युद्ध में तरह तरह से शिकार एक स्त्री देह का ही चलता फिरता नमूना है, जिसके नन्हे कंधे इस दुनियावी हिंसा को और उठा नहीं पाते और वो आत्महत्या कर लेती है। 

आज अमरीकी स्कूलों में आए दिन होते Gun Violence ने बच्चों के सशस्त्रीकरण का कंपास फर्स्ट वर्ल्ड की तरफ़ घुमा दिया है। जिन मुल्कों ने थर्ड-वर्ल्ड को तानाशाही, राजशाही और कबीलाई जीवन से मुक्ति के नाम पर कब्ज़ाया, आज वही सभ्य समाज उसी मुहाने पर खड़ा है और खुद को खुद से बचाने में अक्षम है। 

नन्हें हाथों-पैरों को फौजी वर्दियों, हथियारों, सियासत, विचारधारा और हिंसा के बोझ तले दबाने वाली इस सख्तदिल दुनिया में क्या आने वाली नाज़ुक नस्लों के लिए कोई ऐसा नर्म कोना बचा है, जहां उन्हें उनींदी आंखों से तोतले सपने देखने की आज़ादी मिले?


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