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Showing posts from December, 2019

2019 की पांच पठनीय किताबें

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वर्ष 2019 को मुड़कर देखने पर  पूरा विश्व ही  एक बेचैन दौर से गुजरता हुआ दिखाई पड़ता है। सत्ता और जनता के बीच के गड़बड़ाते शक्ति संतुलन के चलते  व्यवस्थाएं डांवाडोल दिखाई दीं और विश्व भर में यथास्थिति और परिवर्तन के बीच झूलते मुल्क आंतरिक द्वंद में संलिप्त मिले। दक्षिण अमरीका के चिली से लेकर ब्राजील के जंगलों तक, हांगकांग की सड़कों से लेकर भारत के कस्बों तक, फिलिस्तीन की गलियों से फ्रांस के चौराहों तक फैले आंदोलनों की सरगर्मियों को सत्ता के वाटर कैनोन तक डगमगा नहीं पाए। नव-फासीवाद के उभरते प्रभाव के ख़िलाफ़ 'बेला चाओ' एंथम से गूंजती सभाएं हों या सूडान के सत्ताधीशों के ख़िलाफ़ 'थौरा!' (क्रांति) का उद्घोष करती महिलाएं हों, सामाजिक और राजनैतिक उथल पुथल से दुनिया का कोई कोना  शायद ही  अनछुआ बचा हो। ग्रेटा थनबर्ग की अगुवाई में जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला गया स्कूलों में, जो फैलते-फैलते सड़कों और राजधानियों से होते हुए संयुक्त राष्ट्र के भवन तक पहुंच गया। यौन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ महिलाओं के वेगपूर्ण आह्वान ने दुनिया भर को झकझोरा। विद्यार्थियों ने ...

पाश

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पाश एक ऐसा कवि है, जिसके लिखे को मैंने खेतों की मुंडेरों पर बैठकर पढ़ा है, पढ़कर मैं हँसी हूँ, खूब रोई हूँ, बहुत उदास रही हूँ और बदली हूँ। प्रोफेसर  Chaman Lal  ने पाश की कविताओं का पंजाबी से हिंदी में बहुत बढ़िया अनुवाद किया है। मैं चाहती हूँ पाश को और पढ़ा जाए, पढ़ाया जाए, समझा जाए, समझाया जाए और हमेशा याद रखा जाए।

एक था डॉक्टर, एक था संत (अरुंधति रॉय) : पुस्तक-समीक्षा

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जब मेरे सामने गाँव के रूमानी चित्रण के पीछे की परतें खुल रही थीं, तभी भीमराव अम्बेडकर के लेख 'annihilation of caste'/ 'जाति का विनाश' को पढ़ा था और शत प्रतिशत सटीक भी पाया था। दिल्ली आना हुआ तो जेएनयू में अक्सर अम्बेडकरवादी राजनीति करने वालों को वामपंथी, हिंदुत्ववादी और गांधीवादी विचारधाराओं से टकराते देखना भी दिलचस्प लगा, लेकिन हाल में इस वैचारिक और राजनैतिक टकराव की वजह को तफ्सील से समझाने के लिए  अरुंधति रॉय की किताब 'एक था डॉक्टर, एक था संत' को बड़ा श्रेय दिया जाना चाहिए। इस किताब में न सिर्फ अम्बेडकर, गांधी और वामपंथ की मतभिन्नता को बारीकी से उकेरा गया है बल्कि गांधी की पूजनीयता को भी (आदरपूर्वक) सवालों के कटघरे में रख कर देखा गया है। किताब के एक अंश में रॉय लिखती हैं, "भारत में गांधी आलोचना करने पर न केवल नाक-भौं सिकोड़ी जाती है, बल्कि ऐसी आलोचना को सेंसर भी किया जाता है। इसके अनेकों कारणों में से एक है जो सेक्युलरवादी बताते हैं, यह है कि हिन्दू-राष्ट्रवादी इस आलोचना को झपट लेंगे और इसका इस्तेमाल कर फायदा उठाएँगे। सच्चाई यह है कि जाति के विषय पर ...

बोलना ही है ( रवीश कुमार ) : पुस्तक-समीक्षा

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रवीश जी से अब तक एक ही बार बात कर पाई हूँ और ट्रोल्स के हमलों के निजी होने की शुरुआत ही थी तब। एक आम नागरिक के तौर पर सिर्फ़ इतना ही कहा था उनसे कि हम आपके साथ हैं। मेरे जैसे किसी भी nobody के उनके साथ होने न होने से कुछ बदलता नहीं है पर उनके बोलने से मेरे जैसों की आवाज़ और मुद्दे ज़रूर सत्तासीनों के कानों में गूँज पाते हैं। रवीश जी की साफ़गोई, अन्याय के ख़िलाफ़ उनकी बेबाकी और ज़मीनी आदमी होने के चलते आम जन के मुद्दों को लेकर उनकी संवेदनशीलता ही उनकी पहचान है। उनकी किताब 'बोलना ही है' के लिए आबिद अदीब का एक शे'र ही कहा जा सकता है: 'जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे रहे न रहे वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं..' ('बोलना ही है' को amazon से ₹225/- में मँगवा सकते हैं।)

इश्क़ कोई न्यूज़ नहीं ( विनीत कुमार ) : पुस्तक-समीक्षा

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न्यूज़रूम में चलती-दौड़ती तेज़-कदम खबरों से अलग भी कुछ कहानियाँ घट रही होती हैं, जिन्हें कोई रिपोर्ट नहीं करता। लेकिन विनीत कुमार जैसा संवेदनशील लेखक लप्रेक (लघु प्रेम कथा) की शक़्ल में कितनी कम कॉलम-लेंथ घेर कर भी कितनी गहरी बात कह जाता है। बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों जैसी हल्की-फुल्की कहानियाँ जो अलग-अलग शक़्ल लेती रहती हैं। विक्रम नायक के बनाये रेखाचित्र इन लप्रेक के पूरक हैं। खत्म होने के बाद भी कुछ देर तो इन्ही रेखाचित्रों पर कहानी नाचती रहती है। अफसोस ये रहेगा कि 2016 में आई इस किताब, 'इश्क़ कोई न्यूज़ नहीं' को इतनी देर से क्यों पढ़ा मैंने...

जेएनयू में नामवर सिंह ( सुमन केशरी ) : पुस्तक-समीक्षा

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"Let's sow the earth with crazy dreams.." अरावली की पहाड़ियों में बोए गए ऐसे ही आइडियल सपनों की जन्मस्थली रहा है जेएनयू, जिसकी नींव को सींचने वाले हुए नामवर सिंह जैसे शिक्षक, जिन्होंने, बक़ौल प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल सर, न सिर्फ पढ़ाया बल्कि सिखाया। 'जेएनयू में नामवर सिंह' को पढ़ते हुए आप सीपिया-टोन में रंगे 70 के दशक के जेएनयू को देख पाएँगे, जहाँ के बोहेमियनपन में counter-culture की झलक थी, जहाँ वर्च स्व की संस्कृति का विकल्प तलाशते हुए नामवर सिंह 'दूसरी परंपरा की खोज' (की रचना) कर देते हैं; 'सेन्टर ऑफ इंडियन लैंगुएजेज़' में हिंदी और उर्दू को साथ-साथ पढ़ाने की पुरज़ोर वक़ालत करते हैं ; जहाँ स्टूडेंट यूनियन के विरोध पर इंदिरा गांधी चांसलर पद से इस्तीफा दे देती हैं; जहाँ केवल आर्किटेक्चर में ही नहीं, बल्कि बौद्धिक वातावरण में एक aesthetic dimension रहता है; जहाँ कमज़ोर आर्थिक और सामाजिक पृष्टभूमि से आने वालों को दाखिले में तरजीह दी जाती है। सुमन केशरी जी ने किताब में जेएनयू और डॉ नामवर सिंह से वाबस्ता विद्यार्थियों, अध्यापकों, कर्मचारियों के ले...

देसगांव ( अभिषेक श्रीवास्तव ) : पुस्तक-समीक्षा

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अभिषेक श्रीवास्तव की किताब 'देसगांव' तृणमूल (grass root level) की रिपोर्टों का एक ऐसा दस्ता है जो गैर-प्रायोजित ज़मीनी जनांदोलनों का लेखा-जोखा बयान करती है। जिला बनारस के एक छोटे से गांव से चलने वाले 'अगोरा प्रकाशन' से आई उनकी ये किताब जनआंदोलनों के पीछे की पॉलिटिक्स को भी उतनी ही तफ़्सील से बेनकाब करती है जितनी वास्तविक संघर्षों की कहानी कहती है। एक संवाददाता के तौर पर धूल फांकते हुए कच्ची पगडंडि यों से गुज़रकर कहानी की जड़ तक जाकर, आम- जन से संवाद स्थापित कर फैक्ट्स खोद कर लाने के लिए लेखक के प्रति सम्मान और बढ़ जाता है। कहीं भी लेखक की अपनी विचारधारा या bias रिपोर्ट पर हावी होता नहीं दिखता। हिमाचल, पंजाब, उत्तराखंड और राजस्थान की रिपोर्ट पढ़कर लगा कि कितना साहसिक और ज़रूरी है इन microscopic मुद्दों को मुख्यधारा में लाकर खड़ा करना। ना तो अपनी तरह की ये पहली किताब है, और चाहूंगी कि ना यह आख़िरी किताब हो। न्यूजरूम की काग़ज़ी पत्रकारिता के सामने एक बड़ी चुनौती रखती है ' देसगांव' जैसी ज़मीनी पत्रकारिता। पढ़कर देखिएगा...!