ऐतिहासिक अवशेष और मसाला करी


आज जब mythology को भी इतिहास से जोड़ कर fictional reality गढ़ी जा रही है, 'मेलूहा के मृत्युंजय' और 'इक्ष्वाकु के वंशज' को बॉलीवुड के चरित्रों में तब्दील किया जा रहा है, तब इतिहास को किम्बदन्तियों से अलग करके इसकी विश्वसनीयता को परखना और प्रचारित करना सबसे ज़्यादा जोखिम का काम है। एक मत यह भी है कि इतिहास जैसा घटित हुआ, न वैसा हूबहू दर्ज हो सका और न ही वैसा silver screen पर दिखाया जा सकता है। ऐसे में आज दर्शक और इतिहास के पाठक की ज़िम्मेदारी बढ़ गयी है कि सिर्फ ऐतिहासिक संदर्भ देख कर किसी भी फ़िल्म या कार्यक्रम को प्रामाणिक न मान लें और न ही फिल्मी पटकथाओं को इतिहास की केस-स्टडी समझने की गलती करें। फ़िल्म-निर्माताओं का भी दायित्व है कि ऐतिहासिक अवशेषों को केवल मिर्च-मसाला लगा कर भूनें नहीं बल्कि दर्शक को भी मानसिक तौर पर इतिहास के fictionalisation के लिए तैयार करें । पद्मावती, जोधा-अकबर, बैंडिट क्वीन, बाजीराव-मस्तानी, राग-देश या इंदु सरकार जैसी तमाम फिल्में इतिहास और कल्पना का रचनात्मक खेल है, न कि ऐतिहासिक दस्तावेज़; इसलिये इन घटनाओं या किरदारों को देख जज़्बाती और राजनैतिक उबाल काबू में रखकर एन्जॉय करना ही समझदारी है। 

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