तलाक़! तलाक़! तलाक़!
तलाक़! तलाक़! तलाक़!
हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी फिल्मों और ड्रामों में instant तलाक़ के दृश्य साँसे रोक देते थे, जब गुस्से में काँपता शौहर अपनी बेबस बीवी को एक ही झटके में अपनी ज़िन्दगी और शादी से बेदखल कर अलग रास्ते चल देता था। ज़ुबानी तरीके से चलाई जाने वाली instant /oral तलाक़ की तलवार औरत की आइंदा ज़िन्दगी की नब्ज़ काटने का काम करती। मोबाइल या email पर दिए गए तलाक़ की खबरें इस रस्म को आज के वक़्त के मुताबिक पैरहन बदलते तो दिखाती थी पर इसके खिलाफ मज़हबी इदारों में कोई खास विरोध होता नहीं दिखता। कुछ पीड़ित ख्वातीन और चंद तरक्की-पसंद लोगों की कवायद के चलते आज अदालती रास्ते से होकर तीन तलाक़ जैसी एकतरफा और नाइंसाफी वाली रस्म को रौंदा जा सका है मगर बगैर समाज के सहयोग के ये आज़ादी अधूरी है। आज भी कई लोग इस प्रथा के हक़ में जिरह करते दिख रहे हैं जो कि हैरतअंगेज है। इंसानियत और बराबारी में यकीन रखने वाला कोई भी व्यक्ति कैसे एकतरफा और फौरी तलाक़ को सही ठहरा सकता है जब कि शादी दो लोगों के बीच हुआ एक करार है जिसमें दूसरे पक्ष की सुनवाई भी उतनी ही लाज़मी है। मोबाइल या email पर शादी करना या तलाक़ देना ही हमें modern नहीं बना सकता बल्कि सब रस्मो रिवाज़ में मर्द-औरत, दोनों पक्षों की बराबर की साझेदारी और सुनवाई ही असल में modernity है। और सबसे ज़्यादा ज़रूरत तो शादी जैसे करार को धर्म, रस्मों और जाति के पंजे से बाहर खींच कर कानूनी दायरे के अंदर लाने की है ताकि दोनों पक्षों को हर सूरत में सुनवाई और इंसाफ का असल हक़ मयस्सर हो।
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