बकरी बनाम बहाना



"नदी किनारे वाली ज़मीन एक्वायर हुई थी तब मेरे नाम का ५० लाख का चेक आया था ! बहू-बेटे ने पैसा बैंक में जमा  करवा दिए और एक गाडी भी खरीद ली थी ! यहाँ कॉलोनी के लिए प्लाट काटने शुरू हो गये ! हमारे देखते-देखते लहलहाती हरियाली , बस्तियों में तब्दील हो गयी ! बकरी चराने को भी कोई ठौर ढूंढ़ना पड़ता है आजकल !"

"ये बकरी क्यों चराती हो अब भी? अब तोह करोड़पति हो गये हो आप लोग ! बुढ़ापे में आराम किया करो न !"

"बेटा ! ये बकरी नहीं, बहाना है ! बुढ़ापा तो उस दिन महसूस होगा, जब घर पर खाली बैठ जाउंगी ! इस बकरी के बहाने सैर कर लेती हूँ; गाँव भर में घूमना हो जाता है ! वरना आजकल कोई बिना मतलब कहाँ बाहर निकलता है ! सब अंदरोल बन गए हैं ! या तो टीवी के आगे या फोन पर....मिलना-मिलाना तो ब्याह-शादियों में भी २ मिनट का होता है अब तो ! किसी पोते-दोहते को कहूँगी कि सैर करवा ला तो उल्टा जवाब या बहाने ही सुनाएंगे ! इसीलिए मैं बकरी को चराने के साथ सैर भी कर लेती हूँ !  अपने गाँव की खबरें अब टीवी में थोड़े ही मिलती हैं ! खेतों में घास लेने आई बहुओं से उनके घर-परिवार का पूछ लेती हूँ ! स्कूल-कॉलेज से आते-जाते बच्चों का ध्यान भी रखती हूँ ! फसल काटने आये या खाद डालने आये मज़दूरों से दिहाड़ी , मालिक बारे बात हो जाती है ! किस घर में शाम को क्या सब्ज़ी पक रही है, यह तक पता रहता है इस बुढ़िया को !"
ये कहते हुए बुढ़िया पोपले मुँह से हँसने लगी ! चरने में मग्न अपनी बकरी को दूर निकलते देखकर मुझसे विदा  ली और बोली: "चलो ! अब जा कर इसे संभालती हूँ ! और बेटे ! किसी न किसी बहाने को पकड़ कर चलते रहना; जैसे मैं चल रही हूँ अपनी बकरी के सहारे ! जिस दिन चलना बंद हुआ, बुढ़ापा उसी दिन से शुरू !"
अपने बहाने की डोर पकड़े बुढ़िया देखते-देखते पगडण्डियों से ओझल हो गयी ! 

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