..अल्फ़ाज़ का पीछा करते..

हरियाली से घिरे इस घर में कोई 'लिखने' के सिवा और कर भी क्या सकता था ! मगर उसके अलफ़ाज़ को तो मानो कोई दीमक खा गयी थी ! रोज़ सुबह उठ कर किसी नए टॉपिक पर लिखने का सोचती या फिर कोई कहानी पढ़ने बैठती मगर ध्यान, अलफ़ाज़ से हाथ छुड़ा कर, किसी दूर की सोच के मैदानों में दौड़ने लगता ! 'Writer's Block' का बहाना करके अपने आप को समझा लेती मगर जब मन बना कर लैपटॉप पर कुछ लिखने लगती तो घंटों खाली स्क्रीन को देखती जाती ! आखिर क्या लिखे और किसके बारे में लिखे ! लोगों के बारे में क्या कहना है। कित्ना लिखना है। लोगों से दूर भागने को ही तो लिखती थी ! फिर क्यों लिखे उन्ही लोगों के बारे में ! उबकाई सी आती थी हर किस्से, हर कहानी पर ! अखबार भी बोरिंग से ही थे ! हर नोवेल कितना  प्रेडिक्टेबल ! ऐसा क्या था जो पहले कहा नहीं गया या लिखा नहीं गया ! और मार्केट में लेखकों की एक नयी खेप तैयार हो चुकी थी अब तक ! कौन इतना खाली है कि उसको पढ़ता ! पब्लिशर से भी कोई इनपुट नहीं था ! ६ महीने बीत गये थे !
'…कहानी को धक्का लगा कर कागज़ पर उतारने में थक गयी थी ! अब कहानी की ऊँगली पकड़ कर चलने का वक़्त था...कहानी के साथ बहने का ....', सूटकेस को गाड़ी में रखते हुए उसने फैसला किया !


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