औरत और एक घर

गिरीश कासारवल्ली की फ़िल्म 'एक घर' (1991) का वह सीन मेरे ज़ेहन में साइरन की तरह बजता रहता है जिसमें एक पुरानी कब्रगाह में बैठी हुई मोहल्ले की 'बदनाम' आंटी (रोहिणी हट्टनगड़ी), गीता (दीप्ति नवल) को उसकी बुनी हुई आदर्श घरेलू खुशफ़हमी से तब खींचकर बाहर लाती है जब वो कहती है कि औरत का अपना कोई घर नहीं होता; सब घर मर्दों के ही होते हैं, चाहे वो पिता का हो या भाई का या फिर पति का। हमारे समाज में अक़्सर देखा जाता है कि कानूनी प्रावधानों के बावजूद, ज़्यादातर औरतें मालिकाना हक़ से महरूम रहती हैं और किसी भी वक़्त बेघर या बेदख़ल कर दिए जाने के डर से सहमी रहती हैं। वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट 'लिंग आधारित हिंसा और संपत्ति के स्वामित्व' से पता चलता है कि जहां महिलाएँ अचल संपत्ति की मालिक हैं, वहाँ उनके ख़िलाफ़ होने वाली घरेलू हिंसा का जोखिम कम हो जाता है। संपत्ति का स्वामित्व उन्हें आर्थिक और भौतिक सुरक्षा प्रदान करता है, आत्म सम्मान को बढ़ाता है और महिलाओं को अपमानजनक रिश्तों से बाहर निकलने के विकल्प प्रदान करता है। भारत में टैक्स-बचत के लिए यूँ तो प्र...