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Showing posts from September, 2018

औरत और एक घर

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गिरीश कासारवल्ली की फ़िल्म 'एक घर' (1991) का वह  सीन मेरे ज़ेहन में साइरन की तरह बजता रहता है जिसमें एक पुरानी कब्रगाह में बैठी हुई मोहल्ले की 'बदनाम' आंटी (रोहिणी हट्टनगड़ी), गीता (दीप्ति नवल) को उसकी बुनी हुई आदर्श घरेलू खुशफ़हमी से तब खींचकर बाहर लाती है जब वो कहती है कि औरत का अपना कोई घर नहीं होता; सब घर मर्दों के ही होते हैं, चाहे वो पिता का हो या भाई का या फिर पति का।  हमारे समाज में अक़्सर देखा जाता है कि कानूनी प्रावधानों के बावजूद, ज़्यादातर औरतें मालिकाना हक़ से महरूम रहती  हैं और किसी भी वक़्त बेघर या बेदख़ल कर दिए जाने के डर से सहमी रहती हैं।  वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी की गयी रिपोर्ट 'लिंग आधारित हिंसा और संपत्ति के स्वामित्व' से पता चलता है कि जहां महिलाएँ अचल संपत्ति की मालिक हैं, वहाँ उनके ख़िलाफ़ होने वाली घरेलू हिंसा का जोखिम कम हो जाता है। संपत्ति का स्वामित्व उन्हें आर्थिक और भौतिक सुरक्षा प्रदान करता है, आत्म सम्मान को बढ़ाता है और महिलाओं को अपमानजनक रिश्तों से बाहर निकलने के विकल्प प्रदान करता है।  भारत में टैक्स-बचत के लिए यूँ तो प्र...

जनता के मन की बात

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कानून जब अपने फैसले मुख्यतः 'collective conscience' के आधार पर लेने लगे तो बहुत ज़रूरी हो जाता है यह जानना कि जनता की राय बन कैसे रही है या कैसे 'बनाई' जा रही है। राजनीति तो populism से प्रभावित है ही। वहीं newsrooms में हर रात बहस करने वाले expert panels भी काफी हद तक opinion manufacture करने की फैक्ट्री ही बन चुके हैं। अलग अलग (सोशल) मीडिया पर propaganda फैलाया जा रहा है और जनवादी/राष्ट्रवादी लिफाफे में लपेट कर market किया जा रहा है। इसी तर्ज पर जनवादी आंदोलनों की आड़ में बहुत से संगठन अपने निजी एजेंडे भुना रहे हैं। ऐसीे ही रायशुमारी के आधार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों में भी फैसले लेने के लिए सरकारों को बाध्य किया जा रहा है। सोचने की बात यह है कि जनतंत्र क्या सिर्फ एक भीड़तंत्र है जो आज majority की हाँ या ना पर चलता है? क्या हमें सोशल मीडिया के इस दौर में रायशुमारी यानि हर बात पर direct referendums मंजूर हो गए हैं? क्या हमारी राय आज सचमुच हमारे ही 'मन की बात' है?

हीरो और छवि

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पिछले हफ्ते अल्लामा इक़बाल की ज़िंदगी पर आधारित एक नाटक देखा, "सर इक़बाल", जिसमें उनका सेक्युलर प्रवृत्ति से धीरे-धीरे इस्लामिक स्टेट के तरफदार के तौर पर evolution जानने को मिला। ऐसे ही इस हफ्ते महाराजा दलीप सिंह पर बनी फिल्म The Black Prince देखी, जिसमें क्रिश्चियन faith और British माहौल की तरबियत में पला-बड़ा दलीप, हालात के साथ evolve होते हुए उम्र के आखिरी पड़ाव में दोबारा सिख पंथ और पंजाब की तरफ लौटना चाहता है, अपना राजपाट वापस जीतना चाहता है पर असफल रह जाता है। इस्मत चुग ताई पर आधारित एक नाटक करते हुए भी सआदत हसन 'मंटो' के ऐसे ही evolution के बारे में जाना कि कैसे एक आज़ाद-ख्याल और सेक्युलर लेखक, दंगों और मज़हबी मतभेदों से क्षुब्ध होकर हिंदोस्ताँ-पाकिस्तान की तकसीम को जायज़ ठहराने लगता है और हालात से समझौता कर पाकिस्तान जाकर बस जाता है। यह तमाम किस्से हमारे GLORIFIED HEROES को लेकर पाले हमारे भ्रम तोड़ते हैं और यही याद दिलाते हैं कि कोई भी हीरो superhuman quality से नहीं भरा, हर कोई कमजोर पड़ सकता है, कोई भी छवि permanent नहीं होती और evolution किसी को भी...

तलाक़! तलाक़! तलाक़!

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तलाक़! तलाक़! तलाक़!  हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी फिल्मों और ड्रामों में instant तलाक़ के दृश्य साँसे रोक देते थे, जब गुस्से में काँपता शौहर अपनी बेबस बीवी को एक ही झटके में अपनी ज़िन्दगी और शादी से बेदखल कर अलग रास्ते चल देता था। ज़ुबानी तरीके से चलाई जाने वाली instant /oral तलाक़ की तलवार औरत की आइंदा ज़िन्दगी की नब्ज़ काटने का काम करती। मोबाइल या email पर दिए गए तलाक़ की खबरें इस रस्म को आज के वक़्त के मुताबिक पैरहन बदलते तो दिखाती थी पर इसके खिलाफ मज़हबी इदारों में कोई खास  विरोध होता नहीं दिखता। कुछ पीड़ित ख्वातीन और चंद तरक्की-पसंद लोगों की कवायद के चलते आज अदालती रास्ते से होकर तीन तलाक़ जैसी एकतरफा और नाइंसाफी वाली रस्म को रौंदा जा सका है मगर बगैर समाज के सहयोग के ये आज़ादी अधूरी है। आज भी कई लोग इस प्रथा के हक़ में जिरह करते दिख रहे हैं जो कि हैरतअंगेज है। इंसानियत और बराबारी में यकीन रखने वाला कोई भी व्यक्ति कैसे एकतरफा और फौरी तलाक़ को सही ठहरा सकता है जब कि शादी दो लोगों के बीच हुआ एक करार है जिसमें दूसरे पक्ष की सुनवाई भी उतनी ही लाज़मी है। मोबाइल या email...

JNU में छात्र संघ चुनाव

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हम सब ने democracy का नाम सुना है और हर पाँच साल बाद वोट देकर या चाय की टपरी पर खड़े हुए सरकार की नुक्ताचीनी कर खुद को democracy के ज़िंदा होने का दिलासा देते रहते हैं। पर इस काग़ज़ी परिभाषा के आगे जिस democracy की परिकल्पना हमने utopian लेखों में पढ़ी-सुनी है, उसको मैं करीब से देख पाई हूँ JNU के student union election campaign में। जिस JNU को anti-national ब्रांड करके पूरे देश दुनिया में बदनाम किया गया, दरअसल उसी इकलौते institute में ही हमारे constitutional principles को बातमीज़ लागू  होते देख पाई हूँ। हुड़दंगबाज़ी, शोर शराबे और हिंसा के लिए बदनाम STUDENT UNION ELECTIONS की छवि दिमाग में लेकर गयी थी, पर इतना सभ्य, balanced और intellectual campaign देखकर लगा कि JNUSU इलेक्शन को तो बाकी universities में भी मॉडल के तौर पर follow किया जाना चाहिए। presidential कैंडिडेट्स के भाषणों में सिर्फ university ही नहीं, बल्कि सामाजिक, राष्ट्रीय मुद्दों को भी जगह दी गयी। Infact, हमारे राजनैतिक दल भी अगर महँगी रैलियां और खर्चीले publicity campaigns की बजाये ऐसे साँझे मंच से debates और discussion करक...

ऐतिहासिक अवशेष और मसाला करी

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आज जब mythology को भी इतिहास से जोड़ कर fictional reality गढ़ी जा रही है, 'मेलूहा के मृत्युंजय' और 'इक्ष्वाकु के वंशज' को बॉलीवुड के चरित्रों में तब्दील किया जा रहा है, तब इतिहास को किम्बदन्तियों से अलग करके इसकी विश्वसनीयता को परखना और प्रचारित करना सबसे ज़्यादा जोखिम का काम है। एक मत यह भी है कि इतिहास जैसा घटित हुआ, न वैसा हूबहू दर्ज हो सका और न ही वैसा silver screen पर दिखाया जा सकता है। ऐसे में आज दर्शक और इतिहास के पाठक की ज़िम्मेदारी बढ़ गयी  है कि सिर्फ ऐतिहासिक संदर्भ देख कर किसी भी फ़िल्म या कार्यक्रम को प्रामाणिक न मान लें और न ही फिल्मी पटकथाओं को इतिहास की केस-स्टडी समझने की गलती करें। फ़िल्म-निर्माताओं का भी दायित्व है कि ऐतिहासिक अवशेषों को केवल मिर्च-मसाला लगा कर भूनें नहीं बल्कि दर्शक को भी मानसिक तौर पर इतिहास के fictionalisation के लिए तैयार करें । पद्मावती, जोधा-अकबर, बैंडिट क्वीन, बाजीराव-मस्तानी, राग-देश या इंदु सरकार जैसी तमाम फिल्में इतिहास और कल्पना का रचनात्मक खेल है, न कि ऐतिहासिक दस्तावेज़; इसलिये इन घटनाओं या किरदारों को देख जज़्बाती और राजनैति...

वृद्धाश्रम: एक सामाजिक परिवर्तन

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हाल ही में इंटरनेट पर वायरल हो रही ये तस्वीर एक दादी और पोती की वृद्धाश्रम में हुई अचानक मुलाक़ात की है जिसमें अपनी ही दादी को घर से दूर वृद्धाश्रम में रहता पाकर पोती भावुक हो गयी। इसे शेयर करते हुए लोग वृद्धाश्रमों और उन बेटे-बेटियों को मलामतें भेज रहे हैं जो अपने वाल्दैन को बुढ़ापे में इन old age homes में जाने को 'मजबूर करते' हैं। भावुकता और भेड़चाल से थोड़ा दूर होकर देखा जाए तो भारतीय समाज में शुरू से ही वृद्धाश्रमों को खलनायक के तौर पर पेश किया गया है क्योंकि हमारे समाज में  संयुक्त-परिवार में घर के बुज़ुर्गों की छत्रछाया में पालन-बढ़ना ही आदर्श माना जाता है और आमतौर पर nuclear family system को ही हर तरह के सामाजिक पतन की वजह बताया जाता है। इतिहास को देखें तो पता चलता है कि इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन के साथ ही पलायन के चलते संयुक्त परिवार का अस्तित्व कमज़ोर होना शुरू हुआ और nuclear family एक functional necessity के तौर पर उभरी। मगर असल में हम में से कितने ही लोग nuclear family में एक अच्छी तरबियत के साथ पले-बड़े और अच्छे नागरिक बनकर निकले। हम लोग संयुक्त परिवारों में होने वाले ...