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Showing posts from 2017

नाटक के निशान 

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"तुझ जैसे एक रंगकर्मी की ज़िन्दगी में शामिल होकर कुछ ड्रामा, कुछ रौशनी और कुछ अँधेरा मेरे भी वजूद का हिस्सा हो गया है। तू नाटक खेलता है और मैं दर्शक बन कर अपनी ही ज़िन्दगी का मंचन देखती हूँ।  क्या कोई स्क्रिप्ट भी है? मैं पढ़ सकती हूँ? या फिर दर्शक होकर नाटक के   घटित होने का इंतज़ार करना होगा?  स्टेज की ही तरह तेरी दुनिया में शामिल किरदारों और कोनों पर रोशनी के कुछ स्पॉट्स हैं, इर्द गिर्द अंधेरा है। पर्दा तो है पर पर्दादारी नहीं है। सीन दर सीन हैं। कुछ-कुछ नज़र आता है और फिर सब कुछ फेड-आउट हो जाता है।  रंग हैं, रंगमंच है, रंगीनियाँ हैं पर ये रंग कच्चे हैं या पक्के हैं, ये फ़र्क़ पता नहीं लगता। आवाज़ें हैं चढ़ती-उतरती हुईं, चेतना की दीवारों से टकराती हुईं। सुर्ख़ स्याह पोस्टर हैं मोटी लिखाई में शीर्षक लिए हुए। अरे ! ये तो तेरा मेरा नाम है। हमारी कहानी है।  सुन ! क्या तू भी विंग में छुप कर नक़ाब बदलता है ? क्या तू भी नए किरदारों के लिए मेन्टल-मेकअप की मोटी परत चढ़ाता है? दर्शक की कुर्सी पर मुझे बैठे देख क्या तेरे हा...

गाय पर दुधारू राजनीती | Milking the political cow

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'गाय होने' की उपमा अक्सर बेहद भोले और आज्ञाकारी लोगों के लिए दी जाती है। धार्मिक चित्रणों में भी गाय या बैल को ईश्वर के आज्ञाकारी आराधक के तौर पर दर्शाया जाता रहा है, जो अपने आराध्य के प्रभामंडल से अभिभूत दिखाई देते है। हरप्पा सभ्यता में भी बैल की छवि लिए हुए मोहरें मिलती है जो दर्शाती हैं की इस प्रजाति विशेष को मानव ने शुरू से ही आदरणीय स्थान  दिया है।                                                   एक समय में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह तक बैलों का जोड़ा था, जो की आगे चलकर गाय और बछड़ा भी हुआ। समय बीतता गया पर गाय का स्थान भारतीय संस्कृति में बरकरार रहा, चाहे वह आराध्य से गिरकर आवारा होने तक का ही क्यों न रहा हो। और आज समय ये है कि गाय का राजनैतिक दोहन भी उतनी ही असंवेदनशीलता के साथ किया जा रहा है, जितना कि इसका व्यावसायिक दोहन हो रहा है। 'बेटी बचाओ' की तर्ज़ पर 'गौ-रक्षा' अभियान भी खूब ज़ोर-शोर से चल रहा है और इस अभियान की अगुवाई...

पंजाब के पदचिन्ह | Footprints of Punjab

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  सिर्फ कहने को ही मेरा गाँव और शहर पंजाब में नहीं हैं ; बाकि बोली, पहनावा, खान-पान, लोक-गीत, रीति-रिवाज सब पंजाबियत की मिठास लिए हुए है ! हो भी क्यों न, पेप्सू रियासत की अनमिट छाप अब भी यहाँ पर बर-अक्स कायम है ! १९६६ में सिर्फ सूबे अलग हुए थे, पंजाबी सभ्याचार के टुकड़े तो १९४७ भी न कर सका था !  मुझे 'माँ-बोली' का असल मतलब तो हमेशा 'पंजाबी' ही समझ में आया क्योंकि माँ को हिंदी बोलते-बोलते पंजाबी ही बोलते देखते रही ; स्वाभाविक तौर पर कैसे माँ की ये जुबां, पंजाबी की चिकनी पगडंडियों पर भटक जाती थी; मानो पंजाब में छूटे अतीत को पंजाबी अक्षरों से बीन कर लाने की कोशिश कर रही हो ! ऐसा ही कुछ बचा-कुचा पंजाब पापा में भी धड़कते देखा जो कभी पंजाबी लोक-गीत सुनकर फूट कर रिसने लगता या कभी वडाली बंधुओं के गीत सुनकर फसलों की तरह झूम उठता !  मुझमें पंजाब के बीज यहीं घर से ही बोये गए पर ये बीज पौध बन कर तब उगने लगे जब मालवा के दिल में बसी अपनी यूनिवर्सिटी में दाखिला हुआ ! हरे-हरे खेतों से घिरी यूनिवर्सिटी तक आने वाला लंबा रास्ता कई छोटे-बड़े पंजाबी कस्बों गाँवों से होता हुआ गुज़रता थ...

घर और बाहर | रवींद्रनाथ टैगोर

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रवींद्रनाथ टैगोर की कृति 'घर और बाहर' के अलग-अलग रिव्यू पढ़ने के बाद से पूर्वाग्रह तो था पर राष्ट्रवाद और रिश्तों के ताने-बाने से बुनी इस कहानी को अपने विवेक से रेज़ा-रेज़ा खोलने की तलब थी, इसलिए खुद ही पढ़ी। कहानी किसी सूत्रधार या बाहरी नज़रिए से नहीं कही गई है बल्कि तीन प्रमुख किरदारों-बिमला, निखिलेश, संदीप के निजी पक्षों के माध्यम से  लिखी गयी है, जो समय और हालात के साथ बदलते रहते हैं।  बिमला और निखिलेश के दाम्पत्य जीवन की संवेदनशील बारीकियों के चित्रण से लेकर अंग्रेज़ी संस्कृति का कुलीन ज़मींदारी परिवारों पर प्रभाव इसमें किरदारों के नज़रिए से दर्शाया गया है, जो किसी भी value-judgement से मुक्त है। अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल में अतिवादी-राष्ट्रवाद की ज्वाला का भड़कना, उस ज्वाला पर कईयों का हाथ सेंकना और उसी ज्वाला से कई घरों का जल कर राख हो जाना पाठक को अतिवाद और राष्ट्रवाद, दोनों का दोबारा आकलन करने को मजबूर करता है। वहीं निखिलेश और संदीप के लिए स्त्रीवाद के अलग-अलग मायने होने और उसके अलग-अलग प्रयोग से यह भी साफ होता है कि कैसे विचारधाराओं का नाम लेकर ल...