गाय पर दुधारू राजनीती | Milking the political cow
'गाय होने' की उपमा अक्सर बेहद भोले और आज्ञाकारी लोगों के लिए दी जाती है। धार्मिक चित्रणों में भी गाय या बैल को ईश्वर के आज्ञाकारी आराधक के तौर पर दर्शाया जाता रहा है, जो अपने आराध्य के प्रभामंडल से अभिभूत दिखाई देते है। हरप्पा सभ्यता में भी बैल की छवि लिए हुए मोहरें मिलती है जो दर्शाती हैं की इस प्रजाति विशेष को मानव ने शुरू से ही आदरणीय स्थान दिया है।

एक समय में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह तक बैलों का जोड़ा था, जो की आगे चलकर गाय और बछड़ा भी हुआ। समय बीतता गया पर गाय का स्थान भारतीय संस्कृति में बरकरार रहा, चाहे वह आराध्य से गिरकर आवारा होने तक का ही क्यों न रहा हो। और आज समय ये है कि गाय का राजनैतिक दोहन भी उतनी ही असंवेदनशीलता के साथ किया जा रहा है, जितना कि इसका व्यावसायिक दोहन हो रहा है।


'बेटी बचाओ' की तर्ज़ पर 'गौ-रक्षा' अभियान भी खूब ज़ोर-शोर से चल रहा है और इस अभियान की अगुवाई करने वाले पशु-प्रेमी कम और राजनीती से प्रेरित जन ज़्यादा हैं। ग़ौरतलब है कि गैर-कानूनी बूचड़खानों में भर-भर कर लेजाई जाने वाली गायों से लदे वाहनों को रोक कर इन्हें ज़ब्त किया जा रहा है और अवैध बूचड़खानों को सील किया जा रहा है। इसी के साथ बीफ यानि गौ-माँस खाने के विरोध में माहौल बनाया जा रहा है, जिसके लिए गौ-माँस खाने वाले 'बलि के बकरे' ढूंढ-ढूंढ कर हलाल किये जा रहे हैं। इसी दिशा में जल्लीकट्टू जैसे आयोजनों को प्रतिबंधित करने की क़वायद भी की गयी है, जो आगे चलकर संस्कृति के ही नाम पर ख़ारिज भी कर दी गई।
यहीं ताज्जुब की बात है कि चमड़ा उद्योग और डेरी फार्मों से होने वाले प्रदूषण का ज़िक़्र इतनी ज़ोर-शोर से नहीं किया जाता क्योंकि ऐसा करने पर राजनैतिक पार्टियों के व्यवसायी और दलित वर्ग के वोट बैंक पर बुरा असर पड़ सकता है। 'पिंक रेवोल्यूशन' अब 'मीट-उत्पादन' से ज़्यादा 'स्त्री सशक्तिकरण' के लिए प्रयोग किया जा रहा है। हर देश-प्रेमी की दूकान के काउन्टर पर आपको गौ-सेवा का चंदा-बॉक्स रखा मिल जाएगा। राज्य सरकारें बड़ी तेज़ी से 'गौशाला पालिसी' लागू कर रही हैं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा देश-भक्त गौशाला खोलने के नाम पर फंड्स क्लेम कर सकें।
गौ-शालाओं से पहले क्या हमें अपने गाँव-शहरों में बेहतर पशु-चिकित्सा केंद्र और वेटेरनरी डॉक्टरों की ज़रूरत नहीं है ? गौ-रक्षा अभियान से पहले हमें अपनी गौ-माता के चरने की अतिक्रमित चरांदों को फिर से बहाल किये जाने की ज़रूरत नहीं लगती? सस्ता चारा और पशु-आहार पर सब्सिडी लागू करने के लिए उतनी शिद्दत से आवाज़ क्यों नहीं उठती जितनी गौ-माँस पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए उठती है? डेरी-उद्योग के ऐवज़ में चल रहे नकली दूध के कारोबार करने वालों की धरपकड़ के लिए इतनी प्रशासनिक फुर्ती क्यों नहीं दिखाई जाती? प्लास्टिक खाने के चलते रोज़ मरने वाली गौ-माताओं को देखते हुए प्लाटिक वेस्ट-डिस्पोजल के लिए कोई त्वरित पालिसी क्यों नहीं लागू की जाती ?
सच तो यही है कि राजनीती के चलते अगर आज गाय माता हो गयी है तो कल गधा भी बाप हो सकता है। अगर सचमुच पशु-रक्षा दलों की राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक आस्था गौ-हित में होती, तो सिर्फ राजनैतिक दोहन करने की बजाये पशु-पालन और पशु-कल्याण के व्यावहारिक मसलों पर सक्रियता दिखाई जाती। हम सब को एक बार धर्म और राजनीती के सतही मुद्दों से खुद को अलग करके तठस्थ होकर सोचने की ज़रूरत है ताकि हमारा या गौ-माता का और राजनैतिक दोहन न किया जा सके।
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