घर और बाहर | रवींद्रनाथ टैगोर

रवींद्रनाथ टैगोर की कृति 'घर और बाहर' के अलग-अलग रिव्यू पढ़ने के बाद से पूर्वाग्रह तो था पर राष्ट्रवाद और रिश्तों के ताने-बाने से बुनी इस कहानी को अपने विवेक से रेज़ा-रेज़ा खोलने की तलब थी, इसलिए खुद ही पढ़ी। कहानी किसी सूत्रधार या बाहरी नज़रिए से नहीं कही गई है बल्कि तीन प्रमुख किरदारों-बिमला, निखिलेश, संदीप के निजी पक्षों के माध्यम से  लिखी गयी है, जो समय और हालात के साथ बदलते रहते हैं। 
बिमला और निखिलेश के दाम्पत्य जीवन की संवेदनशील बारीकियों के चित्रण से लेकर अंग्रेज़ी संस्कृति का कुलीन ज़मींदारी परिवारों पर प्रभाव इसमें किरदारों के नज़रिए से दर्शाया गया है, जो किसी भी value-judgement से मुक्त है। अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल में अतिवादी-राष्ट्रवाद की ज्वाला का भड़कना, उस ज्वाला पर कईयों का हाथ सेंकना और उसी ज्वाला से कई घरों का जल कर राख हो जाना पाठक को अतिवाद और राष्ट्रवाद, दोनों का दोबारा आकलन करने को मजबूर करता है। वहीं निखिलेश और संदीप के लिए स्त्रीवाद के अलग-अलग मायने होने और उसके अलग-अलग प्रयोग से यह भी साफ होता है कि कैसे विचारधाराओं का नाम लेकर लोगों को जगाया भी जा सकता है और बरगलाया भी जा सकता है। औरत के लिए Social Exposure कितना जरूरी है, यह बात टैगोर ने उस दौर में रखी जब औरतें पतिव्रता होकर खुद को भाग्यशाली समझती थीं और विवाहेत्तर संबंधों के विषय में बात करना तक अनुचित माना जाता था; इसे मानवीय पहलु से समझना और सही ठहराना तो दूर की बात रही। इस कहानी में टैगोर ने बिमला का भटकाव बहुत बेहतरीन तरीके से चित्रित किया है। बिमला के लिए बाहरी दुनिया भी उतनी ही अनजान थी जितना घर में आया हुआ एक बाहरी आदमी, संदीप । सहज ही नए तजुर्बों से अभिभूत होकर वह बाहरी दुनिया और बाहरी आदमी के प्रति आकर्षित होती है , जो पहला पड़ाव है मगर भटकाव की भूल-भुलैया को पार कर वह आखिरकार अपने सच तक पहुँचती है, केवल अपने विवेक के सहारे; जो उसकी आत्म-निर्भरता का विकास है ! बिमला के भटकाव पर निखिलेश की बेबसी जायज़ थी पर पति-रूप में उस बेबसी पर उसकी इंसानियत की जीत बहुत प्रबल संदेश देती है। संदीप की बड़ी-बड़ी बातों में छिपा उसका खोखला स्वार्थी सच उसके प्रति ग्लानि: भाव  पैदा करता है। उस दौर में राष्ट्रवाद को नैतिकता की कसौटी पर आंकने का हौंसला करना एक क्रांतिकारी साहित्यिक पहल थी, जो टैगोर जैसे रचनाकार ही कर सकते थे।
स्त्रीवाद, राष्ट्रवाद, दाम्पत्य संबंधों या सामाजिक संरचना को नए सिरे से देखने के लिए आज भी 'घर और बाहर' जैसी कृति  प्रासंगिक है और बेहद ज़रूरी है।

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