पंजाब के पदचिन्ह | Footprints of Punjab

 
सिर्फ कहने को ही मेरा गाँव और शहर पंजाब में नहीं हैं ; बाकि बोली, पहनावा, खान-पान, लोक-गीत, रीति-रिवाज सब पंजाबियत की मिठास लिए हुए है ! हो भी क्यों न, पेप्सू रियासत की अनमिट छाप अब भी यहाँ पर बर-अक्स कायम है ! १९६६ में सिर्फ सूबे अलग हुए थे, पंजाबी सभ्याचार के टुकड़े तो १९४७ भी न कर सका था ! 
मुझे 'माँ-बोली' का असल मतलब तो हमेशा 'पंजाबी' ही समझ में आया क्योंकि माँ को हिंदी बोलते-बोलते पंजाबी ही बोलते देखते रही ; स्वाभाविक तौर पर कैसे माँ की ये जुबां, पंजाबी की चिकनी पगडंडियों पर भटक जाती थी; मानो पंजाब में छूटे अतीत को पंजाबी अक्षरों से बीन कर लाने की कोशिश कर रही हो ! ऐसा ही कुछ बचा-कुचा पंजाब पापा में भी धड़कते देखा जो कभी पंजाबी लोक-गीत सुनकर फूट कर रिसने लगता या कभी वडाली बंधुओं के गीत सुनकर फसलों की तरह झूम उठता ! 
मुझमें पंजाब के बीज यहीं घर से ही बोये गए पर ये बीज पौध बन कर तब उगने लगे जब मालवा के दिल में बसी अपनी यूनिवर्सिटी में दाखिला हुआ ! हरे-हरे खेतों से घिरी यूनिवर्सिटी तक आने वाला लंबा रास्ता कई छोटे-बड़े पंजाबी कस्बों गाँवों से होता हुआ गुज़रता था, जहाँ मलाईदार लस्सी की स्पेशल दुकानें, अहाते और पंजाबी ढाबों की लंबी कतारें थी ! कहीं खेतों के किनारे भट्टियों में बनते ताज़ा गुड़ की महक सिर में चढ़ती तो कहीं हाईवे पर हॉर्न बजाते मदमस्त ट्रक हवा की रफ़्तार से गुज़र जाते ! कहीं सड़कों पर सवारियों से ओवरलोडेड 'जुगाड़' यानि देसी ऑटो अपनी धुन में चले जाते और कहीं तूड़ी से लदे ट्रैक्टर सड़क पर अपना मालिकाना हक़ जमाते हुए निकलते ! कितनी ही बीबियाँ खेतों से घास या गांव से दूध का डोल लेकर जाती हुई दिखती थीँ ! पंजाबी गबरूओं को मैंने, शहर और गांव दोनों में ही, मुटियारों के पीछे बुलेट पर गेडियाँ मारते ही देखा ! 

हाँ, पंजाब को मैंने उड़ारी मार कर विदेश जाते भी देखा ! और परदेस में हाँफते हुए पंजाब को स्काइप, यशराज की फिल्मों और फेसबुक की नली से जड़ों से जुड़ते भी देखा ! GT रोड के किनारे खड़ी पुराणी सराय, क़िले और मीनारें खँडहर बन गईं, कच्चे कोठे ढा दिए गए, खेत बेच कर कॉलोनियाँ बसा दीं ; नहरें-नदियाँ लड़ाई के मैदान बन गईं और पक्के राग गाने वाले रागियों को पीछे धकेल कर रैप-सिंगर काले बादलों की तरह छा गए ! 
शिव कुमार बटालवी और साहिर लुधियानवी के बोल रूल गए, अमृता प्रितम जैसी कोई और बेटी नहीं जन्मी , सुरिंदर कौर की मादक आवाज़ भी अब दूर से आती हुई ही मालूम होती है ! 
डी.डी. जालंधर क्या अब भी टेलीकास्ट होता होगा ? 'पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड' में क्या अब भी रूटीन उतनी ही सुस्त गति से चलता होगा ? पटियाला के बाज़ारों से अब भी लोग परांदियाँ खरीदते होंगे ? सस्सी-पुन्नू और डाची वालों के किस्से कोई सुनता-सुनाता होगा ? सरहद पार वाले पंजाब से गले मिलने को इधर के पंजाब के दिल में क्या अब भी टीस उठती होगी ?
इन चमचमाते शहरों और फ़र्ज़ी 'हवेलियों' के पीछे बसे ख़ालिस पंजाब से आती हूक शायद इन सवालों का कोई जवाबी सुनेहा ले आये ! 


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