पूरक

...माँ घर पर रहती है। पुश्तैनी मकान के बड़े कमरों में ही घूमती रहती है। कोई मेहमान घर पर आता है तो तैयार होकर निकलती हैं, वरना मामूल के कामकाज से थकी-हारी मैले कपड़ों में ही रहती है। पर जब भी ज़िंदगी के किसी संजीदा मसले की बात करो तो जाने कहाँ से इतने गहरे फलसफे निकाल लाती है। लोग इनसे और यह लोगों से यह सोचकर नहीं मिलती कि ख्यालों में फर्क होगा और इसी संशय में बरसों से अकेले इसी मकान में अटकी हुई है....
...हाँ, मगर माँ के इस अकेलेपन में उनकी कुछ सहेलियाँ उनका साथ देती हैं जो बिलकुल उन्हीं के जैसी हैं। हिंदी साहित्य की पुरानी किताबें। यह अलमारी में ही पड़ी मिलती हैं। पुश्तैनी मकान के बड़े कमरों की शोभा बढ़ाती हैं। कोई मेहमान घर पर आता है तो निकाली जाती हैं,  वरना बुक-शेल्फ पर पड़ी धूल-मिट्टी से अटी रहती हैं। पर जब भी ज़िंदगी के किसी संजीदा मसले का हल ढूंढने लगो तो इनके सफहों से इतने गहरे फलसफे निकल आते हैं। आज लोग इन्हें यह सोचकर नहीं पढ़ते कि शायद अब सिर्फ अंग्रेजी तर्जुमे या सस्ते रिसाले ही निकलते होंगे और इसी संशय में हिंदी साहित्य को मुख्यधारा से अलग मान युवाओं ने इससे किनारा कर लिया है। 

... माँ रोज़ किसी किताब से कोई कहानी निकाल कर लेखक के तजुर्बों की जानी-पहचानी गलियों से गुज़रती हैं ! अल्फ़ाज़ की अंगुलियाँ थामे माँ , शाम की लंबी सड़क पर चले जाती हैं और कहानियाँ उन्हें ख़्वाबों की दहलीज़ तक छोड़ आती हैं, हर रात ! 
 ....माँ और हिंदी-साहित्य की किताबें अपने एकाकीपन में एक दूसरे का सहारा तलाश चुकी हैं ! अद्भुत है कि कैसे कभी-कभी ज़िंदा लोगों की मुर्दा दुनिया में बेजान किताबें भी हमसफ़र बन सकती हैं ! इस पड़ाव पर आकर ये सवाल बेमानी लगने लगता है कि साहित्य पाठक पर असर करता है या साहित्य पाठक से प्रभावित होता है क्योंकि दरअसल, साहित्य और पाठक ही पूरक हैं एक दूसरे के। एक के बिना दूसरा अधूरा है ! 

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