दिल्ली: पार्ट वन
मिट्टी, मीटर और मेट्रो के ज़िक्र से आगे निकलने पर दिल्ली अपना हिजाब खोलती है और शाहजहाँनाबाद की गलियों से होकर शाहदरा की बस्तियों तक फैली अपनी रियासत बड़ी ठाठ से हर आने वाले को दिखाती है। गाँव की तरह यहाँ कोई इख्लाक़ी ब्लैक एंड वाइट चश्मों से आपको नहीं देखता; यहाँ इंद्रधनुषी रंगीनियों को सड़कों पर, कालेजों में, क्लबों में बिखरे देखा जा सकता है। यहाँ कोई मुंसिफ नहीं है, सब मुसाफिर हैं, यूँ कहें कि दिल्ली मुसाफिरों का ही शहर है। अजनबियों की भीड़ में नई वाकबियत ढूँढती दिल्ली जल्दी जगती है, सारा दिन दौड़ती है और देर से सोती है। दिल्ली किसी का घर नहीं हुई, रजवाड़ों का गढ़ हुई, मुसाफिरों का रैन-बसेरा, मुहाजिरों का कैंप हुई, फौजियों का कैंट हुई, शादियों का टैंट हुई, इवेंट का शामियाना, दफ्तर हुई, बस्ती हुई पर घर नहीं हुई। संगदिल लोग होते गए और दिल्ली पर बार-बार बेवफाई का तगमा लगता रहा। ग़ालिब, ज़ौक, खुशवंत न होते तो शायद दिल्ली का हुस्न सिर्फ़ खाँसती हुई जर्जर इमारतें ही बयान कर पाती। मीनारें और मल्टीप्लेक्स पीठ से पीठ सटाए गुजरने वाले हुजूमों और हुकूमतों की गवाही देते खड़े हैं। चौक-चौराहों पर फ्लाईओवर-नुमा नाग कुंडली मार कर बैठ गए हैं। रोशनी और रौनक के बीजों से चाँदनी-चौक हर सड़क पर उग आया है। नीम-गुलमोहर के झूमते पेड़ों की कतारें कितनी ही दोपहरों को पैदल पैरों की पनाहगाह बनीं हैं । चाट-पकौड़ी के ठेलों से उठती दिलरुबा खुश्बू में बसती है दिल्ली। दरगाहों में गूँजती कव्वाली और हर दूसरे मोड़ पर ऊंघती कोतवाली में बसती है दिल्ली। सर्द रातों में सड़क किनारे सोते मजदूर के ख्वाब में चलती है दिल्ली। रूपहले पर्दे से लेकर नुक्कड़ नाटकों में खेली जाती है दिल्ली।
मोहब्बत के अहाते से मोहभंग के आश्रम तक जाने वाली एक लम्बी गली है दिल्ली। सब की कुछ लगने वाली रिश्तेदार है दिल्ली। पक्की यार है दिल्ली। कहीं उजड़ती कहीं गुलज़ार है दिल्ली।
मोहब्बत के अहाते से मोहभंग के आश्रम तक जाने वाली एक लम्बी गली है दिल्ली। सब की कुछ लगने वाली रिश्तेदार है दिल्ली। पक्की यार है दिल्ली। कहीं उजड़ती कहीं गुलज़ार है दिल्ली।
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