पत्रकारिता, सिनेमा और सच
देखना, पढ़ना और लिखना ऐसे माध्यम हैं जिनसे होकर हम चेतना की सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते हैं ! अपने इर्द-गिर्द हो रही गतिविधियों और घट रही घटनाओं से अचेत हम रूटीन ढर्रे पर चले जाते हैं; जब तक कोई विचार चिल्ला कर हमारा ध्यान अपनी तरफ न खींच ले, या कोई घटना किसी समाचारपत्र की सुर्खियाँ बन कर हमारी नींद न खोल दे या फिर कोई तजुर्बा हमारा हाथ पकड़ कर खुद को काग़ज़ों और स्याही के हवाले न कर दे ! ये तीनों माध्यम अपना असर बहोत देर और बहोत दूर तक छोड़ते हैं और नतीजतन, इन तीनों माध्यमों से जुड़े लोग यानि लेखक, पत्रकार और कलाकार भी सबसे ज़्यादा सामाजिक प्रभाव रखते हैं !
पत्रकारिता और सिनेमा हमेशा से आम-आदमी के जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा रहे हैं, क्योंकि ये माध्यम उसके अवचेतन को चेतना की रौशनी दिखाते रहे हैं ! पत्रकारिता और सिनेमा, दोनों का ही काम है सच बताना और दिखाना ! जहाँ पत्रकारिता सच को एक खबर की तरह पाठक /दर्शक तक पहुँचाती है वहीँ सिनेमा सच को एक सेलुलॉइड लिफ़ाफ़े में लपेट कर दर्शक के सामने रखता है; काम एक ही है, फ़र्क़ है तो सिर्फ अंदाज़-ए-बयाँ का !
आज के दौर में इन दोनों माध्यमों की क्षमता और असर इतना गहरा है कि पॉकेट में झूलते हमारे सेलफोन से लेकर बैडरूम की दीवार पर टंगे टीवी तक इन्ही का आधिपत्य स्थापित है ! पर व्यापारीकरण के इस भयंकर दौर में हर चीज़ पर एक प्राइस-टैग लगा दिया गया है और सच भी पैकेटों में बिकने लगा है, एक निर्धारित मूल्य पर ! और अमूमन, 'सच का विस्तार' करने वाले ये दो माध्यम भी 'सच का व्यापार' करने को विवश हैं ! गौरतलब है कि मसालेदार-चखना और इरोटिका, दोनों की बिक्री में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हो रहा है ! शायद इसी मार्किट ट्रेंड का अध्ययन कर सिनेमा और पत्रकारिता में भी मसाला और इरोटिका का तड़का लगा कर बेचा जा रहा है ! न्यूज़ चैनलों के एंकर की दहाड़ों से गूँजते ड्राइंग रूम्स और वेटिंग रूम्स ख़बरों /समाचारों की मंडी बन रहे हैं; वहीं अभिनेताओं के स्क्रिप्टेड डायलाग सुनने के बाद आवेश में बहती जनता, मल्टीप्लेक्सों से बाढ़ के पानी की तरह बाहर निकल रही है ! टी.आर.पी. के रेस-कोर्स पर दौड़ती पत्रकारिता और बॉक्स-ऑफिस कलेक्शन के दंगल में हाँफता सिनेमा, सच का वज़न नहीं उठा पा रहे; नतीजतन सच को पीछे छोड़ दर्शक से ही उसकी पसंदीदा झूठी कहानियां उधार लेकर उन्हें सच-सच बता कर दोबारा जनता को ही बेच रहे हैं !
ये वर्चुअल रेस चलती रहेगी क्योंकि यहाँ चमकीले पैकेटों में लिपटे झूठ बड़े ऊँचे दामों में बिक रहे हैं और बेचने वाले भरी-भरकम सच को लेकर नहीं दौड़ रहे, इसलिए ज़मीर को थकावट भी कम होती है !
पर जिस दिन झूठ की एयर-कंडीशनिंग से बाहर आना पड़ा और सच की धूप में चलना पड़ा, उस दिन क्या दर्शक और उसकी कमज़ोर चेतना औंधे-मुँह नहीं गिरेंगे ? ऐसे में जब दर्शक 'सच' की कड़वी दवा माँगेगा, तो पत्रकारिता और सिनेमा उसे क्या मुँह दिखाएंगे, जिन्होंने 'सच' को बहुत पहले ही पीछे छोड़ दिया था !
सवाल सच्चे हैं ! सोचना ज़रूरी है !
पत्रकारिता और सिनेमा हमेशा से आम-आदमी के जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा रहे हैं, क्योंकि ये माध्यम उसके अवचेतन को चेतना की रौशनी दिखाते रहे हैं ! पत्रकारिता और सिनेमा, दोनों का ही काम है सच बताना और दिखाना ! जहाँ पत्रकारिता सच को एक खबर की तरह पाठक /दर्शक तक पहुँचाती है वहीँ सिनेमा सच को एक सेलुलॉइड लिफ़ाफ़े में लपेट कर दर्शक के सामने रखता है; काम एक ही है, फ़र्क़ है तो सिर्फ अंदाज़-ए-बयाँ का !
आज के दौर में इन दोनों माध्यमों की क्षमता और असर इतना गहरा है कि पॉकेट में झूलते हमारे सेलफोन से लेकर बैडरूम की दीवार पर टंगे टीवी तक इन्ही का आधिपत्य स्थापित है ! पर व्यापारीकरण के इस भयंकर दौर में हर चीज़ पर एक प्राइस-टैग लगा दिया गया है और सच भी पैकेटों में बिकने लगा है, एक निर्धारित मूल्य पर ! और अमूमन, 'सच का विस्तार' करने वाले ये दो माध्यम भी 'सच का व्यापार' करने को विवश हैं ! गौरतलब है कि मसालेदार-चखना और इरोटिका, दोनों की बिक्री में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हो रहा है ! शायद इसी मार्किट ट्रेंड का अध्ययन कर सिनेमा और पत्रकारिता में भी मसाला और इरोटिका का तड़का लगा कर बेचा जा रहा है ! न्यूज़ चैनलों के एंकर की दहाड़ों से गूँजते ड्राइंग रूम्स और वेटिंग रूम्स ख़बरों /समाचारों की मंडी बन रहे हैं; वहीं अभिनेताओं के स्क्रिप्टेड डायलाग सुनने के बाद आवेश में बहती जनता, मल्टीप्लेक्सों से बाढ़ के पानी की तरह बाहर निकल रही है ! टी.आर.पी. के रेस-कोर्स पर दौड़ती पत्रकारिता और बॉक्स-ऑफिस कलेक्शन के दंगल में हाँफता सिनेमा, सच का वज़न नहीं उठा पा रहे; नतीजतन सच को पीछे छोड़ दर्शक से ही उसकी पसंदीदा झूठी कहानियां उधार लेकर उन्हें सच-सच बता कर दोबारा जनता को ही बेच रहे हैं !
ये वर्चुअल रेस चलती रहेगी क्योंकि यहाँ चमकीले पैकेटों में लिपटे झूठ बड़े ऊँचे दामों में बिक रहे हैं और बेचने वाले भरी-भरकम सच को लेकर नहीं दौड़ रहे, इसलिए ज़मीर को थकावट भी कम होती है !
पर जिस दिन झूठ की एयर-कंडीशनिंग से बाहर आना पड़ा और सच की धूप में चलना पड़ा, उस दिन क्या दर्शक और उसकी कमज़ोर चेतना औंधे-मुँह नहीं गिरेंगे ? ऐसे में जब दर्शक 'सच' की कड़वी दवा माँगेगा, तो पत्रकारिता और सिनेमा उसे क्या मुँह दिखाएंगे, जिन्होंने 'सच' को बहुत पहले ही पीछे छोड़ दिया था !
सवाल सच्चे हैं ! सोचना ज़रूरी है !
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