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Showing posts from November, 2016

बक़ा : कुछ देर और

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"काश ! सब रुक जाता। वक़्त, उम्र, जज़्बात। कुछ मोहलत और मिलती। बस, कुछ देर और।" वक़्त रेत की तरह हथेलियों से फिसलता है और दुनिया में सब फ़ना हुए जाता है। इंसान वक़्त की इसी बेरूख़ी के आगे बेबस है पर उसकी अना (अहम ) उसे हार मानने नहीं देती और वक़्त की ताक़त के आगे इंसान अपनी बक़ा की मज़बूत ख़्वाहिश खड़ी कर देता है।  'बक़ा' एक अरबी लफ्ज़ है जिसका मतलब  है 'बाकी/बकाया रहना' यानी 'To Remain'/'Survival'. ख़त्म होते रिश्ते या हाथ से छूटती हुई ज़िन्दगी को जाते-जाते जो ताक़त और ज़ोर से जकड़ती है, इस कोशिश में कि कोई सिरा पकड़ कर कुछ दूर और चल लिया जाए, वही बक़ा की ख्वाहिश है। ज़िन्दगी की आखिरी दहलीज़ पर खड़े हुए जो तमाम लोग अपनी जीवनियाँ (Autobiographies) लिखते हैं, ताकि कोई उनके तजुर्बे पढ़ सके, उनके जाने के बाद भी, ये ही है बक़ा की ख्वाहिश। यह बक़ा की ख्वाहिश ही थी जिसके चलते तमाम राजा-शहनशाह बड़े-बड़े किले, इमारतें और ताज-महल जैसे स्मारक बनवा गए, ताकि उनका नाम अमर रह सके, दुनिया में बाकी रह सके ! बैचलर-पार्टीज़ में अक्सर होने वाले दूल्हे-दुल्हन को अपना दिल खोल कर आशि...

पूरक

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...माँ घर पर रहती है। पुश्तैनी मकान के बड़े कमरों में ही घूमती रहती है। कोई मेहमान घर पर आता है तो तैयार होकर निकलती हैं, वरना मामूल के कामकाज से थकी-हारी मैले कपड़ों में ही रहती है। पर जब भी ज़िंदगी के किसी संजीदा मसले की बात करो तो जाने कहाँ से इतने गहरे फलसफे निकाल लाती है। लोग इनसे और यह लोगों से यह सोचकर नहीं मिलती कि ख्यालों में फर्क होगा और इसी संशय में बरसों से अकेले इसी मकान में अटकी हुई है.... ...हाँ, मगर माँ के इस अकेलेपन में उनकी कुछ सहेलियाँ उनका साथ देती हैं जो बिलकुल उन्हीं के जैसी हैं। हिंदी साहित्य की पुरानी किताबें। यह अलमारी में ही पड़ी मिलती हैं। पुश्तैनी मकान के बड़े कमरों की शोभा बढ़ाती हैं। कोई मेहमान घर पर आता है तो निकाली जाती हैं,  वरना बुक-शेल्फ पर पड़ी धूल-मिट्टी से अटी रहती हैं। पर जब भी ज़िंदगी के किसी संजीदा मसले का हल ढूंढने लगो तो इनके सफहों से इतने गहरे फलसफे निकल आते हैं। आज लोग इन्हें यह सोचकर नहीं पढ़ते कि शायद अब सिर्फ अंग्रेजी तर्जुमे या सस्ते रिसाले ही निकलते होंगे और इसी संशय में हिंदी साहित्य को मुख्यधारा से अलग मान युवाओं ने इससे किना...

दिल्ली: पार्ट वन

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मिट्टी, मीटर और मेट्रो के ज़िक्र से आगे निकलने पर दिल्ली अपना हिजाब खोलती है और शाहजहाँनाबाद की गलियों से होकर शाहदरा की बस्तियों तक फैली अपनी रियासत बड़ी ठाठ से हर आने वाले को दिखाती है। गाँव की तरह यहाँ कोई इख्लाक़ी ब्लैक एंड वाइट चश्मों से आपको नहीं देखता; यहाँ इंद्रधनुषी रंगीनियों को सड़कों पर, कालेजों में, क्लबों में बिखरे देखा जा सकता है। यहाँ कोई मुंसिफ नहीं है, सब मुसाफिर हैं, यूँ कहें कि दिल्ली मुसाफिरों का ही शहर है। अजनबियों की भीड़ में नई वाकबियत ढूँढती दिल्ली जल्दी जगती है, सारा दिन दौड़ती है और देर से सोती है। दिल्ली किसी का घर नहीं हुई, रजवाड़ों का गढ़ हुई, मुसाफिरों का रैन-बसेरा, मुहाजिरों का कैंप हुई, फौजियों का कैंट हुई, शादियों का टैंट हुई, इवेंट का शामियाना, दफ्तर हुई, बस्ती हुई पर घर नहीं हुई। संगदिल लोग होते गए और दिल्ली पर बार-बार बेवफाई का तगमा लगता रहा। ग़ालिब, ज़ौक, खुशवंत न होते तो शायद दिल्ली का हुस्न सिर्फ़ खाँसती हुई जर्जर इमारतें ही बयान कर पाती। मीनारें और मल्टीप्लेक्स पीठ से पीठ सटाए गुजरने वाले हुजूमों और हुकूमतों की गवाही देते खड़े हैं। चौक-चौराहो...

पत्रकारिता, सिनेमा और सच

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देखना, पढ़ना  और लिखना ऐसे माध्यम हैं जिनसे होकर हम चेतना की सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते  हैं ! अपने इर्द-गिर्द हो रही गतिविधियों और घट रही घटनाओं से अचेत हम रूटीन ढर्रे पर चले जाते हैं; जब तक कोई विचार चिल्ला कर हमारा ध्यान अपनी तरफ न खींच ले, या कोई घटना किसी समाचारपत्र की सुर्खियाँ बन कर हमारी नींद न खोल दे या फिर कोई तजुर्बा हमारा हाथ पकड़ कर खुद को काग़ज़ों और स्याही के हवाले न कर दे ! ये तीनों माध्यम अपना असर बहोत देर और बहोत दूर तक छोड़ते हैं और नतीजतन, इन तीनों माध्यमों से जुड़े लोग यानि लेखक, पत्रकार और कलाकार भी सबसे ज़्यादा सामाजिक प्रभाव रखते हैं !  पत्रकारिता और सिनेमा हमेशा से आम-आदमी के जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा रहे हैं, क्योंकि ये माध्यम उसके अवचेतन को चेतना की रौशनी दिखाते रहे हैं ! पत्रकारिता और सिनेमा, दोनों का ही काम है सच बताना और दिखाना ! जहाँ पत्रकारिता सच को एक खबर की तरह पाठक /दर्शक तक पहुँचाती है वहीँ सिनेमा सच को एक सेलुलॉइड लिफ़ाफ़े में लपेट कर दर्शक के सामने रखता है; काम एक ही है, फ़र्क़ है तो सिर्फ अंदाज़-ए-बयाँ का !  आज के दौर में इन दोनों माध्यमो...