राजा और फ़कीर की यारी और विश्व बंधुत्व की नींव


• राजपुताना में खेतड़ी ठिकाणा के शेखावत वंश के शासक महाराजा अजीत सिंह बहादुर और (पहले) स्वामी बिबिदीशानंद के नाम से जाने जाने वाले साधु नरेंद्र दत्ता के बीच रही अनोखी दोस्ती की कहानी आज जानने योग्य है।


• कहा जाता है कि नरेंद्र अपने जीवनकाल में केवल तीन बार - 1891, 1893 और 1897 में अजीत सिंह से मिले थे और फिर भी उनके साथ एक बहुत करीबी रिश्ता विकसित किया।

•नरेंद्र, श्री रामकृष्ण के भक्त, 1888 में एक घुमंतू साधु के रूप में बेलूर से निकले थे। राजा अजीत सिंह बहादुर उनके शिष्य बन गए और राजा के सुझाव पर ही नरेंद्र अपना नाम स्वामी विवेकानंद रखने और केसरिया बाणा & राजस्थानी शैली की पगड़ी (साफ़ा) धारण करने के लिए सहमत हुए, जो आगे चलकर उनकी ट्रेडमार्क पहचान बन गई। 


• 22 नवंबर, 1898 में राजा अजीत सिंह को लिखे एक पत्र में विवेकानंद लिखते हैं, "मुझे अपना मन आपके सामने खोलने में जरा भी संकोच नहीं है और मैं आपको इस जीवन में अपना एकमात्र दोस्त मानता हूं"।
• अजीत सिंह द्वारा प्रदान की गई वित्तीय सहायता से ही उनके मित्र नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में भाग ले सके।


• अपने मित्र की आर्थिक स्थिति को जानने के बाद, 1891 से अजीत सिंह ने कोलकाता में विवेकानंद के परिवार को ₹100 का मासिक वजीफा भेजना शुरू किया।

• गौरतलब है कि शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन से 12 दिसंबर 1897 को भारत में खेतड़ी लौटने पर स्वामी विवेकानंद का खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह ने भव्य स्वागत किया था। उस समय 40 मण देसी घी के दीए जलाकर खेतड़ी में दिवाली मनाई गई थी।

• विवेकानंद ने खेतड़ी में रामकृष्ण मिशन की भी स्थापना की थी, जहां आज भी 'विरासत दिवस' के रूप में स्वामी विवेकानंद और खेजड़ी नरेश के संबंधों को याद कर सालाना जश्न मनाया जाता है।

• स्वामी विवेकानंद का ही कथन है, "भारत की उन्नति के लिए जो थोड़ा-बहुत मैंने किया है, वह मैं नहीं कर पाता यदि खेतड़ी के राजा अजीतसिंह मुझे नहीं मिल पाते।"

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