मातृभाषा की मृगतृष्णा

अभी हालही में राजस्थान में राहुल गांधी ने कहा,"अगर आप बाकी दुनिया के लोगों से बात करना चाहते हैं, तो हिंदी नहीं चलेगी, अंग्रेजी चलेगी। हम चाहते हैं कि गरीब किसानों और मजदूरों के बच्चे जाएं और अमरीकियों के साथ प्रतिस्पर्धा करें और उनकी भाषा का उपयोग करके उन्हें जीतें।"

ऐसे ही 11 अक्टूबर, 1967 के विदुथलाई के एक संपादकीय लेख में, पेरियार ने तमिल को "काटुमिरांडी मोझी" कहा, जिसका अर्थ है बर्बर भाषा। उन्होंने अपने जीवनकाल में एक बार नहीं बल्कि कई बार तमिल का एक 'बर्बर भाषा' के रूप में उल्लेख किया है। वह चाहते थे कि संचार के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का उपयोग हो। उन्होंने तो यहां तक ​​कहा कि 'तमिल एक ऐसी भाषा है जो भीख मांगने के काम भी नहीं आती'।

वहीं 2019 में मेरे दिल-अज़ीज़ पंजाबी गायक गुरदास मान ने कह दिया था कि पंजाबी अगर 'मां' बोली है तो हिंदी भी 'मासी' है; साथ ही one nation-one language की भी वकालत कर दी थी; जिसके बाद पंजाब भर में उनको 'पंजाबी का गद्दार' घोषित कर उनकी खूब आलोचना भी हुई थी। 

वैसे One nation one language के कट्टर समर्थक नेतागण भी गैर-हिंदी-भाषी राज्यों में जाकर अपने रैलियों में एक अनुवादक ज़रूर रखते हैं ताकि लोकल ज़ुबान में उनकी बात जन-जन तक पहुंच सके। 

देखा जाए तो अपनी मातृभाषा को लेकर भावनात्मक लगाव कोई भौगोलिक स्थिति भी कम नहीं कर सकती, यह देखने के लिए ऑस्ट्रेलियन सरकार का ताज़ा फैसला देखिए, जिसमें बढ़ती पंजाबी भाषी जनसंख्या के मद्देनजर ऑस्ट्रेलिया के सरकारी स्कूलों में पंजाबी भाषा को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।

ऐसे ही लंदन की ट्यूबरेल के व्हाइट-चेपल स्टेशन पर अंग्रेजी के साथ बांग्ला भाषा में स्टेशन के नाम लिखे जाने पर उत्साहित ममता बनर्जी ने भी इसे 1000 साल पुरानी बांग्ला भाषा के भूगौलीकरण का सबूत बताया था।

अभी पीछे कुछ लोग इसी बात पर झूमते दिखे कि भोपाल में एक क्रिकेट मैच करवाया गया जहां संस्कृत में कमेंट्री की गई। हालांकि संस्कृत किसी की मां-बोली नहीं है और लंबे समय तक एक वर्ण-विशेष का ही एकाधिकार रही; जन-साधारण तक पहुंची ही नहीं। (वैसे आज जब संस्कृत का जनतांत्रिकरण हो चुका है तो सबको चाहिए कि संस्कृत सीखकर इस ऐतिहासिक अन्याय का बदला लें और संस्कृत में लिखे गए सब धर्म ग्रंथों का आशय स्वयं समझें।)

विश्व हिंदी दिवस से ज़्यादा अगर एक दिन 'मातृभाषा दिवस' के तौर पर मनाया जाए, जिसमें सभी अपनी-अपनी मातृभाषा का प्रचार-प्रसार करें, मातृभाषा की आलोचना और पुनर्वोलकन करें, शायद तभी भाषा का लोकतांत्रिकरण असल मायने में होगा। हिंदी के प्रति द्वेषभाव भी शायद सभी दूसरी भाषाओं को समान सम्मान देकर ही कम हो सकता है। अव्वल तो हिंदी (थोपने) को अस्मिता का हथकंडा बनाना बंद करना चाहिए। साथ ही मातृभाषा के मोह को अपने पांव का खूंटा भी बनने नहीं देना है, जो आपको आगे बढ़ने से रोके।

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