मिथ्या की विषबेल को काटता जनचेतना का इतिहास : 'गुर्जरदेश: इतिहास और मिथकों में घमासान' (पुस्तक समीक्षा)
पहचान की राजनीति ( Identity Politics ) के इस दौर में इतिहास एक ऐसी पूँजी ( Capital ) बन गया है जिसपर अपना-अपना दावा करते और जगह तलाशते हुए लगभग सभी समुदाय एक Culture War का हिस्सा बन गए हैं। Post Truth के इस युग में प्रायः इतिहास का पुनःलेखन देखने को मिलता है, जिसमें नए नायक गढ़ना और ऐतिहासिक पात्रों की पहचान को सुविधा अनुसार गड्डमड कर देना भी आम हो गया है। इसी कड़ी में पनपी है गुर्जर (प्रतिहार) साम्राज्य की जातीय पहचान पर बहस, जिसने देखते ही देखते 'क्षत्रिय बनाम गुज्जर द्वंद' का रूप ले लिया। इसी द्वंद्व पर ससंदर्भ पूर्णविराम लगाने की नीयत से लिखी किताब ' गुर्जरदेश : इतिहास और मिथकों में घमासान ' पढ़ने का मौका मिला। इस किताब को लिखा है वीरेंद्र सिंह राठौड़ ने, जिन्होंने पूर्व में लिखी अपनी किताबों और आलेखों के ज़रिए अपनी पहचान एक विश्वनीय इतिहास अन्वेषक के तौर पर पुख़्ता की है। लेखक का कहना है: "इतिहास निर्माण अपने साथ एक राजनैतिक व सामाजिक पूंजी बनाते हुए चलता है। दर्जनों मिथक फैलाने का उद्देश्य अनैतिक तरीके से यही पूंजी प्राप्त करना है। Course cor...