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Showing posts from 2023

मिथ्या की विषबेल को काटता जनचेतना का इतिहास : 'गुर्जरदेश: इतिहास और मिथकों में घमासान' (पुस्तक समीक्षा)

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पहचान की राजनीति ( Identity Politics ) के इस दौर में इतिहास एक ऐसी पूँजी ( Capital ) बन गया है जिसपर अपना-अपना दावा करते और जगह तलाशते हुए लगभग सभी समुदाय एक Culture War का हिस्सा बन गए हैं। Post Truth के इस युग में प्रायः इतिहास का पुनःलेखन देखने को मिलता है, जिसमें नए नायक गढ़ना और ऐतिहासिक पात्रों की पहचान को सुविधा अनुसार गड्डमड कर देना भी आम हो गया है।  इसी कड़ी में पनपी है  गुर्जर (प्रतिहार) साम्राज्य की जातीय पहचान पर बहस, जिसने देखते ही देखते 'क्षत्रिय बनाम गुज्जर द्वंद' का रूप ले लिया। इसी द्वंद्व पर ससंदर्भ पूर्णविराम लगाने की नीयत से लिखी किताब ' गुर्जरदेश : इतिहास और मिथकों में घमासान ' पढ़ने का मौका मिला। इस किताब को लिखा है वीरेंद्र सिंह राठौड़ ने, जिन्होंने पूर्व में लिखी अपनी किताबों और आलेखों के ज़रिए अपनी पहचान एक विश्वनीय इतिहास अन्वेषक के तौर पर पुख़्ता की है। लेखक का कहना है: "इतिहास निर्माण अपने साथ एक राजनैतिक व सामाजिक पूंजी बनाते हुए चलता है। दर्जनों मिथक फैलाने का उद्देश्य अनैतिक तरीके से यही पूंजी प्राप्त करना है। Course cor...

राजपूत और भारतीय वाम राजनीति

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भारतीय राजनीति मुख्य रूप से जाति और धर्म के इर्द-गिर्द केंद्रित है और आमतौर पर जनता केंद्रित मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है।दुख की बात यह है कि मतदाताओं को भी इस राजनीतिक प्रवृत्ति से कोई फर्क नहीं पड़ता, इसलिए भारतीय राजनीति ने अपने दृष्टिकोण में कोई आमूल-चूल परिवर्तन नहीं देखा है । 'विचारधारा की राजनीति' को कई कारणों से पूर्णतः स्वीकार नहीं किया गया है और शायद यही कारण है कि भारतीय दक्षिणपंथी और वामपंथी खुले तौर पर वैचारिक मैदान पर नहीं खेलते हैं। भारतीय दक्षिणपंथ के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है, लेकिन वामपंथ या तो अपने सत्ता-विरोधी रुख या अपनी सक्रियता की राजनीति के कारण निशाने पर रहता है। आज हम भारतीय वामपंथ के एक और दिलचस्प पहलू पर प्रकाश डालना चाहते हैं, जहां हम भारतीय वामपंथ और भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे पुराने मार्शल समुदाय, राजपूतों (क्षत्रिय) के बीच संबंधों का विश्लेषण करते हुए बिंदुओं को जोड़ेंगे।  भारतीय वामपंथ और राजपूतों के बीच सामान्य समीकरण काफी हद तक नकारात्मक रहे हैं । निर्भीक आत्म-जागरूक राजपूत न तो वामपंथी दलों और सक्रियता में लीन मि...

आखिरी इंतज़ार

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ज़रूरी नहीं कि तंग गलियों में रहने वालों की सोच भी तंग ही हो! मेरे मुहल्ले की गलियां बेशक बारीक थीं, मगर वहां के लोगों की सोच काफ़ी खुली हुआ करती थी, वो भी 90 के दशक में, जब सोशल मीडिया का इतना प्रभाव घर-घर नहीं पहुंचा था। गली में अगल-बगल हिंदू मुसलमान ईसाइयों सिखों के मकान थे और सब अपने-अपने तीज त्योहार मिलजुल कर मनाते थे। क्रिसमस से पहले मास की तैयारी करते रोबिन और रवीना मसीह की आवाज़ उनके तीसरे माले वाले घर की खिड़की से पूरे पड़ोस में गूंजती। ईद पर मिट्ठू और शबनम आंटी सेवइयां लेकर पूरी गली में बांटते। मिसेज़ वेल्सले के कैंसर के इलाज के लिए मोहल्लेवालों ने मिलकर पैसा जुटाया था। कोहली अंकल को गुरुपूरब पर हर साल पटाखे हमारी ओर से जाते। 15 अगस्त के लड्डू सलमान टेलर और भल्ला केमिस्ट खुद विष्णु हलवाई से बनवाकर बांटते। कुलमिलाकर एक हंसता खेलता पड़ोस था।  यह बता दूं कि स्कूल के दिनों से ही मैं लेखक बनना चाहती थी और यह भी चाहती थी कि एक प्रकाशन संस्थान शुरू करूं ताकि अलग-अलग विधाओं से जुड़े लेखकों से मेलजोल हो सके। एक 8वीं क्लास की बच्ची के लिए अपनी ख्याली दुनिया में तरह तरह ...

फूलन बनाम बैंडिट क्वीन

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दस्यु उन्मूलन अभियान के पीछे की राजनैतिक तिकड़में टटोलते हुए फूलन देवी का केस और उसके जीवन पर कथित रूप से आधारित फ़िल्म 'बैंडिट क्वीन ' पर चर्चा करना अत्यावश्यक हो जाता है। आज जब बेहमई कांड के आखिरी चश्मदीदों और पीड़ितों के परिवारों को न्याय की बाट जोहते दशकों बीत गए हैं, आज जब फूलन देवी के कत्ल का इंसाफ़ नहीं हो सका है, आज जब फूलन और उस जैसे कई दस्यु राजनैतिक पूंजी की तरह चूस कर फेंक दिए गए हैं, तब और ज़रूरी हो जाता है कि फूलन को हथियार बनाकर सियासी शिकार करने वाली ताकतों की शिनाख्त की जाए।  मेरा सच? तेरा सच? या सिर्फ़ सच ? दिल्ली में बैंडिट क्वीन की प्रीमियर स्क्रीनिंग में, शेखर कपूर ने इन शब्दों के साथ फिल्म की शुरुआत की: " मेरे पास सत्य और सौंदर्यशास्त्र के बीच एक विकल्प था। मैंने सत्य को चुना, क्योंकि सत्य शुद्ध है।" शेखर कपूर और बॉबी बेदी कृत 'बैंडिट क्वीन' का प्रचार ऐसे किया गया मानो फ़िल्म का धरातल 24 कैरेट सच पर आधारित हो। लेकिन सनद रहे कि बैंडिट क्वीन के रिलीज़ के खिलाफ़ फ़िल्म की मुख्य पात्र फूलन देवी ने आत्मदाह की धमकी दे दी थी क्योंकि...

रानी पद्मावती : आत्म-संदेह का अकादमिक बीजारोपण

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  एक्टिविस्ट एडवर्ड स्नोडेन का कथन है , " पूरा तंत्र इस विचार के इर्द - गिर्द घूमता है कि अधिकांश लोग उसी बात पर यकीन करने लगते हैं, जिसे बार-बार और ज़ोर से दोहराया जाता है। " हम अक्सर इतिहासकारों को ‘ गैर-इतिहासकारों द्वारा इतिहास-लेखन’ के बारे में शिकायत करते देखते हैं, लेकिन मुझे आश्चर्य है कि कोई भी उन पक्षपाती इतिहासकारों के बारे में शिकायत क्यों नहीं करता है, जो अपने मनगढंत अनुमानों या 'ऐतिहासिक कल्पनाओं' के बाबत्  इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं?  हाल ही में ' रसकपूर ' पर एक ' ऐतिहासिक उपन्यास ' दर्शकों और आलोचकों को आकर्षित कर रहा है, जिसमें एक ऐसी तवायफ की कहानी है, जिसे राजसी व्यवस्था का शिकार होना पड़ा. लेकिन इस ‘ऐतिहासिक गद्य’ को हाथोंहाथ लेने वाले यही आलोचक यह घोषणा करते मिलेंगे कि राजपूत रानी पद्मावती ( पद्मिनी ) का चरित्र ' काल्पनिक ' था और उस ' कथा ' में शायद ही कोई तथ्य था। क्या यह हैरतअंगेज़ करने वाली बात नहीं है कि कैसे पद्मावती जैसे एक स...