आखिरी इंतज़ार


ज़रूरी नहीं कि तंग गलियों में रहने वालों की सोच भी तंग ही हो! मेरे मुहल्ले की गलियां बेशक बारीक थीं, मगर वहां के लोगों की सोच काफ़ी खुली हुआ करती थी, वो भी 90 के दशक में, जब सोशल मीडिया का इतना प्रभाव घर-घर नहीं पहुंचा था। गली में अगल-बगल हिंदू मुसलमान ईसाइयों सिखों के मकान थे और सब अपने-अपने तीज त्योहार मिलजुल कर मनाते थे। क्रिसमस से पहले मास की तैयारी करते रोबिन और रवीना मसीह की आवाज़ उनके तीसरे माले वाले घर की खिड़की से पूरे पड़ोस में गूंजती। ईद पर मिट्ठू और शबनम आंटी सेवइयां लेकर पूरी गली में बांटते। मिसेज़ वेल्सले के कैंसर के इलाज के लिए मोहल्लेवालों ने मिलकर पैसा जुटाया था। कोहली अंकल को गुरुपूरब पर हर साल पटाखे हमारी ओर से जाते। 15 अगस्त के लड्डू सलमान टेलर और भल्ला केमिस्ट खुद विष्णु हलवाई से बनवाकर बांटते। कुलमिलाकर एक हंसता खेलता पड़ोस था। 

यह बता दूं कि स्कूल के दिनों से ही मैं लेखक बनना चाहती थी और यह भी चाहती थी कि एक प्रकाशन संस्थान शुरू करूं ताकि अलग-अलग विधाओं से जुड़े लेखकों से मेलजोल हो सके। एक 8वीं क्लास की बच्ची के लिए अपनी ख्याली दुनिया में तरह तरह की कल्पनाएं बुनने की आज़ादी होती है। हर कल्पना को सच समझकर जीने का लाइसेंस होता है। मेरे ख्यालों में मेरा पहाड़ी कस्बा ही मेरे लिए लंदन जैसा था, जिसकी दिसंबर की कोहरे से सनी सुबहों को मैं अपने फौजी बूट टपटपाती हुई स्कूल बस पकड़ने के लिए जाया करती थी। 

लगभग उन्हीं दिनों एक रहस्यमय औरत का हमारे पड़ोस में आकर रहना हुआ। हमारे घर के पीछे वाले प्लॉट पर एक मकान की तामीर का काम तो लगभग एक साल से चल रहा था पर अब वहां एक अकेली औरत आकर रहने भी लगी थी। यह नया मकान हमारे आजू-बाजू के मकानों के मुकाबले आधुनिक था। कांच की बिना जंगले वाली बड़ी खिड़कियां और आगे एक छोटा सा लॉन। अंदर एक बिना दीवारों दरवाजे वाला रसोईघर और एक बड़ा सा डाइनिंग टेबल और उसपर लटकता हुआ एक पीली रोशनी वाला लैंप। अकसर शाम को छत पर टहलते हुए मैं छुपछुपकर उस मकान को देखती, ताकि उस रहस्यमई औरत की एक झलक दिख जाए। घर की सब लाइटें ऑन रहा करतीं पर वह औरत कम ही दिखाई देती। एक दिन अंधेरा होने के बाद तक छत पर रहने पर मैंने देखा कि वह औरत घर के अंदर भी पर्स अपने कंधे पर लटकाए हुए घूम रही थी। शायद बदहवासी में कहीं से आकर उतारना भूल गई हो या शायद कहीं जा रही हो। पर मेरा मन उस देखकर अलग अलग कल्पनाएं और कहानियां बुनता रहता, कयास लगाता रहता।

अलसुबह स्कूल जाते हुए अब वह औरत मुझे गली में दिखने लगी थी। वह भी सुबह अपना बड़ा सा फर वाला काला ओवरकोट पहनकर कहीं जा रही होती थी। उसके इत्र की सुहानी खुशबू से पूरी गली महक जाती। उसके हाथ में एक गुलाब का फूल होता और कंधे पर पर्स। उसके पीछे जाने का तो समय और सवाल ही नहीं था पर मैं इसी सोच में हल्कान रहती कि रोज़ सुबह वह जाने कहां जाती होगी।

मेरी एक सहेली, जो हमारे मकान मालिक की बेटी भी थी, काफी सामाजिक और घुमक्कड़ बच्ची हुआ करती थी। किराया लेने उसी को सब किराएदारों के घर भेजा जाता था इसीलिए उसे पत्ते-पत्ते और बूटे-बूटे की खबर रहती थी। एक दिन शाम को मैंने खेलते हुए उससे पूछ ही लिया, "ऋतु! ये पीछे वाले मकान में जो आंटी रहती हैं, यह कौन हैं?"

ऋतु ने मुझे ऐसे देखा मानो किसी नौसीखिए की गुस्ताखी पर कोई सीनियर उसे हड़काने के लिए घूरता है, "तुझे इतना भी नहीं पता? कौनसी दुनिया में रहती है तू? सारा दिन बस अंदर बैठकर पता नहीं क्या लिखती रहती है! तभी मैं कहती हूं मेरे साथ घूमा फिरा कर।"

"यार ऋतु, पहले बता। यह आंटी हैं कौन? पहेलियां मत बुझा!"

ऋतु ने अपने 'दिव्यज्ञान' की शेखी बघारते हुए कहा, "यह मिसेज टिवाना हैं। यह लेखक हैं। पहले प्रोफेसर थीं चंडीगढ़ में। अब यहीं रहने आ गई हैं!"

लेखक? हमारी गली में ? हमारे अपने पड़ोस में? मानो मैं तो यह सुनकर धन्य ही हो गई! मेरे मन में कल्पनाएं और जोर से हिलोरे लेने लगीं। अगर मैं इनसे मिलूंगी तो इन्हें अपनी सब कहानियां दिखाऊंगी, जो मैंने अपनी डायरियों में लिख रखी हैं। हो सकता है यह मुझे पढ़ने के लिए कुछ किताबें भी दे दें। यह क्या अमृता प्रीतम को जानती होंगी? क्या पता इनके यहां खुशवंत सिंह जैसे लेखकों का भी आना-जाना हो? मैंने मन ही मन मिसेज टिवाना से जल्द से जल्द मिलने का मनसूबा तैयार कर लिया। 

मगर थी तो मैं अंतर्मुखी स्वभाव की ही। संयोग से अगले कुछ दिन बाद ही मिसेज टिवाना मुझे अपना गेट बंद करके मॉर्निंग वॉक पर जाती हुई मिलीं पर एक मुस्कान देने के अलावा मैं उनसे कुछ और कहने सुनने की हिम्मत न जुटा पाई। 

यही सिलसिला चलता रहा। स्कूल से आते-जाते हुए मैं बड़े कौतूहल से उनके मकान की ओर देखती। कई बार वह अपने लॉन में बैठकर चाय पीती दिखतीं तो कई बार अपने छोटे से कुत्ते के पीछे भागती हुई। कई बार उनके गेट पर ताला झूलता दिखता। कई बार परचून की दुकान वाला लड़का उनके यहां सामान छोड़कर आता हुआ दिखता। पर न तो कभी कोई बड़े लेखकों की पार्टी होती दिखी, और न कोई साहित्यिक हलचल हुई। बस, एक सवाल टंगा रहता कि मिसेज टिवाना सुबह तैयार होकर कहां जाती हैं!

कोहली अंकल की पत्नी हमारे घर कभी कभार ही आती थीं, वह भी जब कोई काम होता; हालांकि कोहली अंकल तो सुबह शाम हमारे ही घर पसरे रहते थे। आंटी को देखकर इस बार मैं थोड़ी खुश थी क्योंकि मम्मी का कहना था कि मिसेज कोहली और मिसेज टिवाना में दोस्ती थी। मैंने सोचा बातों-बातों में मिसेज टिवाना के बारे में पूछ लूंगी।

"आंटीजी। आप मिसेज टिवाना को जानते हो? यह जो हमारे पीछे वाले मकान में रहती हैं!"

"हां, जानना क्या है। मेरी सहेली हैं। हम लोग रोज़ रेलवे स्टेशन तक साथ वॉक करते हैं।"

मैं अब समझी, मिसेज़ टिवाना रोज सुबह कोहली आंटी के साथ रेलवे स्टेशन तक वॉक करने जाती हैं। ऐसा लगा मानो मार्च आते-आते गली और मिसेज टिवाना की कहानी पर से कोहरा छंटने लगा था।

मेरे पेपर खत्म हुए और सेशन पूरा होने पर हमारी छुट्टियां हो गईं। मामा घर पर आए तो मुझे अपने साथ ननिहाल ले गए। वहीं खेलकूद और घूमने फिरने में मैं मिसेज टिवाना को भूल भी गई। डेढ़ महीने बाद अपनी गली में लौटी तो देखा उनके गेट पर ताला जड़ा है। घर पहुंचने पर सबसे पहले अपनी छत पर जाकर उनके घर की तरफ़ देखना चाहा पर उधर कोई हलचल नहीं थी, ऊपर छत पर कोई कपड़े भी नहीं सूख रहे थे; जिससे लगा कि घर पर कोई नहीं है। छुट्टियों में अपनी डायरी में मैंने कुछ नई कहानियां लिखी थीं, अब आकर सोचा कि अगर मिसेज टिवाना को दिखाती तो वह कितनी मुतासिर होतीं मुझसे। ख़ैर, अपने नए सेशन की तैयारी में नई किताबों पर जिल्दें चढ़ाने और वर्दी तैयार करने में मैं भी व्यस्त हो गई। 

तकरीबन हफ्ते बाद कोहली अंकल घर पर आए और पापा को बताने लगे कि मिसेज टिवाना को दिल का दौरा पड़ा था और उनका छोटा बेटा उन्हें लेकर अमरीका जा रहा है और यह मकान बेच रहा है। खरीददार की तलाश जल्दी करनी है, तो अगर आपको खरीदना हो तो बताइए। पापा ने यह आकर मम्मी को बताया तो मकान से पहले मुझे मिसेज टिवाना का ख्याल आया। अकेली औरत को दिल का दौरा पड़ा होगा तो इस पराई दुनिया में उन्हें किसने संभाला होगा, उन्हें किसने हस्पताल पहुंचाया होगा, उनके बेटे ने आने में कितना समय लगाया होगा और उनका बेटा अपनी मां से इतना दूर क्यों रहता होगा! बार-बार मैं छत पर जाकर उनके घर को देखती और सोचती कि इतने प्यार से बनाए इस घर को कैसे बेहोशी और कमज़ोर हालत में मिसेज टिवाना को छोड़ना पड़ रहा है। बाग के पौधों को किसी ने पानी तक नहीं दिया है और जो घर हमेशा रोशनी से जगमगाता था, आज कैसे अंधेरे में डूबा है। 

खैर, सुनने में आया कि उनके मकान को किसी लाला ने खरीद लिया और उसे बांस की सीढ़ियों और टोकरियों का गोदाम बना लिया। देखते-देखते उनके बाग को प्लॉट बनाकर बेच दिया गया और उसकी जगह एक माचिसनुमा इमारत खड़ी कर दी गई, जिसके कद से मिसेज टिवाना का घर दिखाई देना भी बंद हो गया। ऐसा लगा मानो किसी दुर्दांत कहानी की तरह मिसेज टिवाना का रहस्यमई किस्सा भी खत्म हुआ। 

छुटपन में जो मकान और गालियां हमें दुनिया जितनी बड़ी लगती हैं, उम्र के साथ-साथ बढ़ते हुए वह भी छोटी पड़ने लगती हैं। तो हुआ यूं कि बड़े मकान में शिफ्ट होने के चलते कुछ सालों बाद वो गली हमसे भी छूट गई। 

बड़े साल बाद एक दिन चंडीगढ़ में एक दुकान पर किताबें छांटते हुए किसी 'टिवाना' की लिखी किताब पर अचानक नज़र पड़ी। मन में एक बिजली सी कौंधी कि कहीं यह उन्हीं मिसेज टिवाना की किताब तो नहीं! किताब उठाकर देखा तो पीछे लेखक के परिचय मे वाकई हमारी मिसेज टिवाना का ही नाम छपा था। मुझे उन्हें यूं अचानक फिर से पाकर ऐसी खुशी हो रही थी मानो कोई दबा खज़ाना हाथ लग गया हो। ऐसा लगा मानो सदियों से उलझी एक गुत्थी पल भर में खुल गई थी। पर ध्यान से पढ़ा तो पता चला कि मिसेज टिवाना का कुछ महीने पहले ही अमरीका में देहांत हो गया था। उन्होंने अपने एक ब्लॉग का पता किताब के परिचय में दिया हुआ था। घर जाते ही मैंने लैपटॉप पर उनका ब्लॉग ढूंढा और पढ़कर घंटों रोती रही। मेरे मन की भादों जैसे आज ही आंखों से बरस रही थी। उन्होंने लिखा था:

"मौसम तो मन के होते हैं। नए मकानों में जाने से रूह की पुरानी दरारें कहां भरती हैं। मन की तब्दीली के लिए उस छोटे से पहाड़ी कस्बे में रहने पर भी मन का मौसम नहीं बदला। मेरे बड़े बेटे और पति की मौत के बाद पसरा अकेलापन इस कोहरे से भी ज़्यादा घना था, जो इस गली को सुबह घेरे रहता था। मैंने अपने अवसाद को भी छिटककर और चीरकर आगे बढ़ने की बहुत कोशिश की। रोज़ सुबह स्टेशन पर जाकर रेलगाड़ी से उतरने वालों में अपने बेटे सुक्खी और उसके पापा का चेहरा तलाश करती रहती पर उस अनजान देश जाने वाले कहां लौटते हैं भला! रोज़ इस नामुमकिन के मुमकिन होने का इंतज़ार कर कर के वापिस अपने मकान में लौट आती। मेरे अपनों के बगैर वह मकान ही था, घर नहीं बन सका। अंधेरे और अकेलेपन के डर से मैं बत्तियां कभी बुझाती ही नहीं थी। क्योंकि मेरे अपनों की गैर हाज़िरी ने मेरे दिल को तो सदा के लिए बुझा ही दिया था। शायद ज़िन्दगी पटरी पर से कब की उतर चुकी थी, और मैं अब भी स्टेशन पर बैठी उसके प्लेटफॉर्म पर आने का आखिरी इंतजार कर रही थी...!"

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