फूलन बनाम बैंडिट क्वीन
दस्यु उन्मूलन अभियान के पीछे की राजनैतिक तिकड़में टटोलते हुए फूलन देवी का केस और उसके जीवन पर कथित रूप से आधारित फ़िल्म 'बैंडिट क्वीन' पर चर्चा करना अत्यावश्यक हो जाता है। आज जब बेहमई कांड के आखिरी चश्मदीदों और पीड़ितों के परिवारों को न्याय की बाट जोहते दशकों बीत गए हैं, आज जब फूलन देवी के कत्ल का इंसाफ़ नहीं हो सका है, आज जब फूलन और उस जैसे कई दस्यु राजनैतिक पूंजी की तरह चूस कर फेंक दिए गए हैं, तब और ज़रूरी हो जाता है कि फूलन को हथियार बनाकर सियासी शिकार करने वाली ताकतों की शिनाख्त की जाए।
मेरा सच? तेरा सच? या सिर्फ़ सच ?
दिल्ली में बैंडिट क्वीन की प्रीमियर स्क्रीनिंग में, शेखर कपूर ने इन शब्दों के साथ फिल्म की शुरुआत की: "मेरे पास सत्य और सौंदर्यशास्त्र के बीच एक विकल्प था। मैंने सत्य को चुना, क्योंकि सत्य शुद्ध है।"
शेखर कपूर और बॉबी बेदी कृत 'बैंडिट क्वीन' का प्रचार ऐसे किया गया मानो फ़िल्म का धरातल 24 कैरेट सच पर आधारित हो। लेकिन सनद रहे कि बैंडिट क्वीन के रिलीज़ के खिलाफ़ फ़िल्म की मुख्य पात्र फूलन देवी ने आत्मदाह की धमकी दे दी थी क्योंकि फ़िल्म और हकीकत के बीच एक गहरी खाई होने के साथ साथ फिल्म के निर्माता-निर्देशक की कथनी-करनी में भी ज़मीन-आसमान का फर्क था।¹ फूलन का कहना था कि बॉबी बेदी & शेखर कपूर से से उसकी एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के बात हुई थी लेकिन अंततः उन्होंने बिना फूलन को बताए एक कमर्शियल सिनेमा बनाया, जिसके लिए उन्होंने तथ्यों को पूरी तरह तोड़-मरोड़ कर पेश किया। फ़िल्म निर्माताओं के मुताबिक फ़िल्म माला सेन की जिस किताब "India's Bandit Queen" पर आधारित है, फूलन की प्रख्यात वकील इंदिरा जयसिंह के मुताबिक उस किताब में और फ़िल्म में तथ्यात्मक रूप से ज़मीन आसमान का फर्क है।⁸
फूलन का कहना था कि फिल्म में और किताब से बातें मनगढ़ंत रूप से बनाई-उठाई गई हैं। फिल्म किताब से इस मायने में भटकती है कि यह कथित उच्च जाति के ठाकुरों और कथित निम्न जाति के मल्लाहों, जो कि फूलन की जाति भी है, के बीच दुश्मनी पर अधिक जोर देती है। फूलन के चचेरे भाई मैयादीन के पात्र पर भी फिल्म में अधिक ज़ोर नहीं दिया गया, जबकि फूलन और किताब के अनुसार, उसकी शुरुआती ज़िंदगी की अधिकांश परेशानियों के लिए मैय्यदीन जिम्मेदार था।
फूलन ने अपनी वकील द्वारा तर्क दिया था कि फिल्म में उसके पति द्वारा उसका बलात्कार करते हुए दिखाया गया है। मगर फूलन का कहना था कि उसने अपने लेखन में या किताब में कहीं भी ऐसा नहीं कहा है।
फिल्म का निर्माण किताब के विपरीत झूठे तथ्यों के आधार पर किया गया है, जिससे दो समुदायों और उनके सहयोगियों के बीच नफरत फैलाई जा सके। फूलन ने फिल्मकारों को दिए नोटिस में कहा था कि उन्हें लगता था कि फिल्म सच्चे तथ्यों के आलोक में बनाई जाएगी लेकिन सत्य के विपरीत बनाई गई बैनडिट क्वीन ने सिर्फ़ दो जातीय समूहों के बीच खटास पैदा करने का काम किया।
गौरतलब है कि फूलन के सहयोगी विक्रम मल्लाह और श्रीराम का गिरोह पूर्व में सहयोगी थे, साथ मिलकर लूटपाट किया करते थे, तो दस्यु प्रकरण में जातीय भेदभाव का व्यवहारिकता के लिहाज़ से सवाल ही नहीं उठता।
फूलन का कहना था कि जिस तरह फ़िल्म में उसे श्री राम और लाला राम द्वारा नंगा करके बेहमई गांव में घूमाने का चित्रण है, वह उसने अपनी किताब में लिखा ही नहीं है बल्कि वह सीन एक अमेरिकी पत्रकार जॉन ब्रैडशॉ की रिपोर्ट पर आधारित था जिसने एस्क्वायर के लिए एक लेख लिखा था और इसलिए, उस दृश्य और विवरण को गलत तरीके से फ़िल्म में भरमाने के लिए शामिल किया गया है।
फूलन ने यह भी कहा था कि फिल्मकारों ने लापरवाह तरीके से काम किया है क्योंकि उसने कभी भी बलात्कार के बारे में बात नहीं की लेकिन फिर भी फिल्म में उसका बार-बार बलात्कार होते दिखाया गया है। फूलन ने तर्क दिया था कि फिल्मकारों को बेहमई गांव के घटनास्थल पर उसका बलात्कार होते हुए दिखाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि यह फूलन की सच्ची कहानी के साथ असंगत होगा। अपने समर्थन में फूलन ने उस नुक्ते का हवाला दिया है जिसके मुताबिक कानून के साथ-साथ सार्वजनिक नीति भी बलात्कार पीड़ितों की पहचान को गुमनाम रखने की है और फिल्मकारों ने क्रिएटिव लाइसेंस के नाम पर कानून और पीड़िता की अवमानना की है।
फूलन का यह भी कहना था कि बेहमई हत्याकांड के समय वह मौका-ए-वारदात पर मौजूद तक नहीं थी, लेकिन फिल्मकारों ने अपनी रचनात्मकता की छूट लेते हुए फूलन को बेहमई गांव में प्रतिशोधवश निरीह हत्याकांड को अंजाम देते हुए दर्शा दिया। आत्मसमर्पण के समय पुलिस को दिए अपने बयान में फूलन देवी का कहना है कि वह वहां (बेहमई) नहीं थी, वह अपने गिरोह के कुछ सदस्यों के साथ बेतवा नदी के किनारे निगरानी कर रही थी। वह आगे कहती हैं, 'गिरफ्तार होने पर बेहमई में मौजूद गिरोह के कुछ सदस्यों से पूछा गया कि क्या फूलन इस हत्याकांड में शामिल थी, तो उन्होंने कहा कि मैं उस वक्त उनके साथ नहीं थी।' 20 फरवरी 1983 को यह बयान दर्ज करने वाले अधिकारी पुलिस इंस्पेक्टर आर.एन. गुप्ता, जो उस समय सीआईडी के एंटी डकैती स्क्वाड के साथ भिंड में थे, उन्होंने इसके अंत में एक नोट जोड़ा जिसमें लिखा था: 'फूलन देवी ने बेहमई नरसंहार में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार किया है लेकिन उनके साथी मान सिंह ने अपने बयान में अपनी संलिप्तता की पुष्टि की है।'
फूलन देवी की वकील ने इंदिरा जयसिंह ने यह भी तर्क दिया कि फिल्म में बेहमई नरसंहार का चित्रण सांप्रदायिक नफरत को भड़काएगा और इससे एक ओर ठाकुरों और दूसरी ओर कथित निचली जातियों, जिनसे फूलन आती है, के बीच शांति और सद्भाव प्रभावित होगा। लेकिन इन तमाम तर्क वितर्कों को दरकिनार रखते हुए अपने रूबाब के आधार पर फिल्मकारों ने यह फ़िल्म रिलीज़ की और राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पटल पर खूब वाह-वाही लूटी।
विडंबना देखिए, दिल्ली और बंबई में कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को यह फिल्म बैंडिट क्वीन दिखाई गई, जबकि इसकी मुख्य पात्र फूलन देवी को निजी स्क्रीनिंग में भी आमंत्रित नहीं किया गया था। और तो और, शेखर कपूर ने फिल्म बनाते समय एक बार भी फूलन से मिलना और बात करना ज़रूरी नहीं समझा। उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया है कि उन्हें नहीं लगा कि उन्हें फूलन से मिलने की जरूरत है। उनके निर्माता बॉबी बेदी इस फैसले का समर्थन करते हैं, ''शेखर को अगर जरूरत महसूस होती तो वह उनसे मिलते.''² फिर भी इस फिल्म को सौ टंच सत्य कहकर प्रचारित करना इन फिल्मकारों का कितना बड़ा घोटाला है।
धारा 57 के साथ फिल्मकारों और फूलन के बीच हुए अनुबंध को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि फिल्म के लिए किताब के उन्हीं हिस्सों के संशोधन की अनुमति है , जो फिल्म को मूल उपन्यास से बिल्कुल नए संस्करण में परिवर्तित नहीं करते हैं। लेकिन फिल्मकारों ने अनुबंध की मर्यादा लांघते हुए किताब में दर्ज तथ्यों को इतना संशोधित किया, कि फ़िल्म का अभिप्राय ही बदल दिया गया।
मिथक और मिथ्या
बेहमई कांड के बारे में अक्सर प्रचार किया जाता है कि इसमें फूलन ने 22 ठाकुरों को मारकर अपने सामूहिक बलात्कार का बदला लिया लेकिन मरने वालों में सब ठाकुर नहीं थे, यह बात मेंस्ट्रीम में बताई-सुनाई नहीं देती। गौरतलब है कि मारे गए 20 लोगों में 17 ठाकुर, एक मुस्लिम, एक दलित और एक ओबीसी थे, जबकि छह घायल हुए थे। मारे गए दलित और ओबीसी राजपुर से आए हुए मजदूर थे जबकि मारा गया मुसलमान आदमी सिकंदरा से आया हुआ एक मज़दूर था, जो सब, दुर्भाग्यवश, उस दिन बेहमई में मौजूद थे।
दूसरे, फिल्म में बाबू गूजर का फूलन पर बुरी नजर रखना इस तरह से लाल घेरे में अंकित नहीं किया गया जैसे श्रीराम और लाला राम का अत्याचार था क्योंकि बाबू गूजर पिछड़े वर्ग से आने वाला दस्यु था और इस केस में वह उच्च जाति बनाम निम्न जाति की बाइनरी का निर्माण नहीं हो पाएगा जो ठाकुर बनाम दलित बाइनरी में होता है; इसीलिए फिल्मकारों और फूलन का दोहन करने वाली सियासी ताकतों ने उसकी कहानी को अपने स्वाद और सुविधा अनुसार ही उठाया और भुनाया।
फिल्मकारों ने जाति-व्यवसाय और बलात्कार-व्यवसाय को बड़े करीने से एक साथ जोड़कर उस "तेज़, सघन, नाटकीय कथा" को बुना है।³ जबकि माला सेन की किताब में यह सब इतनी सरलता और तरलता से दर्ज नहीं है। किताब का कहना है कि फूलन का विद्रोह असल में इलाके (कब्जे) से जुड़ा है। चाहे उसकी लड़ाई अपने बाल विवाह के खिलाफ हो या उसके चचेरे भाई के साथ जमीन विवाद हो, उसके विद्रोह की शुरुआत जाति व्यवस्था के खिलाफ़ नहीं, बल्कि शक्ति-असंतुलन के खिलाफ थी, जिसमें जाति बाद में आई और अपने स्वजनों का बरपाया अन्याय पहले था।
फूलन का चरित्र और फिल्मकारों की Male Gaze
फिल्म बैनडिट क्वीन बलात्कार के खिलाफ आवाज़ नहीं उठाती बल्कि यह अच्छी (नैतिक पढ़ें) महिलाओं के बलात्कार के खिलाफ मुद्दा बनाती है। कहने का मतलब यह है कि फ़िल्मकारों द्वारा गढ़े फूलन के चरित्र को एक तनी हुई रस्सी पर चलना होता है। फूलन के प्रति दया भाव पैदा करने के लिए उसे दमित दिखाया जाता है, मार खाते हुए, सिर झुकाकर फ़रमान सुनते हुए, शोषण होते हुए भी।
कितना अजीब है कि फ़िल्म बलात्कार के कई वीभत्स दृश्यों से फूलन के प्रति संवेदना जगाने का दावा करती है जबकि किताब में स्वयं फूलन अपने बलात्कार की बात का चित्रण या वर्णन शब्दश: नहीं करती, क्योंकि किसी भी पारंपरिक समाज से आने वाली औरत के लिए अपनी अस्मिता पर चोट की बात सरे बाज़ार उठाना आसान नहीं होता।
फूलन का चरित्र चित्रण करते हुए फिल्मकारों ने बड़ी चालाकी से कुछ ऐसे प्रसंग जानबूझकर छोड़ दिए हैं जिनसे फूलन की नारीवादी छवि पर हल्का सा भी सवाल उठे। माला सेन की किताब में दर्ज है कि कैसे फूलन ने अपने पूर्व पति पुत्तीलाल के घर जाकर ना सिर्फ़ उसे बल्कि उसकी दूसरी बीवी विद्या को भी बुरी तरह प्रताड़ित किया था। लेकिन फिल्मकारों ने यह तथ्य इसीलिए छोड़ दिया ताकि फूलन की अच्छी औरत वाली छवि पर किसी और औरत की मार के निशान ना छप जाएं।⁷
फ़िल्म के अंत में फूलन को डाकू मान सिंह की मुंह बोली बहन के रूप में दिखाया है जबकि किताब का कहना है कि फूलन और मानसिंह के बीच प्रेम संबंध हो गए थे; मगर फिल्मकारों के नैरेटिव में यह बात फिट नहीं बैठती थी तो उन्होंने कहानी को, या कहा जाए फूलन के किरदार को अपनी पसंद के मुताबिक रंग-रोगन करके दर्शकों के आगे पेश किया।
फ़िल्म में फूलन देवी के आत्मसमर्पण का सीन भी मनगढ़ंत है जहां उसे भूखी प्यासी अपनी मां की याद में तड़पती हुई बेचारी औरत दिखाया गया है जबकि असल में आत्मसमर्पण से पहले फूलन देवी की कई मुलाकातें भिंड के एसपी राजेंद्र चतुर्वेदी के साथ हुईं थीं, जिनमें फूलन ने अपनी शर्तों पर मध्य प्रदेश सरकार को आत्मसमर्पण करने के लिए रजामंदी बनाई थी।⁴
बैंडिट क्वीन में फूलन देवी की भूमिका निभाने वाली सीमा बिस्वास ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वह असमंजस में थीं, क्योंकि उनपर फिल्माया जाने वाला नग्न दृश्य उनके लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं था। जिसके बाद वह शेखर कपूर के पास गईं और उनसे पूछा कि फिल्म में यह न्यूड सीन होना क्यों जरूरी है। सीमा जी ने कहा था, "मैंने शेखर से पूछा कि आप फिल्म में यह नग्न दृश्य क्यों कर रहे हैं और यह स्क्रिप्ट के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है। और उन्होंने मुझे बहुत ही तार्किक उत्तर दिया कि यह अपमान की पराकाष्ठा, अमानवीयता की पराकाष्ठा की एक बदसूरत सच्चाई थी, और मैं इसे उसी तरह से दिखाने जा रहा हूँ।" काफी विचार-विमर्श के बाद शेखर और सीमा ने बॉडी डबल की मदद से नग्न दृश्य पूरा करने पर सहमति जताई थी। लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि जो लड़की उनकी बॉडी डबल की भूमिका निभाने के लिए तैयार हुई, उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे अपने भाई के इलाज के लिए पैसों की सख्त जरूरत थी। दरअसल, सीमा बिस्वास ने खुद ही पैसे के लिए उन्हें यह काम करने के लिए मनाया था। पत्रकार प्रियदर्शन ने तहलका के फरवरी, 2011 के अंक में एक लेख में इसका जिक्र किया था।
अब कोई भी विवेकशील व्यक्ति यह सोचेगा कि फूलन देवी को नंगा करने वालों और उस असहाय जरूरतमंद लड़की को रचनात्मक स्वतंत्रता और सिनेमा के नाम पर नंगा करने वालों में क्या अंतर है?
बेहमई के बाद
बेहमई कांड के चार दशकों बाद भी पीड़ितों को आज तक न्याय नहीं मिला है। 23 आरोपियों में से फूलन देवी समेत 16 की पहले ही मौत हो चुकी है।
चार जीवित आरोपियों के खिलाफ आरोप तय किए गए, जबकि अदालत ने तीन फरार मान सिंह, रामकेश और विश्वनाथ उर्फ अशोक के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया, लेकिन फैसले से पहले ही मूल केस डायरी अदालत के रिकॉर्ड से गायब पाई गई थी, इसलिए फैसले को कई बार स्थगित किया गया।⁵
फूलन देवी की हत्या में आरोपी शेर सिंह राणा को 2014 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन अदालत ने मामले में उसके 10 साथी आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। राणा ने 2016 में दिल्ली उच्च न्यायालय में अपनी सजा के खिलाफ अपील की और जमानत पर रिहा हो गया।⁶ तब से मामले में कोई और हलचल नहीं हुई है, हालांकि शेर सिंह राणा प्रेस को दिए अपने ताज़ा वक्तव्यों में फूलन देवी को कत्ल करने की बात से इंकार करते हैं और दावा करते हैं कि उन्हें साजिशन इस केस में फंसाया गया था।
मीडिया में आज भी "फूलन ने 22 ठाकुरों को मारा" वाला रेट्रिक चलाया जाता है जबकि बेहमई कांड में मरने वाले बेगुनाह दलित, ओबीसी और मुस्लिम नाम बड़ी ही सावधानी से छुपा लिए जाते हैं ताकि 'ठाकुर बनाम दलित' की बाइनरी को वक्त-वक्त पर हवा दी जा सके।
सिनेमा में आज भी सत्य घटनाओं पर आधारित होने का दावा करने वाली कई फिल्में बन रही हैं जो सच और कल्पना को अपने एजेंडा और प्रोपेगेंडा के अनुसार गड्डमड कर रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ लेती हैं।
सबसे अफसोसनाक यह है कि शारीरिक, मानसिक और यौनिक हिंसा की शिकार बनती औरतों की कहानियां आज भी सिर्फ फ़िल्मों और सियासत के लिए ईंधन ही बन रही हैं; इंसाफ़ के लिए उठती आवाज़ आज भी कोलाहल में गुम ही होती है।
References
1. https://www.independent.co.uk/news/world/people-bandit-queen-threatens-a-blazing-row-1379481.html
2. Sunday Observer August 20th [1994]
3. Sunil Sethi, Pioneer August 14th [1994]
4. https://www.outlookindia.com/magazine/story/slong-sambha/211696
5. https://m.timesofindia.com/city/kanpur/uttar-pradesh-families-in-behmai-grieve-await-justice-four-decades-after-killings/amp_articleshow/80912906.cms
6. https://theprint.in/india/phoolan-murder-jailbreak-prithvirajs-ashes-life-of-sher-singh-rana-coming-soon-as-biopic/899696/
7. https://womens.theharvardadvocate.com/the-great-indian-rape-trick
8. https://indiankanoon.org/doc/793946/?type=print
Hi, Aditya Singh this side.
ReplyDeleteI want to connect with you regarding this work.
adityatomarbhu@gmail.com
Please share your contact with this e-mail, it will help me to my research work (construction of dacoity).
Thanks and Regards
Hi Aditya,
DeleteAs a matter of fact, I'm not a specialist on Dacoity and its History in South Asian context. I'd suggest you consult someone who has a thorough body of work and accreditation on the same topic.
Best wishes.
Although check out archeologist KK Mohammed and his association with Bateshwar where dacoits helped him resurrect temples.
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