रानी पद्मावती : आत्म-संदेह का अकादमिक बीजारोपण
एक्टिविस्ट एडवर्ड स्नोडेन का कथन है, "पूरा तंत्र इस विचार के इर्द-गिर्द घूमता है कि अधिकांश लोग उसी बात पर यकीन करने लगते हैं, जिसे बार-बार और ज़ोर से दोहराया जाता है।"
हम अक्सर इतिहासकारों को ‘गैर-इतिहासकारों द्वारा इतिहास-लेखन’ के बारे में शिकायत करते देखते हैं, लेकिन मुझे आश्चर्य है कि कोई भी उन पक्षपाती इतिहासकारों के बारे में शिकायत क्यों नहीं करता है, जो अपने मनगढंत अनुमानों या 'ऐतिहासिक कल्पनाओं' के बाबत् इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं?
हाल ही में 'रसकपूर' पर एक 'ऐतिहासिक उपन्यास' दर्शकों और आलोचकों को आकर्षित कर रहा है, जिसमें एक ऐसी तवायफ की कहानी है, जिसे राजसी व्यवस्था का शिकार होना पड़ा. लेकिन इस ‘ऐतिहासिक गद्य’ को हाथोंहाथ लेने वाले यही आलोचक यह घोषणा करते मिलेंगे कि राजपूत रानी पद्मावती (पद्मिनी) का चरित्र 'काल्पनिक' था और उस 'कथा' में शायद ही कोई तथ्य था। क्या यह हैरतअंगेज़ करने वाली बात नहीं है कि कैसे पद्मावती जैसे एक स्वाभिमानी चरित्र को बार-बार ‘मिथक’ के तौर पर निरूपित किया जाता है, जबकि राजपूत इतिहास के एक अन्य चरित्र ‘रसकपूर’ को सिर्फ इसीलिए 'प्रामाणिक' कहा जाता है क्योंकि यह ‘राजशाही की लूट' वाले स्टीरियोटाइप को मज़बूत करने के लिए उपयुक्त जान पड़ती है। ‘ऐतिहासिक कथा साहित्य’ सबसे हास्यास्पद विधाओं में से एक है क्योंकि यह किसी को भी विश्वसनीयता की कसौटी पर सवाल उठाने की जिम्मेदारी से मुक्त रहते हुए इतिहास को काल्पनिक बनाने और कल्पना को ऐतिहासिक बनाने की स्वतंत्रता देती है!
मिथक और इतिहास के बीच अतिरेकों की निर्मिति
विद्वान दलपत सिंह राजपुरोहित ने अपनी पुस्तक 'सुंदर के स्वप्न' में हावी विमर्श (Dominant Discourse) के भीतर अभिजात्य पूर्वाग्रह की जड़ों को विस्तार से समझाया है। राजपुरोहित उद्धृत करते हैं कि कर्नल जेम्स टॉड की वाचिक परम्पराओं के संग्रह और जार्ज ग्रियर्सन की कृतियों ने रामचन्द्र शुक्ल को हिन्दी साहित्य के काल-निर्धारण के लिए एक मजबूत आधार प्रदान किया और इसे भक्तिकाल और रीतिकाल के दो कालखंडों (शाखाओं) में विभाजित किया; बाद में भक्ति का श्रेय ‘लोक’ को दिया गया और रीतिकाल को सामंती व्यवस्था से जोड़ा गया। सामंती व्यवस्था से जुड़ जाने के बाद रीतिकाल के साहित्य को 'निम्न स्तर' का माना जाने लगा। रामविलास शर्मा ने रीति-काव्य को सामंती या दरबारी काव्य तक कह डाला, जिससे रीति-कविता को सम्मानजनक मान्यता नहीं मिली।
इस प्रवृत्ति को और गहराई से समझने के लिए हम देखते हैं कि कैसे रीतिकाल में देशज भाटों, चारणों, हरबोलों द्वारा लिखे गए राजपूत शासकों के शाही वृत्तांत, मौखिक रूप से संरक्षित लोककथाओं और गीतों को कुछ आधुनिकतावादियों द्वारा ख़ारिज किया जाता है और ‘शाही आत्मप्रशंसा’ या ‘अतिश्योक्ति’ कहकर मिथक बता दिया जाता है।
18वीं शताब्दी के बाद से इतिहास में गवाहों, अनुभवजन्य प्रमाणों और दस्तावेजीकरण पर इतना ज़ोर दिया जाने लगा कि इतिहास और मिथक एक दूसरे के विरोधी माने जाने लगे। यह तथ्य लगभग हाशिए पर धकेल दिया गया कि दुनिया की सभी मानव सभ्यताएं अपने सांस्कृतिक रूपों और अभिव्यक्तियों में शुरू से ही मिथक को शामिल करती रही हैं. इस बात की उपेक्षा की जाने लगी कि मिथक पूरी तरह से अर्थहीन और असत्य नहीं है।6
कला, साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र जैसे विषयों में आधुनिकता (कारण, प्रमाण और जीवंत अनुभव) पर जोर बढ़ा; जिसके कारण 'मिथक ' को 'झूठ' और 'कल्पना' कहा जाने लगा। इसके आधार पर चुनिंदा ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों को 'मिथ्या' मानकर रद्द किया जाने लगा।
रानी पद्मावती पर लादा गया प्रमाणभार
पद्मावती नामक एक रानी, जो कभी निश्चित ही अस्तित्व में रही थी, जिसकी निशानियाँ पूरे चित्तौड़ में बिखरी पड़ी हैं, जिसकी वंशावली की गवाही देने के लिए उसके वंशज अभी भी मौजूद हैं, उसे बार-बार 'मिथक' या 'काल्पनिक' करार देकर रद्द कर दिया जाता है; सिर्फ इसलिए कि अमीर खुसरो ने अपने लेखन में उसका प्रत्यक्ष जिक्र नहीं किया है! इसके अलावा, आधुनिकतावादी इतिहासकार पद्मिनी की उपस्थिति की जांच करने के लिए मुख्य रूप से अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल की समकालीन रचनाओं पर ही भरोसा करते हैं जैसे खजैन-उल-फुतुह और दुवल रानी व खिज्र खान (अमीर खुसरो); तारिख-ए-फिरोज शाही (जिया उद दीन बरनी) और फुतुह-उस-सलातिन (अब्दुल मलिक इसामी), जिनमें पद्मावती गैर मौजूद मिलती हैं 9. इसलिए, पद्मावती की अनैतिहासिकता पर निष्कर्ष 'उसके साहित्यिक उल्लेख की अनुपस्थिति' के आधार पर निकाला गया है।
इतिहासकार राजेश कोचर पद्मावती के उल्लेख की अनुपस्थिति की एक मान्य व्याख्या देते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी इतिहासकार अमीर खुसरो ने सन 1301 में जीते गए रणथंभौर किले में रानियों और अन्य महिलाओं द्वारा किए गए जौहर को बाकायदा दर्ज किया था। यह फ़ारसी में इस प्रथा का पहला वर्णन था। दो साल बाद चित्तौड़ का किला भी इसी तरह की परिस्थितियों में फ़तेह किया गया था लेकिन किसी भी जौहर का उल्लेख नहीं है। इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि कोई जौहर हुआ ही नहीं था. इससे यह प्रक्षेपित किया जा सकता है कि राजपूत खेमे में चल रही घटनाओं को दर्ज करने के लिए मुस्लिम इतिहासकारों में अत्यधिक उत्साह नहीं रहा होगा। यह संभव है कि अमीर खुसरो की रुचि अपने पाठकों को एक नई घटना की सूचना देने में थी। एक बार उद्देश्य पूरा हो जाने के बाद, घटना को फिर से दर्ज करने की कोई आवश्यकता नहीं थी.5
उल्लेखनीय रूप से, विद्वानों का यह भी मत है कि अमीर खुसरो द्वारा लिखित खज़ैन-उल-फुतुह (विजय का खजाना) में 'पद्मिनी' का एक अप्रत्यक्ष संदर्भ मौजूद है, जब खुसरो इस्लाम में एक पौराणिक पक्षी 'हुद-हुद' को प्रतीकात्मक रूप से चित्रित करता है और अलंकारिक रूप से पद्मिनी के प्रति सुल्तान के जुनून का इशारा देता है।7
इसके अलावा, प्रो. माधव हाडा ने भी अपने शोध10 में दावा किया है कि अबुल फ़ज़ल स्पष्ट रूप से 'राजा रतनसी की खूबसूरत पत्नी, जो अलाउद्दीन खिलजी द्वारा वांछित थी' का उल्लेख करता है।8 राजपूताना क्षेत्र के 17वीं शताब्दी के इतिहासकार मुन्हाता नैन्सी ने 'मुन्हाता नैन्सिरी ख्यात' लिखी जिसमें पद्मिनी और जौहर का भी उल्लेख है। 17
वीं शताब्दी के अंत में
'रावल राणाजी री बात' नामक काम में भी 'पद्मिनी का राजा रतन सेन की पत्नी के रूप में उल्लेख किया गया था, जिसके लिए अलाउद्दीन ने किले की घेराबंदी की थी'।
मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मौलिक कार्य चित्तौड़ और कलिंग के बीच ऐतिहासिक और भौगोलिक विवरण की सटीकता और सिंहल और लंका के बीच अंतर की व्याख्या करता है। रतनसेन की मदद करने वाले गजपति वंश के उड़ीसा के राजा जैसे चरित्रों का उल्लेख यह साबित करता है कि जायसी का काम मनगढ़ंत बातों पर आधारित नहीं था और वैधता की कसौटी पर खरा उतरता है। यदि जायसी की रचना में स्थान, पात्र और घटनाएं इतनी सटीक हैं, तो वह अपने काम में पद्मिनी नामक एकमात्र काल्पनिक चरित्र को क्यों शामिल करेंगे?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने भी अपनी पुस्तक 'पद्मावत : एक उदात्त प्रेमकहानी’ में उल्लेख किया है कि जायसी के 'पद्मावत' से पहले लिखी गई एक अन्य प्रकाशमान कथा-काव्य 'छितई चरित' में 'चित्तौड़ की पद्मिनी' का प्रत्यक्ष संदर्भ मिलता है।
गोरा बादल कवित, हेमरतन की गोरा-बादल-पद्मिनी चौपाई, पद्मिनीसामियो, जटमल नाहर की गोरा बादल कथा, दयालदास की राणारसो, दलपति विजय की खुम्मनरासो, चित्तौड़-उदयपुर पटनामा जैसी अनगिनत स्थानीय कविता/रचनाएँ रानी पद्मिनी के उल्लेखों से गूंजायमान हैं लेकिन दुर्भाग्यवश, पद्मावती की मौजूदगी को प्रमाणित करते इस वैकल्पिक रचनाकर्म को अकादमिकों द्वारा सिर्फ इसीलिए ख़ारिज कर दिया जाता है क्योंकि जायसी की पद्मावत की रचना इन सब रचनाओं से पहले हो चुकी थी।
फ़िरिश्ता (मुहम्मद कासिम हिंदू शाह अस्तरबादी) 16वीं शताब्दी के भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास, विशेष रूप से दक्कन सल्तनतों के इतिहास के एक इतिहासकार थे। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना, तारीख़-ए फ़िरिश्ता (जिसे गुलशन-ए इब्राहीमी के नाम से भी जाना जाता है), 11वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी की शुरुआत तक भारत में मुस्लिम शासन का एक व्यापक इतिहास है। फ़िरिश्ता के अनुसार, चित्तौड़ का उनका विवरण महाकाव्य कविता पद्मावत से काफी भिन्न है। फ़िरिश्ता का कहना है कि पद्मिनी राय रतन सेन (चित्तौड़ के शासक) की बेटी थीं, न कि उनकी पत्नी। यह जायसी के पद्मावत का खंडन करता है, जो उन्हें रतन सेन की पत्नी के रूप में चित्रित करता है। फ़िरिश्ता के संस्करण में, अलाउद्दीन खिलजी ने राय रतन सेन को दिल्ली में कैद कर लिया और उनकी बेटी पद्मिनी के आत्मसमर्पण की मांग की।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जायसी की पद्मावत एक शानदार कृति है, लेकिन यह भी सच है कि जायसी के काम को पद्मावती/पदमिनी की ऐतिहासिकता का आकलन करने के लिए एकमात्र संदर्भ बिंदु के रूप में देखना अनुचित है।
उल्लेख की अनुपस्थिति ही अनुपस्थिति का प्रमाण नहीं
इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल का कहना है कि वास्तव में, तख़्ते ताऊस के किसी भी मुग़लिया विवरण में कोहिनूर का उल्लेख नहीं है, क्योंकि मुगल लाल पत्थरों को पसंद किया करते थे, जैसे कि माणिक, और केवल इन्हीं का वर्णन मुगल इतिहासकार करते हैं। उनमें से किसी में भी कोहिनूर का उल्लेख नहीं है।1 परन्तु फिर क्या इस आधार पर सतही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कोहिनूर भारत में कभी था ही नहीं या मुगलों के कब्जे में कभी था ही नहीं? क्या हम सरलता से यह मान सकते हैं कि समकालीन कालक्रम में जिस चीज का 'उल्लेख नहीं' किया गया है, वह 'अस्तित्वहीन' थी?
प्रसिद्ध इतिहासकार मुबारक अली के कथन के अनुसार मुगल बादशाह अकबर के काल में 'दीन-ए-इलाही' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था. इतिहासकार इस बात को अस्वीकार करते हैं कि अकबर ने एक 'नया पंथ' शुरू किया. साथ में यह इंगित करते हैं कि अकबर ने एक सूफी पीरी-मुरीदी सिलसिला शुरू किया, जो एक शाही शिष्यत्व कार्यक्रम के रूप में कार्य करता था।2 प्रो. एम. अतहर अली ने अपनी पुस्तक 'मुगल इंडिया: स्टडीज़ इन पॉलिटी, आइडियाज़, सोसाइटी एंड कल्चर' में उल्लेख किया है कि दीन-ए इलाही का एक नया धर्म होने का दावा एक 'गलत धारणा' थी जो बाद के ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा अबू फ़ज़ल के काम के गलत अनुवाद के कारण उत्पन्न हुई थी। तो, क्या इससे हम यह मान लें कि अकबर द्वारा 'दीन-ए-इलाही' नामक एक धर्मनिरपेक्ष संप्रदाय की धारणा, ओरिएंटलिस्ट इतिहासकारों की 'कल्पना की उपज' के अलावा और कुछ नहीं थी, जिन्होंने इसका गलत अर्थ निकाला और फिर भी इस धारणा को फैलाया ?
और तो और, जहां पद्मावती की ऐतिहासिकता को बार-बार 'काल्पनिक चरित्र' कहकर खारिज कर दिया जाता है, वहीं अकबर की राजपूत पत्नी के रूप में जोधा नामक एक काल्पनिक पात्र को 'इतिहास' के रूप में प्रचारित किया जाता है। वस्तुतः अकबर की पत्नी का जोधाबाई नाम से कोई उल्लेख नहीं मिलता, चाहे वह अकबर की जीवनी अकबरनामा में हो या जहांगीर की आत्मकथा तुजक-ए-जहांगीरी हो । यह उल्लेखनीय है कि मुगल इतिहासकार राजपूत पत्नियों के हिंदू नामों को दर्ज नहीं करते हैं; वे उनका परिचय केवल उनके मुस्लिम नामों से देते हैं। अकबर की पत्नी का नाम अभिलेखों से बाहर रखा गया क्योंकि उस समय परदा प्रथा थी। अकबर के शासनकाल के दौरान, यह आदेश दिया गया था कि मुगल पत्नियों के नामों का सार्वजनिक रूप से उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए। महत्वपूर्ण महिलाओं को उपाधियाँ दी जाती थीं जिनका उपयोग उनके नाम के स्थान पर किया जाता था।3
तो, जोधाबाई नाम कहाँ से आया? दिलचस्प बात यह है कि गोवा स्थित लेखक लुइस डी असिस कोर्रेया ने इस हद तक दावा किया कि जोधा बाई, जिन्हें कथित रूप से मुगल सम्राट अकबर से शादी करने वाली राजपूत राजकुमारी माना जाता था, वास्तव में डोना मारिया मैस्करेनहास नाम की एक पुर्तगाली महिला थीं।4. तो संदर्भों के आधार पर, क्या कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि चूंकि किसी भी मुगल इतिहास में अकबर की हिंदू राजपूत पत्नी जोधा का उल्लेख नहीं है, कोई राजपूत पत्नी कभी अस्तित्व में थी ही नहीं? लेकिन क्या इतिहासकार इस लोकप्रिय अवधारणा को अपने अकादमिक अधिकार से संशोधित करने की परवाह करेंगे, जिस तरह से उन्होनें पद्मावती को 'मिथकीय' के रूप में परिभाषित किया है? नहीं, ऐसा नहीं किया जाएगा क्योंकि यदि ऐसा किया तो यह मुगल दरबार के उदारवादी लोकाचार की छवि की हवा निकाल देगा और मुगलकालीन पितृसत्तात्मक मूल्यों को सतह पर ले आएगा।
बारीकियाँ ही सब है
इतिहासकारों, शिक्षाविदों, लेखकों या फिल्म निर्माताओं के अपने वैचारिक या राजनीतिक झुकाव हो सकते हैं, लेकिन यह अचंभित करने वाला है कि कैसे कुछ लोगों द्वारा अपनी पसंद और उपयुक्तता के अनुसार इतिहास को चुना और नकारा जाता है! यह मनोरंजक है कि कैसे कुछ ऐतिहासिक पात्रों को सार्वजनिक संवाद में एक विशिष्ट कथानक को आगे बढ़ाने के लिए प्रामाणिक के रूप में पेश किया जाता है, जबकि कुछ अन्य चरित्रों को रद्द कर दिया जाता है या किसी अन्य राजनीतिक-शैक्षणिक एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए कमतर करके दर्शाया जाता है। पद्मावती का अकादमिक ह्रासन एक ऐसा मामला है, जिसके द्वारा राजपूत इतिहास के प्रति नैतिक और ऐतिहासिक संशय और आत्म संदेह पैदा करने की परियोजना को अंजाम दिया गया है. लेकिन समय आ गया है कि अब इस अकादमिक अनैतिकता का पुनःपरीक्षण किया जाए।
(* पद्मिनी और पद्मावती का प्रयोग एक ही व्यक्ति के लिए अलग-अलग स्रोतों में वैकल्पिक रूप से किया जाता है)
© ऐश्वर्या ठाकुर
References:
2. Ali, Mubarak. “Akbar in Pakistani Textbooks.” Social Scientist, vol. 20, no. 9/10, 1992, pp. 73–76. JSTOR, https://doi.org/10.2307/3517719. Accessed 14 Apr. 2023.
3. Waseem, Durre. “THE PORTRAYAL OF MUGHAL WOMEN IN THE EARLY MUGHAL ART AND ANALYZING THE REASONS FOR SCARCITY OF THEIR IMAGES .”
4. Correia, L. d. A. (2017). Portuguese India and Mughal Relations, 1510-1735. India: Broadway Publishing House.
5. http://www.tribuneindia.com/news/comment/rajputs-their-women–muslim-rulers/524111.html
6. Walter J. Harrelson, “myth and history”, The Encyclopedia of Religion
7. Awan, Muhammad Tariq. History of India and Pakistan. Pakistan, Ferozsons, 1991.
8. The Ain I Akbari by Abul Fazal Allami translated by H. Blochmann, H. S. Jarrett, low price publications, 2011.
9. Saiyad Athar Abbas Rizvi, Khalji Kaleen Bharat (History of Khaljis) - 1290-1320
10. Madhav Hada, ‘Padmini : Itihas aur Katha-Kavya ki Jugalbandi’
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