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Showing posts from 2021

सूफ़ी फाइलें | अफ़ग़ानी सरज़मीं पर सूफ़ी निशानियाँ

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  ता लिबान ने पिछले दिनों अफगानिस्तान के ' हेरात ' शहर पर कब्ज़ा कर लिया और पिछले कुछ दिनों में औरतों को लेकर कई सख़्त आदेश भी जारी किए हैं। तालिबान की वापसी के साथ अफगानिस्तान में औरतों के भविष्य पर एक सवालिया निशान लग गया है लेकिन इतिहास में इस इलाके की पहचान ही औरतों की बनाई इमारतों से रही है।  तै मूर वंश के शासन के दौरान ' गौहर शाद ' नाम की सम्राज्ञी ने सामाजिक नियमों के खिलाफ जाकर भी दो जुमा-मस्जिदों और मदरसे का निर्माण करवाया, जिनमें से एक, ' गौहर शाद मुसल्ला ', हेरात शहर की पहचान रहा है। यह मुसल्ला परिसर उस समय की सामाजिक गतिविधियों का केंद्र रहा जहां बौद्धिकों का जमघट लगता, मुशायरे हुआ करते और कई करतब भी दिखाई जाते थे। यहां बनाई गई 20 मीनारों में से 5 ही बची हैं लेकिन उस समय एक संपन्न महिला द्वारा अपनी निजी संपत्ति से ऐसे भव्य निर्माण करवाना अद्भुत था।  गौ हर शाद ने खुरासान के मशहूर सूफी शायर 'अहमद-ए-जाम' के नाम भी कई रकबा ज़मीन की, ताकि सूफियों की संगत उनके शासन को मिली रहे। तैमूर की बेगम ' तुमन आका ' ने भी कुसुविया नामक जगह पर एक खानकाह...

सूफी फाइलें | तुरिया तुरिया जा फरीदा

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". . उ ठ फरीदा सुत्तेया, दुनिया वेखन्न जा.. जे कोई मिल जाए बक्शेया, तू वी बक्शेया जा.." 'पंज-पीरों' और 'चार-यार' में से एक__सूफी पीर और शायर बाबा फरीद 'गंजशकर' का उर्स इस वक्त पाकपत्तन में उनकी मज़ार पर मनाया जा रहा है। कहते हैं बाबा फरीद पंजाबी भाषा के पहले शायर हुए और उनके लिखे 134 श्लोक/दोहे 'गुरु ग्रंथ साहिब' में भी शामिल किए गए। बाबा फरीद महरौली वाले ख्वाजा बख़्तियार काकी के मुरीद थे और उन्हीं की हिदायत पर बाबा फरीद ने 18 साल अलग-अलग जगहों का दौरा किया जैसे गज़नी, बगदाद, येरूशलम,सीरिया, मक्का और मदीना। बाबा फरीद से मुतासिर होकर पश्चिमी पंजाब के सियाल, खोखर, भट्टी और टिवाना जैसे कई जट्ट कबीलों ने इस्लाम भी कबूला। अपने जीते जी तो बाबा फरीद ने सियासतदानों से एक दूरी बनाए रखी लेकिन उनके उत्तराधिकारी 'दीवानों' ने दिल्ली सल्तनत और तुगलक शासकों के साथ गहरे ताल्लुक बनाए। बाबा फरीद की दरगाह पर तैमूर लंग से लेकर अकबर तक ने हाज़िरी दी। माना जाता है कि इनकी मज़ार पर मौजूद ' बहिश्ती दरवाज़े' से गुजरने वालों को जन्नत नसीब होती है मगर ...

सूफ़ी फाइलें | कश्मीरी कला-संस्कृति पर सूफी छाप

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कल कश्मीर में शाह-ए-हमदान का 656वां उर्स मनाया गया, वही शाह-ए-हमदान , जिनकी याद में झेलम किनारे बनाई गई खानकाह-ए-मौला श्रीनगर के डाउनटाउन की पहचान है। शाह-ए-हमदान यानी ' मीर सैय्यद अली हमदानी' एक सूफी पीर और शायर हुए, जो ईरान से 15वीं शताब्दी में कश्मीर आए 700 सय्यदों (missionaries) के साथ और कश्मीर में सूफीवाद (के माध्यम से इस्लाम) की बुनियाद रखी। इनके प्रभाव में तकरीबन 37000 लोगों ने इस्लाम अपनाया, जिसका ज़िक्र 'रेशीनामा' में मिलता है और इन्होंने एकेश्वरवाद पर ज़ोर दिया! सिर्फ़ धार्मिक ही नहीं, बल्कि शाह-ए-हमदान ने कश्मीर को सिखाए ऐसे फ़न, जिनसे आज कश्मीर दुनिया भर में मकबूल है, जैसे पशमीना साज़ी, सोज़नकारी, पेपर मशी, कालीन बुनना, सामोवर बनाना वगैरह। शॉल बुनने की कला भी उन्हीं की देन है कश्मीरी बुनकरों को। कहा जाता है कि कश्मीरी पहनावे पर पहले जो स्थानीय प्रभाव था, उसे भी बदलने और उसकी जगह चोगानुमा ईरानी कमीज़ पहनने का सिलसिला भी इन्हीं की सरपरस्ती में शुरू किया गया। अल्लामा इकबाल ने भी माना कि शाह हमदान की सिखाई अद्भुत कला और शिल्प ने कश्मीर...

कुछ तो लोग कहेंगे

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अ गस्त की उमस भरी दोपहरों में कीचड़ वाली गलियों में मकान तलाशते हुए बार-बार आयशा को लगता कि बंटवारे के वक्त भी ऐसी ही उमस भरी गर्मी में लोग अपना घर-बार छोड़ कैसे अंजान देस की तरफ चल दिए होंगे पैदल ही। कितने ही मकान देखे थे आयशा और अबरार ने मिलकर, कोई दड़बानुमा घुप्प अंधेरी कोठरी जैसा तो कोई मकानमालिक के सर्वेंट क्वार्टर जैसा। एक भी मकान मन-माफिक नहीं मिला था अभी तक और अब तो हौसला भी टूटने लगा था। मगर बरसाती की टपकती छत के नीचे कैसे बाकि भादों काटते, इसलिए नया घर तो ज़रूरी था। किस्मत से एक मकान दिखाया डीलर ने, जिसमें कदम रखते ही आयशा को लगा कि तलाश यहीं खत्म हुई। बड़ी रोशनीदार खिड़कियाँ, ऊंची छतें, सफेद दीवारें, लंबी बालकनी और लिफ्ट, सब कुछ अपनी जगह सही था। आयशा और अबरार ने इन दूसरे को देखा और बिना कहे ही समझ गए कि किराया बेशक थोड़ा ज़्यादा है, मगर अब तो यहीं रहा जाएगा।  और देखते ही देखते दोनों ने इस मकान का कोना-कोना बड़े प्यार से सजाना शुरू किया। अबरार ने किताबों के लिए अलग कमरा रखा, जहां इतिहास, सियासत और कहानियों की नई-पुरानी किताबें बड़ी ही तरतीब से सजाई। उधर आयशा न...

कश्मीर : बर्फ़ और बंद के बीच

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कश्मीर को या तो अख़बारों की सुर्ख़ियों में धधकता दिखाया जाता है या फिर कैलेंडरों पर फूलों से लदे हुए बाग़ की तरह, मगर इन दो इन्तेहाई नुक़्तों के बीच एक महीन डोर से झूलता कश्मीर कैसे पेंडुलम की तरह  सामान्य से असामान्य के बीच का वक़्त गुज़ारता है, यह देखने के लिए कश्मीर की एक यात्रा ज़रूरी है। यह यात्रा न तो सैलानी की तरह तय की जा सकती है, और न ही पत्रकार की तरह खबरें बटोरते हुए। कश्मीर के नाज़ुक वर्तमान की बर्फीली सतह के नीचे दफ़्न उसका पथरीला इतिहास खंगालने के लिए गहरा उतरना ही पहली शर्त है।  कश्मीर की नींव रही यहाँ की कला, लोकाचार और वास्तुशिल्प की सीढ़ियाँ उतरते हुए एक सांस्कृतिक यात्री के तौर पर ही कश्मीर को समझा जा सकता है।  लॉकडाउन से कई महीने पहले ही धरा 370 हटाए जाने पर कश्मीर की ज़िन्दगी पर अस्थाई तालाबंदी लगा दी गई थी, जिसके चलते डिजिटल ब्लैकआउट के अँधेरे में कोयलों की तरह ही धीमे-धीमे सुलग रहा था कश्मीर। कोविड लॉकडाउन ने अंतर्राष्ट्रीय सैलानियों के आने की उम्मीद पर भी पहर...