कुछ तो लोग कहेंगे

गस्त की उमस भरी दोपहरों में कीचड़ वाली गलियों में मकान तलाशते हुए बार-बार आयशा को लगता कि बंटवारे के वक्त भी ऐसी ही उमस भरी गर्मी में लोग अपना घर-बार छोड़ कैसे अंजान देस की तरफ चल दिए होंगे पैदल ही। कितने ही मकान देखे थे आयशा और अबरार ने मिलकर, कोई दड़बानुमा घुप्प अंधेरी कोठरी जैसा तो कोई मकानमालिक के सर्वेंट क्वार्टर जैसा। एक भी मकान मन-माफिक नहीं मिला था अभी तक और अब तो हौसला भी टूटने लगा था। मगर बरसाती की टपकती छत के नीचे कैसे बाकि भादों काटते, इसलिए नया घर तो ज़रूरी था। किस्मत से एक मकान दिखाया डीलर ने, जिसमें कदम रखते ही आयशा को लगा कि तलाश यहीं खत्म हुई। बड़ी रोशनीदार खिड़कियाँ, ऊंची छतें, सफेद दीवारें, लंबी बालकनी और लिफ्ट, सब कुछ अपनी जगह सही था। आयशा और अबरार ने इन दूसरे को देखा और बिना कहे ही समझ गए कि किराया बेशक थोड़ा ज़्यादा है, मगर अब तो यहीं रहा जाएगा। 

और देखते ही देखते दोनों ने इस मकान का कोना-कोना बड़े प्यार से सजाना शुरू किया। अबरार ने किताबों के लिए अलग कमरा रखा, जहां इतिहास, सियासत और कहानियों की नई-पुरानी किताबें बड़ी ही तरतीब से सजाई। उधर आयशा ने बालकनी में तरह-तरह के बेल बूटे उगाए, यहां तक कि रजनीगंधा भी लगाया और पंछियों के पीने के लिए एक माटी का कसोरा भी रख छोड़ा। कभी अबरार मछली लाता तो कभी आयशा मिठाइयां। रसोई में नए-नए प्रयोग करते दोनों और मिल कर खाते-पीते। सेकंड हैंड डाइनिंग टेबल और डबल-बेड भी सस्ते में मिल गया था चोर बाज़ार से और घर सजने के बाद दोनों ने मिलकर दोस्तों के लिए दो-एक दावतें भी रखी थीं। मकान अब घर हो चुका था। 

देखते-देखते दो साल बीत गए। आयशा ने सूफीवाद पर किताब लिखनी शुरू कर दी थी। दिल्ली की हर मज़ार पर हाज़िरी दे चुके थे दोनों और आयशा की रिसर्च सही चल रही थी। कश्मीर दौरे पर दोनों कितनी ही दरगाहों की जियारत कर लौटे थे, जेबों में इतिहास और तसव्वुफ़ का मीठा नज़राना लिए। लेकिन एक महीने के इस दौरे से लौटकर जब आए तो दोनों को महसूस हुआ कि  बिल्डिंग में आमतौर से ज़्यादा चहल कदमी हो रही है। अबरार ने चौकीदार से पूछा तो उसने बताया कि चौथे माले पर नए किराएदार आए हैं। "चलो, अच्छा है कोई आ गया। खाली पड़ा था फ्लैट कब से !" आयशा ने अबरार से कहा। 

लेकिन ऊपरवाले माले पर न जाने कौन-कौन रह रहा था, क्योंकि सारा दिन नए-नए लोग ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाते रहते। लिफ्ट खराब होने के कारण सब सीढ़ियों से ही होकर जाते तो शोर और आहटें रात दिन सुनाई देने लगीं। कभी लड़कियों की खिलखिलाती हँसी तो कभी हवाई चप्पल वाले पांव की आवाज़, कभी खंगारते हुए आदमी की आहट तो कभी दो चार लड़कों की ठिठोली वाली हँसी। आयशा जब भी घर पर रहती तो हॉल में बैठे हुए इन आवाजों पर उसका ध्यान जाता ही रहता। कई बार उसने दरवाज़े के आई-होल से देखा कि लुंगी और बनियान पहने एक मजदूरनुमा आदमी तेज़ी से सीढियां उतर रहा है, कई बार कोई जवान लड़का अपनी शर्ट ठीक करते हुए उतर रहा है। आयशा को लगता हर बार नए लोग क्यों ऊपर नीचे जाते होंगे। शक के मारे वो बालकनी से देखती कि बिल्डिंग से कौन बाहर जा रहा है । हर बार बाहर जाने वाले आदमी या औरत पीछे मुड़कर बालकनी की ओर ज़रूर देखते, जिससे घबराकर आयशा अंदर छुप जाती। बिल्डिंग के आगे खड़े ऑटोरिक्शा वाले भी झुंड बनाकर बिल्डिंग से नीचे उतरने वालों को देखते रहते और वाहियात मज़ाक करते। शाम में अगल-बगल की बिल्डिंगों के चौकीदार बैठकर चौथे माले की तरफ इशारे कर कर के बातें करते। अबरार को भी लगने लगा कि कुछ तो ऐसा है जो ऊपरवाले फ्लैट में चल रहा है और सही नहीं है। 

और फिर एक दिन दोपहर में दरवाज़े की घंटी बजी। अबरार के दरवाज़ा खोलते ही सामने खड़े अंजान आदमी ने उससे पूछा, "यहीं मैंने लड़की भेजी थी ना?" "क्या? कौनसी लड़की?" अबरार ने हैरान होकर पूछा। 
"इसी फ्लोर पर नहीं आई लड़की? ये चौथा फ्लोर है न? मैं लड़कियां भेजता हूं!" 
"यहां नहीं भेजी कोई लड़की-वडकी। ये तीसरा फ्लोर है। आइंदा यह दरवाज़ा मत खटखटाना!" अबरार ने कहा और दरवाजा बंद कर दिया लेकिन आयशा और अबरार अब समझ गए थे कि उनके सूफियों के डेरे के ठीक ऊपर एक बजबजाता नाला बह रहा था, जिसकी बू आसपास सब जगह फैल गई थी। 

रेशानी और हैरानी में अबरार और आयशा सिर पकड़ कर बैठे रहते, फुसफुसा कर बात करते। आधी-आधी रात को नशे में चूर आदमी ऊपर वाले माले की ओर जाते हुए महसूस होते। ऊपर के कमरों में कोई हील पहन कर चल रहा होता, टिक-टोक की आवाज़ नीचे सारी रात नीचे महसूस होती जैसे टाइम बॉम्ब की सुइयां चहल-कदमी कर रही हों। आयशा रात में सो नहीं पाती, हल्की सी आहट पर दरवाजे के पास पहुंच जाती और आई-होल से लोगों को उतरते चढ़ते हुए देखती रहती। आधी-आधी रात को बिल्डिंग के नीचे मोटरसाइकिल और लंबी लग्ज़री गाड़ियों में आदमी इंतजार करते हुए खड़े रहते और अब तो कपड़े सुखाने के लिए बालकनी में जाते हुए भी आयशा घबराती। अबरार ने मकान मालिक से बात करनी चाही तो उसने कहा कि आपको वहम हुआ है, ऊपरवालों का तो सिर्फ़ मसाज का काम है। अबरार पहले माले में रहने वाले सिख परिवार के पास गया कि शायद एक साथ सब किराएदार मकानमालिक को बोलें तो ऊपर वालों को निकालने का दबाव बने लेकिन उनका रवैया तो और हैरतंगेज लगा। गुरु तेग बहादुर की शहीदी पर एक पैंफलेट अबरार को थमाते हुए मिसेज सिंह कहने लगीं कि अगर ऊपर वाले कुछ गलत कर रहे होंगे तो उन्हें खुद सज़ा मिलेगी। आप लोग अपने में व्यस्त रहा करो, दूसरे के घर में मत झांको। गुरु साहब की कुर्बानी के बारे में पढ़ो। अबरार इतना सा मुंह लेकर वापिस लौट आया। आयशा ने सब सुनकर रोते हुए कहा,"अगर ये पड़ोसी सच्चे सिख होते तो गुरु साहिब की कुर्बानी के पर्चे बांटने की बजाए उनकी सिखिया(शिक्षा) पर अमल कर रहे होते। अगर मदद मांगने गए कश्मीरी पंडितों को भी गुरु तेग बहादुर ने ऐसे ही टाल दिया होता तो इतिहास में अमर कहां होते !" अबरार ने आयशा को शांत किया और कुछ दिन अपने मायके जाने की सलाह दी। लेकिन हर तरफ कोरोना वायरस से लोगों की मौतों में हो रहे इज़ाफे का ही डर पसरा था।

र फिर उसी शाम प्रधानमंत्री ने लॉकडॉन घोषित कर दिया। अबरार ने फटाफट जाकर राशन-पानी का बंदोबस्त किया। आयशा ने सब दरवाजों के हैंडल सैनिटाइज किए। न आने वाले कल की खबर, न आज का भरोसा और खबरों में मरते लोगों के बढ़ते आंकड़े, सब कुछ डरावना होता जा रहा था। ऊपर से चौथे माले वालों के यहां आने-जाने वालों का तांता खत्म नहीं हो रहा था, चौकीदार भी अपने बीवी बच्चों समेत गांव चला गया। लॉकडाउन में भी बिना मास्क आने-जाने वालों को देखकर आयशा कई बार सोचती कि इनकी शिकायत पुलिस में कर दे। लेकिन एक दिन कूड़ादान बाहर रखते हुए उसने देखा की चौथे माले से एक पुलिसवाला वर्दी में रूमाल से हाथ-मूंह पोंचता हुआ उतर रहा है। आयशा ने फटाफट आकर दरवाजा बंद किया और घिन्न से भर गई। हताशा बढ़ती जा रही थी और दोतरफा थी। इधर जिन सोशल मीडिया ग्रुप्स में जुड़ कर अबरार ऑक्सीजन सिलेंडर और हस्पताल के बेड की खबर जरूरतमंदों तक पहुंचा रहा था, पुलिस ने कालाबाजारी के डर से वो सब बंद कर दिए थे और इधर चौथे माले से बेखौफ आते-जाते क्लाइंट्स का सिलसिला बदस्तूर जारी था। 

रेशानियां जब भी आती हैं, लश्कर में आती हैं। हज़ार एहतियात के बावजूद शादी की सालगिरह के दिन आयशा को बुखार चढ़ गया और तबियत बिगड़ने लगी। दोस्तों को सलाह पर अबरार ने कोविड टेस्ट करवाया तो दोनों ही पॉजिटिव आए। आयशा ने खुद को कोने वाले कमरे में आइसोलेट कर लिया जिसकी खिड़की डक्ट की तरफ खुलती थी। बुखार में पड़े-पड़े पंखे को देखती हुई आयशा के कानों में ऊपरवाले मकान से आने वाली आवाज़ें पड़ती रहतीं। कोई जोड़ा बंगाली में बातचीत करता, कोई दो लड़कियां अटैच्ड बाथरूम में नहाते हुए बातें करतीं, कोई क्लाइंट खिड़की पर आकर सिगरेट का धुआं छोड़ता तो कोई फोन पर 5 मिनिट में घर पहुंचने की बात करता सुनाई देता। बुखार में तपते हुए आयशा बार-बार सोचती कि उसने क्या ऐसी गलती की है कि उनके घर के ऊपर ऐसा जहन्नुम आ बसा है। कई बार वो तवायफों पर लिखे अपने लेख के बारे में सोचती और शर्मिंदा होती कि वो कैसी दोगली है, जो कागज़ों पर तो धंधे वालियों के लिए समझदारी रखती है मगर अपने घर के ऊपर चल रहे धंधे के खिलाफ कभी मकान मालिक तो कभी सोसाइटी में शिकायतें दिए जा रही है। सोच-सोच कर हल्कान होती आयशा की तबियत और बिगड़ने लगी। उधर अबरार भी बीमार था मगर आयशा और अपने लिए रोटी-सब्जी दवा-पानी की जुगत करता रहा। हस्पताल में बेड और ऑक्सीजन सिलेंडर न मिलने का डर अबरार को भी उतना ही था। दवाइयां खा-खा कर मुंह कसैला हो गया था, शरीर कमज़ोर पड़ रहा था, दिमाग पहले से ही परेशान। 

आयशा को डर था कि अगर उसे मायके लेजाने के लिए रिश्तेदार आगए तो ऊपर चल रहे धंधे को देखकर क्या कहेंगे कि हम कैसे गटरनुमा माहौल में रह रहे हैं। इसी ऊहापोह में आयशा ने गाड़ी बुक की और अबरार को गांव चलने के लिए मनाया। अगले दिन सुबह 5 बजे अपना ज़रूरी सामान पैक कर दोनों मियां-बीवी गांव के लिए निकल गए। घर पर ताज़ी आब-ओ-हवा और खाने से दोनों की सेहत में कुछ ही हफ्तों में सुधार आ गया। 

एक दिन चौकीदार का फोन आया तो अबरार घबरा गया। पिछले दिनों इतनी मौतों की खबरें सुनी थीं कि अब किसी भी खबर से दिल डरने लगा था। चौकीदार बोला, "साब, नमस्ते! वो चौथे माले वाले चले गए!" 
"चले गए? पक्का? कब ? पक्का?" अबरार ने पूछा। "हां, दरअसल, महिला मोर्चा वाली बीबियां आई थीं, उन्होंने छापा मारा, पुलिस भी थी। कई लड़कियां  और आदमी धरे गए! अच्छा हुआ ससुरे गए मादरचोद! हम तो बच्चियों और घरवाली को भी गांव छोड़ आए थे इसी डर से!"
अबरार ने दौड़ कर आयशा को खबर सुनाई। आयशा ने अबरार को गले लगा कर ऊपरवाले का शुक्रिया अदा किया। "अब बेफिक्र होकर वापिस लौट सकेंगे!" आयशा ने कहा।

 वापसी के वक्त आयशा और अबरार एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले कार की पिछली सीट पर बैठे थे और गाना बज रहा था, 
'हमको जो ताने देते हैं,
हम खोए हैं इन रंगरलियों में..
हमने उनको भी छुप-छुपके
आते देखा इन गलियों में..!
ये सच है झूठी बात नहीं
तुम बोलो ये सच है ना..?!

कुछ तो लोग कहेंगे
लोगों का काम है कहना।'


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©ऐश्वर्या ठाकुर

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