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Showing posts from November, 2020

सूफ़ी फाइलें | शाह लतीफ़ और महिला किरदार

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आबिदा परवीन ने जिस ' शाह लतीफ़ ' का कलाम गाकर दुनिया को मदमस्त कर दिया, उसी अब्दुल शाह लतीफ़ का उर्स इस दफा कोरोना के चलते नहीं मनाया जा रहा।  अब्दुल लतीफ़ एक ऐसे सूफी संत हुए, जिन्होंने सिंध के आम मेहनतकश लोगों की ज़िंदगी पर अपनी कविताएं लिखीं और इसीलिए शाह लतीफ़ ' सिंधी भाषा के शेक्सपियर' भी कहलाए गए। शाह लतीफ़ की कविताओं में मुगलिया हुक़ूमत के पतन के बाद आपसी झगड़ों में उलझे हुए सूबा-ए-सिंध की हूक सुनाई देती है !  शाह लतीफ़ ने जोगियों और फकीरों की सोहबत में दुनियावी मोह छोड़कर सिंध के रेतीले टीलों (भिट) में अपना डेरा जमाया था, इसीलिए उनके डेरे को आज ' भिट शाह' के नाम से भी जाना जाता है।  शाह लतीफ़ की मशहूर काव्य रचना ' शाह जो राग ' में सिंध की लोककथाओं से मूमल, सस्सी, मारवी, नूरी, लीलां, सूरथ जैसे महिला किरदार लिए गए हैं, जिनके किस्सों में वफादारी और उसूलपरस्ती के साथ जुर्रत भी दिखाई देती है। शाह लतीफ़ के लिखे इस 'रिसालो' की गूंज मुल्तान से राजस्थान होते हुए, काठियावाड़ और बलोच लोकगीतों में भी मिलती है।  शाह लतीफ़ की भिट शाह (स...

सूफ़ी फाइलें | दाता दरबार

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" वंगां चढ़ा लो कुड़ियों, मेरे दाता दे दरबार दियां"   लोकगायक आरिफ़ लोहार अपना चिमटा बजाते हुए जुगनी को जिस दाता दरबार की वंगां (चूड़ियां) चढ़ाने को कहते हैं, वो है सूफ़ी संत ' अल हुजविरी' या 'दाता गंज बख्श' की लाहौर (पाकिस्तान) में बसी मज़ार, जहां 6 अक्तूबर से सालाना उर्स शुरू हो गया।  दाता दरबार का नाम दक्षिण एशिया के सबसे मकबूल सूफ़ी तीर्थों में लिया जाता है। कमाल की बात यह है कि मुग़ल शासनकाल से लेकर नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली की छापामारी के दौर तक में कभी दाता दरबार पर आँच नहीं आई। महाराजा रंजीत सिंह के राज के दौरान भी दाता दरबार की साख बरक़रार रही और अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान भी इस दरगाह को किसी तरह से बदलने या नुकसान पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं की गई।  जुल्फिकार भुट्टो ने जहां दाता दरबार में एक स्वर्ण दरवाज़ा चढ़ाया तो जनरल ज़िया ने यहां एक विशाल मस्जिद बनवाकर अपनी राजनीतिक वैद्यता पर मुहर लगवाई। बेनज़ीर भुट्टो के खिलाफ़ जब सियासी दुष्प्रचार किया गया कि वह पश्चिमी सभ्यता में पली-बड़ी नास्तिक खातून हैं तो बेनज़ीर ने भी दाता दरबार मे...

सूफ़ी फाइलें | गांधी की आख़िरी तीर्थयात्रा

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महरौली की गलियों में बसी है ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह , एक ऐसे सूफी संत जिनके नाम पर क़ुतुब मीनार का नाम रखा गया और जिन्होंने मोईनुद्दीन चिश्ती (अजमेर) के सिलसिले को आगे बढ़ाया।  महात्मा गांधी , जो अमूमन किसी मंदिर-मस्जिद में नहीं जाते थे, उन्होंने अपनी हत्या से महज़ तीन दिन पहले यानि 27 जनवरी 1948 को इस दरगाह में हाज़िरी दी थी। कहा जा सकता है कि क़ुतुब साहेब दरगाह की ज़ियारत उनकी ज़िन्दगी की आखिरी तीर्थयात्रा जैसी थी।   1947 के दंगों में बख़्तियार काकी की इस दरगाह को काफी नुकसान पहुंचाया गया था। जब गांधीजी ने सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ़ 1948 में आमरण अनशन शुरू किया तो उनकी 6 मांगों में से एक मांग थी कि प्रायश्चित के तौर पर हिन्दू और सिख, दंगों में तोड़ी गई बख़्तियार काकी की दरगाह की मरम्मत करवाएं.. ..और गांधीजी की हत्या के बाद उनकी इच्छानुसार दरगाह की मरम्मत करवाई भी गई। दंगों के बाद दरगाह में सालाना उर्स नहीं मनाया गया था, लेकिन गांधी की हाज़िरी के बाद उर्स मनाया भी गया और सिख भाइयों ने उसी सूफ़ी बरामदे में कव्वाली गाकर उसी धार्मिक समरसता को ब...

सूफ़ी फाइलें | सूफीवाद और सिक्खी की सांझी परम्परा

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"फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से,  हिन्द को इक मर्द-ए-कामिल ने जगाया ख़्वाब से.." यह अल्फ़ाज़ लिखे अल्लामा इकबाल ने सिख धर्म के संस्थापक ' गुरु नानक देवजी ' की शान में। आज 'गुरुपूरब' या 'प्रकाश पर्व' के तौर पर गुरु नानक देवजी की जयंती पूरी दुनिया में मनाई जा रही है। ऐसे में गुरुनानक के भक्ति आन्दोलन और सूफीवाद से जुड़ाव को पलटकर देखने के लिए भी यह वक्त सबसे मुनासिब है।  बेदी समुदाय (वेद पढ़ने वाले) में जन्मे नानक ने अपने धर्म-संप्रदाय की खींची लकीरों को लांघ कर दुनिया भर में तीर्थयात्राएं की, जिन्हें नानक की ' उदासियां ' कहा गया। अपनी उदासियों के दौरान उन्हें सानिध्य मिला नाथ जोगियों का और ऋषि-मुनियों का। ऐसी ही एक उदासी (तीर्थ यात्रा) की उन्होंने मक्का (हज) की और अफ़ग़ानिस्तान, बग़दाद की, जहां उन्होंने इस्लामी अध्यात्म/ सूफीवाद को और करीब से जाना और समझा।    मकबूल सूफी संत ' बाबा फरीद' की वाणी से नानक इतना प्रभावित हुए कि उसे ' गुरुबाणी ' में भी शामिल किया गया। हिंदुस्तान में समकालीन उदय होने के कारण सूफीवाद ...