हिस्ट्री डिग्री सेल्सियस
मेरे अपने बुद्धिजीवी मित्र, जिनमें कई शिक्षाविद भी शामिल हैं, अक्सर किसी भी ऐसी ऐतिहासिक व्याख्या को, जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाती, "व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ज्ञान" कहकर खारिज कर देते हैं। इनका मत यह भी रहता है कि इतिहास पर आखिरी मोहर एक प्रशिक्षित इतिहासकर की ही हो, तभी वह प्रमाणिक कहलाएगा।
मज़े की बात यह है कि यही बौद्धिक जन अक्सर ऐसे टिप्पणीकारों और विशेषज्ञों को अपने पैनल, पॉडकास्ट और सेमिनारों में इतिहास पर परिचर्चा के लिए बुलाते हैं, जो खुद 'औपचारिक' तौर पर इतिहासकार (यानि इतिहास में स्नातक/स्नातकोत्तर) नहीं होते। मगर बावजूद इसके, ये इतिहास विशेषज्ञ और स्व-प्रशिक्षित इतिहासकार अपनी वैचारिकी के आधार पर अपना पक्ष बड़ी मज़बूती से रखते हैं।
उदाहरण के लिए, राम पुनियानी को लें जो अक्सर प्रतिष्ठित मंचों पर इतिहास पर चर्चा करते दिखते हैं। असल में, वे पेशे से एक मेडिकल शोधकर्ता और डॉक्टर हैं। इतिहास में उनकी 'रुचि' उन्हें ऐतिहासिक तथ्यों पर आधिकारिक तौर पर टिप्पणी करने के लिए योग्य नहीं ठहरा सकती। लेकिन उन्हें इसलिए आमंत्रित किया जाता है क्योंकि वे वही बोलते हैं जो हमारे साथी सुनना चाहते हैं!
इसी तरह, यह कितना मज़ेदार है कि हमारे उदारवादी साथी जवाहरलाल नेहरू की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' को 'महत्वपूर्ण ऐतिहासिक टेक्स्ट' बताते नहीं थकते, और अक्सर उसे और उसपर आधारित धारावाहिक 'भारत एक खोज' को गाहे-बगाहे ऐतिहासिक संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल भी करते हैं। लेकिन क्या नेहरू हिंदुस्तान के जटिल इतिहास को अपनी (व्युत्पन्न) रचना में संकलित करने के लिए एक 'योग्य प्रशिक्षित इतिहासकार' थे? जहाँ तक मुझे पता है, नेहरू के पास प्राकृतिक विज्ञान में ऑनर्स की डिग्री थी और उन्होंने बाद में कानून की पढ़ाई की। यह अद्भुत है कि एक प्राकृतिक विज्ञान का छात्र जो बाद में वकील बना, उसके द्वारा लिखे गए सांस्कृतिक इतिहास को उदारवादी बुद्धिजीवियों द्वारा तथ्यपरक मान लिया जाता है, जबकि इन्हीं द्वारा क्षेत्रीय भारत के बाकी सभी मौखिक ऐतिहासिक वृत्तांतों को ज्यादातर मिथक कहकर रद्द कर दिया जाता है।
इसी तरह हिंदी लेखक-आलोचक प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल, सार्वजनिक मंचों पर इतिहास के आधिकारिक वक्ता के तौर पर आमंत्रित रहते हैं। दरअसल, प्रोफेसर अग्रवाल ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से हिंदी साहित्य में पीएचडी की है, और उनकी विशेषज्ञता 'कबीर भक्ति के सामाजिक अर्थ' पर है। और दिलचस्प बात यह है कि वे भी ईमानदारी से खुद को Historian of Ideas & Literature ही कहते हैं मगर यह भी सच है कि हममें से आधे लोग 'इतिहास पर उनके दृष्टिकोण' को ही मानक इतिहास मानते आए हैं।
हिंदी जगत के एक और जाने-माने नाम हैं अशोक कुमार पांडेय, जिन्होंने कश्मीर, कश्मीरी पंडितों और फिर सावरकर, गांधी की हत्या आदि का इतिहास लिखा। लेकिन तकनीकी रूप से देखें तो पांडेय भी स्वयं में एक 'प्रशिक्षित' इतिहासकार नहीं हैं, क्योंकि वे अर्थशास्त्र के छात्र रहे हैं। दिलचस्प यह है कि वे 'द "क्रेडिबल" हिस्ट्री' नामक एक यूट्यूब चैनल भी चला रहे हैं, जिसके लाखों फॉलोवर हैं,जो 'इतिहास पर उनका वर्ज़न' सुनना चाहते हैं!
मुद्दा इन स्थापित इतिहासकारों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना नहीं है, बल्कि यह उजागर करना है कि कैसे शोधपरक इतिहासलेखन के लिए 'इतिहास की डिग्री' इकलौता मापदंड नहीं हो सकती। इतिहासबोध के लिए किसी प्रमाणपत्र की दरकार लाज़िम नहीं।
समस्या वहाँ है जब बुद्धिजीवी वर्ग विपरीत विचारधारा के इतिहासकारों या शोधकर्ताओं द्वारा उद्धृत ऐतिहासिक संदर्भों और स्रोतों को उनकी प्रामाणिकता की परवाह किए बिना "व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ज्ञान" कहकर खारिज कर देता है। वहीं दूसरी ओर, यही बुद्धिजीवी उन गैर-इतिहासकारों का प्रचार और प्रशंसा करते हैं जो उनके लिए उपयोगी और सुविधाजनक नरेटिव को जाने-अनजाने बल देते मालूम होते हैं। इसे ही शास्त्रों में 'पॉलिटिक्स ऑफ कनवीनियेंस' कहा गया है!
आज के दौर में पनपा कथित "व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ज्ञान" दरअसल इतिहासलेखन में वैकल्पिक मंच की तलाश ही है क्योंकि मुख्यधारा विमर्श में विपरीत विचारों को या तो अनसुना किया जाता है, दबाया जाता है या फिर ख़ारिज कर दिया जाता है। "व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ज्ञान" को अकादमिक सभ्रांतवादी चाहे खारिज करें लेकिन देखा जाए तो यह इतिहासलेखन का लोकतंत्रिकरण है। हालांकि इसमें मिलावट भी हुई है, इतिहास विकृतिकरण का दायरा भी बढ़ा है लेकिन अकादमिक इतिहास-लेखन कौनसा पॉलिटिकल प्रोपगैंडा-विहीन रहा है!
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