यह कैसी पर्दादारी है?

हम एक संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं जब दुनिया के एक कोने में हिजाब का विरोध हो रहा है और दूसरे कोने में हिजाब के पक्ष में अदालती जिरह चल रही है।हालही में राजस्थान के एक गाँव की सरपँच सोनू कंवर मंच पर घूंघट ओढ़कर पहुंचीं और अंग्रेजी में स्वागत भाषण दिया, जिसकी तारीफ़ यह कहकर की जा रही है कि घूँघट मे रहकर भी तरक्की हो सकती है। जबकि देखा जाए तो शर्म लाज लिहाज के नाम पर औरत को कपड़े की परिधि से ढांपने को चाहे धर्म के नाम पर हिजाब कहो या संस्कृति के नाम पर घूंघट या पर्दा, बात एक ही है। 

मुझे याद आता है मेरी दादी की एक भी तस्वीर हमारे घर पर नहीं थी & बहुत ढूंढने पर पुराने एल्बम में से जो एक धुंधली सी फोटो निकली,उसमें भी दादी ने चेहरे पर 2 फुट लम्बा घूंघट ओढ़ा हुआ था। आज भी कई गांव में औरतें अपने बेटे की उम्र तक के लड़कों, आदमियों और दामाद तक से घूंघट करती हैं। 

Sita's Daughters: Coming Out of Purdah किताब में Leigh Minturn खालापुर गांव की case study के बहाने राजपूत औरतों के पर्दा प्रथा से बाहर निकलने के सामाजिक परिवर्तन की वजूहात को बड़ी सूक्ष्मता से समझाती हैं। लेकिन पर्दा प्रथा सिर्फ़ राजपूतों तक ही महदूद नहीं रही। पुष्करणा ब्राह्मणों में भी घूंघट प्रथा का प्रचलन रहा, जबकि दक्षिण के ब्राह्मणों में परदादारी नहीं मिलती। H A ROSE के शोध में इसकी तस्दीक मिलती है। जैसा कि माना जाता है, घूंघट प्रथा का प्रचलन सिर्फ़ कथित सवर्ण जातियों में ही नहीं, बल्कि ओबीसी और दलित समाज में भी होता मिलता है। अमूमन आदिवासी बहुल हिमाचल प्रदेश में यूं तो पारंपरिक तौर पर महिलाएं आत्मनिर्भर और आज़ाद होती हैं पर घूंघट जैसी मैदानी प्रथा ने यहां भी घुसपैठ कर ली है और समाजी सियासी वैधता भी पा ली है। आज तक उत्तर भारत में हरियाणा जैसे राज्यों में घूंघट को सरकारी और सामाजिक वैधता मिलती रहती है। प्रेम चौधरी के शोध में मिलता है कैसे हरित क्रांति के बाद औरतें खेती-बाड़ी में तो शामिल की गईं पर पुरुष प्रधान समाज में घूंघट छोड़ना अब तक मुमकिन नहीं हो पाया। 

बंगाली समाज में जमींदारी व्यवस्था के साथ पर्दा प्रथा दूसरे रूप में सामने आई। यहां औरत-मर्द के दायरे पृथक कर दिए गए।औरतों के खाने_रहने के कमरे अलग & मर्दों के सामाजिक ज़ोन अलग कर Gendered spacial segregation किया गया।टैगोर की 'घोरे बायरे' औरत_मर्द की अलग अलग बना दी गई दुनियाओं का ही ब्यौरा है। शाही औरतों के लिए segregation के नियम और कड़े हुए, पर्दा प्रथा को वास्तुकला ने अमलीजामा पहनाया! महलों के जालीदार झरोखों के पीछे से झांकती रानियां हों या ज़नाना में औरतें को अलग रखने के कड़े प्रबंध, संस्कृति और निर्माण औरत को पर्दे के पीछे छुपाने में एक टूल की तरह इस्तेमाल हुए।

पाकिस्तान में जनरल ज़िया उल हक़ जैसे कट्टरपंथी शासक ने आते ही औरतों के लिए बकायदा 'चादर और चारदीवारी' का फरमान निकाला और औरतों को धर्म की लाठी से दीवारों के पीछे धकेलने का काम किया। उधर पश्तून समाज में तो पर्दा आज भी ज्यों का त्यों कायम है।

हालांकि राजस्थान जैसे राज्यों में अब सरकारी पहल के चलते घूंघट के खिलाफ़ मोर्चा खुलने लगा है। दलितों में भी देखादेखी प्रचलित घूंघट प्रथा अब कम होती जा रही है। लेकिन धर्म, संस्कृति, मान मर्यादा के नाम पर औरतों पर थोपे गए पर्दे हों, हिजाब हों या royal veil, आज नहीं तो कल, छूटेंगे ही।

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