Posts

Showing posts from 2024

यह कैसी पर्दादारी है?

Image
हम एक संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं जब दुनिया के एक कोने में हिजाब का विरोध हो रहा है और दूसरे कोने में हिजाब के पक्ष में अदालती जिरह चल रही है।हालही में राजस्थान के एक गाँव की सरपँच सोनू कंवर मंच पर घूंघट ओढ़कर पहुंचीं और अंग्रेजी में स्वागत भाषण दिया, जिसकी तारीफ़ यह कहकर की जा रही है कि घूँघट मे रहकर भी तरक्की हो सकती है। जबकि देखा जाए तो  शर्म लाज लिहाज के नाम पर औरत को कपड़े की परिधि से ढांपने को चाहे धर्म के नाम पर हिजाब कहो या संस्कृति के नाम पर घूंघट या पर्दा, बात एक ही है।  मुझे याद आता है मेरी दादी की एक भी तस्वीर हमारे घर पर नहीं थी & बहुत ढूंढने पर पुराने एल्बम में से जो एक धुंधली सी फोटो निकली,उसमें भी दादी ने चेहरे पर 2 फुट लम्बा घूंघट ओढ़ा हुआ था। आज भी कई गांव में औरतें अपने बेटे की उम्र तक के लड़कों, आदमियों और दामाद तक से घूंघट करती हैं।  Sita's Daughters: Coming Out of Purdah किताब में Leigh Minturn खालापुर गांव की case study के बहाने राजपूत औरतों के पर्दा प्रथा से बाहर निकलने के सामाजिक परिवर्तन की वजूहात को बड़ी सूक्ष्मता से समझाती हैं।...

बुल्डोजर न्याय 'हाय-हाय' तो ट्रैक्टर भीड़तंत्र 'अमर-रहे' क्यों?

Image
पिछले कुछ समय से बुल्डोजर या JCB मशीन का बढ़ा-चढ़ाकर राजनीतीकरण किया जा रहा है। हालही में सुप्रीम कोर्ट की मदालख्त के बाद रवीश कुमार ने एक प्राइमटाइम किया, 'न्यायमूर्ति बुलडोजर' नाम से। अनहद और United Christian Forum के एक आगामी कार्यक्रम में भी एक सेशन रखा गया है: Bulldozer Raj. पीछे प्रलेस द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भी सेशन रखा गया था, "क्या-क्या तोड़ता है बुल्डोजर".. The Wire ने एक लेख भी छापा ' The Bulldozer Is the Latest Symbol of Toxic Masculinity to Create Havoc in the Populace '. BBC ने भी एक लेख छापा How bulldozers became a vehicle of injustice in India. जमा हासिल यही है बुल्डोजर के राजनीतीकरण और विध्वंसक इस्तेमाल से इसकी छवि 'फौजी टैंक' वाली बनाई जा रही है, जो सिर्फ़ तोड़फोड़ और दहशत का सबब हो।  लेकिन बतौर एक आम नागरिक, मैं जेसीबी (बुलडोजर) की इस 𝗧𝘆𝗽𝗲𝗰𝗮𝘀𝘁𝗶𝗻𝗴 के सख्त खिलाफ हूं। देश में नैनो (पश्चिम बंगाल) और मारुति (संजय गांधी) को तो राजनैतिक औजार की तरह इस्तेमाल किया ही गया है लेकिन अब जेसीबी जैसी एक उपयोगी मशीन को ...

राजपूतिकरण के मोहपाश में फंसा बहुजन समाज

Image
माननीय हाई कोर्ट ने हालही में फैसला दिया कि जातीय भेदभाव से बचने के लिए एक व्यक्ति अपना जातीय उपनाम बदल सकता है या जो मन करे, वह जातीय उपनाम लगा सकता है।  इस फैसले से सबसे पहले तो ' दहाड़' (फिल्म) का वह सीन याद आया जब दलित हवलदार अंजली भाटी (सोनाक्षी सिन्हा) अपने पिता द्वारा अपनाया हुआ 'भाटी' उपनाम त्यागकर स्वाभिमान से अपना असली उपनाम (मेघवाल) अपनाती है।  लेकिन इसी टेंडेंसी को टटोलते हुए हमें मिलते हैं एक्टर सुशांत सिंह (जाट), जिन्होंने पत्रकार सुमित चौहान (दलित पत्रकार, जो खुद भी क्षत्रिय कुल CHAUHAN उपनाम लगाते हैं) को दिए एक ताज़ा इंटरव्यू में कहा कि उन्होंने अपना नाम सुशांत कुमार से सुशांत सिंह बदल लिया था क्योंकि उन्हें सुशांत 'सिंह' में ज़्यादा 'वज़न' लगता था।  रवीश की रिपोर्ट का एक पुराना एपिसोड देख रही थी जिसमें रवीश जी और सर्वप्रिया उत्तरप्रदेश के एक कुर्मी बहुल गांव में चुनावी जायज़ा लेने जाते हैं और गांववाले उन्हें बताते हैं कि वे कुर्मी हैं लेकिन 'सिंह' उपनाम लगाते हैं।   ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की ...

पौराणिकता के मायाजाल में उलझे महाराणा प्रताप

Image
निर्मित धारणाओं और छवि चमकाने वाली पीआर फैक्ट्रियों के समय में , यह आम बात है कि इंसानों को ' अतिमानव ' बना दिया जाता है और सत्य की जगह   पोस्ट ट्रुथ ले लेता   है। इतिहास का तोड़ा - मरोड़ा जाना , अतिशयोक्ति या दुष्प्रचार करना इस वैश्विक प्रवृत्ति में कोई नई बात नहीं है।   इतिहास में पहले भी हल्के बदलाव के साथ प्राच्यवादी नज़र ( ओरिएंटलिस्ट गेज़ ) ने इस तरकीब का इस्तेमाल उस लेंस को बदलने के लिए किया था , जिससे दुनिया पूर्व को देखती थी। इसी तर्ज़ पर   शीत युद्ध के दौर में सिनेमा ने कुछ समुदायों को बदनाम करने या विशिष्ट विचारधाराओं को आगे बढ़ाने के लिए एक प्रचार उपकरण के रूप में काम किया। ऐसे ही   अफ्रीकी और एशियाई इतिहास , साहित्य और संस्कृति के ' आंग्लीकरण ' ने एशियाई और अफ्रीकी मूल के लोगों के लिए उनकी अपनी पहचान को ही पराया बना दिया गया।   मध्यकालीन मेवाड़ के शासक , महाराणा प्रताप का मामला भी कुछ ऐसा ही है , जिनकी छवि को क...