नेहरूकालीन सिनेमा और गुड प्रोपेगेंडा
चाहे Non Aligned Movement का सेहरा जवाहरलाल नेहरू के सिर बांधा जाए लेकिन 1950 में गूंजते हिंदी-रूसी भाई-भाई नारों का दौर भारत और रूस के बीच मौजूद एक quasi-alignment का दौर भी था। 1953 में नेहरू की रूस यात्रा ने दोनों देशों के बीच संबंधों की मजबूती को चिह्नित किया और विशेष रूप से, फिल्म-व्यापार के लिए एक नया रास्ता खोला। सिनेमा हमेशा से सांस्कृतिक कूटनीति (cultural diplomacy) को बढ़ावा देने का एक बड़ा औजार रहा है और प्रोपेगेंडा हमेशा दहाड़ कर सुनाया जाने वाला माध्यम न होकर चुपके से एजेंडापरस्ती का रास्ता निकालने वाला एक माध्यम भी लम्बे समय से बनता रहा है। इसी फ़िल्म (माध्यम) से को गई soft diplomacy का इशारा हालही में आई सीरीज जुबली में भी मिलता है।
1953 में स्टालिन की मौत के बाद निकिता ख्रुश्चेव के दौर में रूस और भारत में सिनेमाई जुगलबंदी की शुरुआत हुई। रूस ने भारत में फिल्मों के आयात-निर्यात के लिए दफ्तर खोलने शुरू किए और चिन्नामुल (The Uprooted/Obezdolennye)और धरती के लाल (Children of the Earth/Deti zemli) जैसी फिल्मों को रूस में रिलीज़ किया।
लेकिन हिंदुस्तानी फ़िल्मों को रूसी सरजमीं पर दिखाए जाने के लिए उनका रूसी विचारधारा के साथ तालमेल बैठना अनिवार्य था। इसी शर्त के चलते 1950 के दशक की फिल्मों में socialist ideology की छाप दी दिखने लगी। उत्पीड़ितों के लिए सहानुभूति, समाजवादी समतावाद और बुराई पर अच्छाई की जीत के विषयों के इर्द-गिर्द घूमने वाली फिल्मी कहानियां रूसी विचारधारा के लिए माकूल थीं।
सोवियत सांस्कृतिक संगठन, भारत के इप्टा जैसे वामपंथी संगठनों के साथ पहले से ही नियमित संपर्क में थे, जो सोवियत क्रांति से गहराई से प्रेरित थे। ऐसे ही इप्टा के कलाकारों के साथ वाम विचाराधारा का भारतीय सिनेमा में प्रवेश हुआ और 'दो बीघा ज़मीन', 'श्री 420', 'मधुमति' 'आवारा', 'राही', जैसी फ़िल्मों से good propaganda की इब्तिदा हुई।
ख़्वाजा अहमद अब्बास और राज कपूर का सिनेमा इसी धारा को कमर्शियल सिनेमा के रास्ते आगे लेकर गए। फ़िल्म लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास खुद को “non-party Communist (and) Socialist" कहा करते थे और साथ ही बलराज साहनी, कैफ़ी आज़मी और सरदार जाफरी जैसे कॉमरेड स्क्रिप्टराइटर, जो सोवियत साहित्य और ख्यालों से मुतासिर थे, भारतीय सिनेमा में अपनी रचनात्मक दख़ल दर्ज करने लगे। ख़्वाजा अब्बास ने एक संयुक्त इंडो-सोवियत प्रोडक्शन 'परदेसी' (1957) (अंग्रेजी शीर्षक, 'जर्नी बियॉन्ड थ्री सीज़') के हिंदी संस्करण का निर्देशन किया, जो रूस के सबसे महान साहसी-यात्री अफानसी निकितिन पर आधारित थी। रित्विक घटक की फिल्म 'नागरिक' (1953) चाहे रिलीज़ ना हुई हो मगर साफ तौर पर यह इप्टा के मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित थी। लेनिन और स्टेलिनग्राद की रक्षा पर लिखे गाथागीत, लाल सेना की वीरता, 'स्टालिन कॉल्स' लिखने वाले क्रांतिकारी कजाख कवि जाम्बुल जाबिर का भारत में उर्दू अनुवाद होना 1940-50 के दौर में IPTA और रूस के सांस्कृतिक कनेक्शन का सबूत था। इनके साथ वीपी साठे और शैलेंद्र ने अपनी सिनेमाई लेखनी से समाजवादी यथार्थवाद और लोकप्रियता के बीच एक कड़ी जोड़ने का काम किया।
आज के कोलाहल में गूंजती फिल्मी प्रोपेगेंडा की प्रतिध्वनि से हम नेहरूवियन दशकों के रूसी प्रोपेगेंडा को अलग करके नहीं देख सकते। हालांकि अगर 'गुड प्रोपेगेंडा' बनाम 'बैड प्रोपेगेंडा' की बात हो तो निश्चित ही 50s 60s के उस दौर का सिनेमा आज के बुद्धिजीवियों द्वारा 'गुड प्रोपेगेंडा' की श्रेणी में ही गिना जाएगा।
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