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Showing posts from May, 2023

ओमप्रकाश वाल्मीकि का रचनासंसार और 'ठाकुर' का रूपक

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अक्सर popular discourse में और दलित विमर्श के संदर्भ में बौद्धिकों और प्रगतिशील समाज द्वारा ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की मार्मिक कविता ' ठाकुर का कुआं'  पढ़ी-पढ़ाई और सुनाई जाती है। इस कविता के माध्यम से सामंतवाद के निरंकुश आधिपत्य को उकेरा जाता है।  लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के विराट और वृहत्त रचनाकर्म में से चुनकर 'ठाकुर का कुआं' ही बार-बार उद्धृत किया जाना एक सवालिया निशान उठाता है। शैम्पेन सोशलिस्टों और पक्षपाती प्रगतिशीलोंं द्वारा सामंतशाही का ठीकरा एकमुश्त 'ठाकुर' के सिर फोड़ देना एक पुरानी रिवायत बन गया है, जिसके द्वारा राजपूतों को common enemy दर्शाकर '(ठाकुर)शोषक बनाम (दलित)शोषित' की चलताऊ बाइनरी खड़ी की जाती है।  यह पूरा प्रकरण खेदनीय इसीलिए है क्योंकि भारत में सामंत सिर्फ़ ठाकुर या राजपूत नहीं रहे; जाट, जट्ट सिख, गुज्जर, त्यागी, पठान, कुरैशी, भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ, मीणा जैसे सामाजिक गुट भी अलग अलग परिवेश और अलग अलग समय पर जमींदार और जागीरदार रहे। ऐसे में सामंतवाद का परिचायक सिर्फ एक ठाकुर को बना देना, वह भी एक चयनित कविता के पाठ-प...

नेहरूकालीन सिनेमा और गुड प्रोपेगेंडा

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चाहे Non Aligned Movement का सेहरा जवाहरलाल नेहरू के सिर बांधा जाए लेकिन 1950 में गूंजते हिंदी-रूसी भाई-भाई नारों का दौर भारत और रूस के बीच मौजूद एक quasi-alignment का दौर भी था। 1953 में नेहरू की रूस यात्रा ने दोनों देशों के बीच संबंधों की मजबूती को चिह्नित किया और विशेष रूप से, फिल्म-व्यापार के लिए एक नया रास्ता खोला। सिनेमा हमेशा से सांस्कृतिक कूटनीति (cultural diplomacy) को बढ़ावा देने का एक बड़ा औजार रहा है और प्रोपेगेंडा हमेशा दहाड़ कर सुनाया जाने वाला माध्यम न होकर चुपके से एजेंडापरस्ती का रास्ता निकालने वाला एक माध्यम भी लम्बे समय से बनता रहा है। इसी फ़िल्म (माध्यम) से को गई soft diplomacy का इशारा हालही में आई सीरीज जुबली में भी मिलता है।  1953 में स्टालिन की मौत के बाद निकिता ख्रुश्चेव के दौर में रूस और भारत में सिनेमाई जुगलबंदी की शुरुआत हुई। रूस ने भारत में फिल्मों के आयात-निर्यात के लिए दफ्तर खोलने शुरू किए और चिन्नामुल (The Uprooted/Obezdolennye)और धरती के लाल (Children of the Earth/Deti zemli) जैसी फिल्मों को रूस में रिलीज़ किया।  लेकि...

धरने की ज़मीन पर होती सियासी नूरा-कुश्ती

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रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (WFI) के चुनाव, जो इसी मई 2023 में होने वाले थे , हरियाणा के पहलवानों और मौजूदा डब्ल्यूएफआई अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह के बीच उठे झगड़े के कारण फिलहाल रोक दिए गए हैं।  भाजपा नेता बृजभूषण शरण सिंह को 2019 में तीसरी बार भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष के रूप में निर्विरोध चुना गया था और आगामी डब्ल्यूएफआई चुनावों में भी उनके द्वारा समर्थित किसी प्रत्याशी के चुने जाने की पूरी संभावना थी , अगर SAI ने विवाद के कारण अध्यक्ष पद चुनावों को नहीं रोका होता। कुश्ती के इस सियासी अखाड़े की घटनाओं में एक महत्वपूर्ण मोड़ 2011 में आया, जब रेसलिंग फेड ऑफ इंडिया (WFI) के अध्यक्ष पद के चुनाव में जम्मू कश्मीर के पूर्व पहलवान दुष्यंत शर्मा ने जीत हासिल की और WFI अध्यक्ष बने । लेकिन हरियाणा कुश्ती महासंघ (HWF) ने इस चुनाव को गैर कानूनी बताकर दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी और केस जीत गए; जिसके बाद कोर्ट ने WFI अध्यक्ष के पद के लिए फिर से चुनाव करवाने के लिए कहा।  गौरतलब है कि इसके बाद 2012 में बृज भूषण शरण सिंह पहली बार WFI अध्यक्ष चुने गए, वह भी हरियाणा के ...