एक सहरा और तीन किरदार : अभिषेक • सावजराज • ज़ुल्फिकार
एक सहरा और तीन किरदार :
अभिषेक श्रीवास्तव • सावजराज सिंह • जुल्फिकार अली कल्होड़ो
रिपोर्टर: अभिषेक श्रीवास्तव
अभिषेक यूं तो साम्यवाद के लाल गमछे से पहचाने जाते हैं लेकिन उनकी 'कच्छ-कथा' पढ़कर यह समझ आता है कि वे बाहर से जितने लाल दिखते हैं, भीतर से उतने ही हरे सोते जैसे हस्सास हैं। लेकिन अभिषेक कोई मूकदर्शक नहीं हैं, ना ही सिर्फ़ दर्जकर्ता हैं। अभिषेक एक खांटी participant observer हैं, जो अपने सब्जेक्ट से दोस्ती भी करते हैं, उसके सुख-दुख में शामिल भी होते हैं, उसका इतिहास भी कुरेदते हैं, उसके भविष्य की रेखा भी बताते हैं और साथ ही उसके वर्तमान पर अपनी आत्मनिष्ट टिप्पणी भी करते हैं। 'मोटरसाइकिल डायरीज़' के एक सीक्वल की तरह उनकी यात्रा नमक के खेतों से होती हुई लखपत के वीरान खंडहरों तक जाती है। सूफी पीरों के किस्सों से चकित होते हुए अभिषेक निश्छल भी लगते हैं तो कभी रजवाड़ों की शौर्यगाथाओं में गुम हुए सबाल्टर्न को तलाशते हुए वो पूर्वानुमेय (प्रिडिक्टेबल) भी लगते हैं। एक रिपोर्टर के झोले में बित्ता भर पूर्वाग्रह और चुटकी भर एजेंडा तो रहता ही है; 'कच्छ-कथा' में धरातल का नमक तो उतरना ही था लेकिन रिपोर्ताज इन दो 'सीक्रेट इंग्रेडिएंट्स' के बिना भी नीरस ही रह जाती। यायावर रिपोर्टर की आंखोंदेखी दर्ज हो जाने से अब कच्छ के 'सामूहिक स्मृतिलोप' की थोड़ी सी ही सही, भरपाई हुई है।
चश्मदीद: सावजराज सिंह
सावजराज खुद को लखपत का एक फक्कड़ पशुपालक कहता है, जो अपने ऊंटों और घोड़ों की रस्सी थामे मीलों चल सकता है। सावजराज को सभ्यताओं को देखना अच्छा लगता है, मगर दूर से। कच्छ और गुजरात का फ़र्क और फासला सावजराज को पारखी जौहरी की तरह मालूम है। अपने गांव देहात के चरागाहों में बैठा कविता लिखता है और यथार्थ के कड़वे बेरों को चख-चख कर शहराती समझदारी पर कटाक्ष की तरह दे मारता है। पराए खेतों में घुसकर चरने वाले अपने बागी घोड़े को बांधने का संघर्ष उसे साहित्यिक पेचीदगियों से बेहतर लगता है। यात्राओं और यथार्थ के बीच की गहरी ऊब से उकताकर कुंज पंछियों के आने का इंतज़ार करता है।
अन्वेषक: जुल्फिकार अली कल्होड़ो
जुल्फिकार सूबा-ए-सिंध में थारपरकर के रूखे इलाकों की ख़ाक छानते हुए चट्टानों पर खुदे मानव सभ्यता के चिह्नों की निशानदेही के काम में लगे हैं। तालाबों, धोरों और टिब्बों पर चढ़ते-उतरते हुए जुल्फिकार कभी राजपूत जुझार योद्धाओं के स्मृति चिन्हों से रूबरू होते हैं तो कभी भित्ति चित्रों से। कहीं मकबरों में तारीख-ओ-तहज़ीब की पदछाप तलाशते मिलते हैं तो कहीं सती मंदिरों में रिवायतों की उलझी डोरियां सुलझाते दिखते हैं। शताब्दी तो 21वीं है मगर जुल्फिकार उस टाईम-ट्रेवलर की तरह प्रतीत होते हैं, जो रेत घड़ी को उलट-पलट कर सदियों का सफर तय कर सकता हो।
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रेत के सीने पर रक्स करती कहानी के ये तीन क़िरदार, सिंध, लखपत और कच्छ की छवि को अपनी-अपनी तरह से तलाश और तराश रहे हैं।
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