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Showing posts from November, 2022

अल्लामा इक़बाल: परिंदों की दुनिया का दरवेश

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'अल्लामा इक़बाल'- एक ऐसा किरदार जिसने ' सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा ' जैसा नगमा लिख वतन-परस्ती से सफर शुरू किया, दर्शनशास्त्र की परतें टटोली और आखिरी मकाम में अध्यात्म की राह पर चलते हुए कर्मयोग का संदेश दिया। अल्लामा इकबाल ने अपनी शायरी में ' शाहीन ' (Falcon) और ' खुदी ' (Dynamic Self) जैसे प्रतीकों को इस्तेमाल कर गूढ़ फलसफे रचे।  "बयाबां की खलवत खुश आती है मुझको, अज़ल से है फितरत मेरी रहबाना.. परिंदों की दुनिया का दरवेश हूं मैं, कि शाहीं बनाता नहीं आशियाना.." "The solitude of the wilderness pleases me, By nature I was always a hermit.. I am the dervish of the kingdom of birds, The eagle does not make nests." अल्लामा इक़बाल के सूफीवाद पर किए गए काम को खंगाल कर देखने पर भी 'फकीरी' की नई परतें खुलती हैं। बेशक, इक़बाल ने सूफ़ी संत मौलाना रूमी को अपना मुर्शिद माना लेकिन इन्होंने सूफीवाद में 'फकीरी' को छोड़ कर्म और संघर्ष करने पर हमेशा ज़ोर दिया। सूफीवाद से उन्हें यह शिकवा रहा कि इसने इंसान को झूठा त्य...

उदासी पंथ : समन्वयता और संघर्ष का इतिहास

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आज पंथिक इतिहास को मुड़कर देखें तो सामने आता है कि बेशक, प्रथम गुरु बाबा नानक ने सिख पंथ की गुरगद्दी अपने पुत्र श्रीचंद की जगह गुरु अंगद देवजी को सौंपी मगर गुरु नानक देवजी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचन्द के चलाए 'उदासी संप्रदाय' की जड़ें आज भी सिख पंथ के साथ ही गुंथी हुई मिलती हैं।  उदासी पंथ शुरू करने वाले बाबा श्रीचंद ने मलामती सूफियों, जैन मुनियों और नाथ जोगियों का सा भेष धारण किया और दरवेशों की तरह भटकने, वेदांत और सिक्खी का संदेश बांटने और फिर डेरों पर लौटकर ध्यान करने की अलग राह दिखाई थी। लेकिन उनके रहते उदासी पंथ और सिख पंथ में कोई विरोधाभास या टकराव पैदा नहीं हुआ। खालसा की फौज जब मुगलों से लड़ने में मुब्तिला थी, तब आनंदपुर साहिब, हरिमंदिर साहिब और हजूर साहिब जैसे सिख गुरुद्वारों का प्रबंधन उदासी पंथ के महंतों ने देखना शुरू किया। कहते हैं, सन 1780 के आसपास उदासी साधुओं ने ही वह नहर खोदी जिससे ताज़ा पानी हरिमंदिर साहिब के पवित्र सरोवर में आकर मिलता है।  लेकिन 1920 के दशक में सिखों ने उदासी पंथी महंतों से गुरुद्वारों का प्रबन्धन...