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Showing posts from July, 2022

फूलन देवी : बंदूक से बुद्ध तक

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फूलन देवी ने पहली बगावत की अपनी ज़मीन अपने ही शरीकों द्वारा हड़पे जाने के खिलाफ़। फूलन देवी की दूसरी बगावत थी अपने पति द्वारा किए जाने वाले मैरिटल रेप के विरुद्ध। फूलन देवी की अगली बगावत थी एक पिछड़ी जाति की महिला होने के बावजूद मिलीजुली जाति वाले बागियों के टोले में शामिल होने की। बेहमई कांड की जिम्मेदारी कभी साफतौर पर फूलन ने ली ही नहीं। फूलन ने आगे चलकर उग्र विरोध किया अपने नाम पर बनाई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म बैंडिट क्वीन में परोसी गई मिथ्या का।  फूलन को अगर आप बैंडिट क्वीन जैसे manipulative cinema से जानते हैं या दस्यु सुंदरियों को लेकर छपी पल्प-फिक्शन-नुमा रिपोर्टों से, तो दोबारा सोचिए! फूलन देवी का 'पॉलिटिकल कैपिटल' की तरह आज तक दोहन करने वालों ने उसे देवी, नायिका और दस्यु सुंदरी बताकर उसके किरदार और कहानी की जैसी लीपापोती की है, वह न सिर्फ़ फूलन की छवि के लिए बल्कि एक न्यायाभिलाषी समाज के लिए भी घातक है।  प्रो दिलीप मण्डल 2017 में छपे अपने एक लेख में लिखते हैं कि फूलन देवी को ठाकुरों के मुकाबले खड़ा करने वाले दुष्ट लोग हैं। यहां जाति का ...

फ़िल्म समीक्षा: बाजरे दा सिट्टा (पंजाबी)

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बॉलीवुड में स्त्री-केंद्रित फ़िल्मों को लेकर जितना हल्ला और प्रचार किया जाता है, उससे काफ़ी बेहतर काम Regional Cinema में हो रहा है, और बड़ी सहजता के साथ। ऐसी ही एक स्त्री-केंद्रित पंजाबी फ़िल्म हालही में देखी, ' बाजरे दा सिट्टा ', जो लगातार बेहतर होते पंजाबी सिनेमा का सबूत है।  फ़िल्म की कहानी दो ऐसी बहनों पर आधारित है जो बेहतरीन गाती हैं मगर पितृसत्तात्मक परिवार/समाज के दबाव के चलते अपने हुनर को लोकलाज और अपने दाज की परतों तले दबाने को मजबूर भी हैं।  फ़िल्म 'पंजाब की कोयल' कहलाए जाने वाली मशहूर लोकगायिका सुरिंदर कौर और उनकी बहन प्रकाश कौर की याद भी दिलाती है।  सिनेमेटोग्राफी और गीत तो कमाल हैं हीं, साथ में फिल्म का ' सेपिया टोन्ड स्केप' एक बार के लिए दर्शक को पुराने पंजाब में खींच ले जाता है।  यूं तो पंजाब की औरतों को मैंने मर्दों के मुक़ाबिल हक़ से लड़ते-जूझते ही देखा है, लेकिन कुछ महीन समाजी फॉल्ट लाइन्स इस फ़िल्म ने उजागर की हैं, जो सामंती ग्रामीण परिवेश में बसने वाली हर औरत को आज भी झकझोरेगी और...