एंग्लो-सिख संबंध: इतिहास के ग्रे गलियारों से
अक्सर हमारा बौद्धिक-वर्ग इतिहास में अंग्रेज़ों के साथ रहे गुलाम भारतीय समूहों के संबंधों पर एकमुश्त ब्लैक एंड व्हाइट रुख अख्तियार कर उन सभी को नैतिक कटघरे में खड़ा कर देता है, जिन्होंने उस समय के मुताबिक एक व्यवहारिक पक्ष चुना। 17वीं शताब्दी से लेकर 1947 आते आते सियासी और समाजी हालात कई रूप में बदले और भारतीय प्रजा के, बतौर अधीनस्त, रुख में परिवर्तन देखने को मिला। ऐसा ही एक भारतीय समूह था सिखों का, जिनके अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ संबंधों को हम तफ्सील से साक्ष्यों सहित मुड़कर देखेंगे।
यूं तो सन 1758 में सिखों के दल खालसा ने जस्सा सिंह अहलूवालिया की अगुवाई में मुग़ल गवर्नर अदीना बेग और मराठों के साथ हाथ मिलाकर सरहिंद पर चढ़ाई भी की थी।¹ लेकिन एंग्लो-सिख संबंधों पर केंद्रित रहकर उन ऐतिहासिक पड़ावों का ज़िक्र करना सही होगा, जिनसे यह संबंध और मज़बूत हुए। याद रहे, एंग्लो-सिख दोस्ती परस्पर एक दूसरे की सीमा के सम्मान की शर्त पर कायम रही।
1771 में सिखों की भंगी मिस्ल के मजबूत सरदार, झंडा सिंह ढिल्लों ने अंग्रेज़ जनरल रॉबर्ट बार्कर को बाकायदा खत लिखकर यह इसरार किया कि सिख अंग्रेजों के साथ मधुर संबंध चाहते हैं।² बार्कर ने भी यह माना कि सिखों के रहते ईस्ट इंडिया कंपनी की हिंदुस्तानी रियासत में कोई और बाहरी ताकत अपने पांव नहीं पसार सकती।³
1809 की एंग्लो-सिख सन्धि जिसे ट्रीटी ऑफ अमृतसर भी कहते हैं, महाराजा रणजीत सिंह और अंग्रेजों के दरम्यान हुई, उसकी शर्त यही थी कि रणजीत सिंह सतलुज की मगरिबी दहलीज ना लांघें, ताकि फ्रांसीसियों को रोकने और अपना सतलुज के बाकि इलाके में कब्ज़ा बनाए रखने में अंग्रेज़ों को दिक्कत न आए।⁴ इसी सन्धि के फलस्वरूप महाराजा रणजीत सिंह पेशावर और कश्मीर को अपने राज में शामिल कर पाए।
बाद में हुई एंग्लो-सिख जंग के परिणामस्वरूप ही इसी कश्मीर समेत और कई महत्वपूर्ण हिस्से ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में आए। दूसरी एंग्लो सिख जंग के बाद पंजाब का बड़ा हिस्सा कम्पनी ने हासिल कर लिया लेकिन बावजूद इसके सिखों ने अंग्रेज़ों का पूरा साथ दिया, उनके हिमायती बने रहे⁵!
सर क्लाउड मार्टिन वेड सतलुज के उन कुछ ब्रिटिश अधिकारियों में से एक थे जिन्होंने अपनी चतुराई और मिलनसार स्वभाव से सिखों का सम्मान और स्नेह जीता था। सिख सरकार के साथ अपने संबंधों में वेड ने दोनों राज्यों के हितों को इस तरह संतुलित किया कि समय के साथ वे महाराजा रणजीत सिंह के निजी सलाहकार और मित्र बन गए। अक्टूबर 1831 में रणजीत सिंह और लॉर्ड विलियम बेंटिक के बीच रोपड़ बैठक आयोजित करने में वेड की मुख्य भूमिका थी। उन्होंने लॉर्ड ऑकलैंड पर शक्तिशाली सिखों को सहयोगी के रूप में बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया। रणजीत सिंह के साथ वेड का व्यक्तिगत प्रभाव 1838 की त्रिपक्षीय संधि के समर्थन में कारकों में से एक था। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा रत्न-जड़ित और सोने का ऑर्डर ऑफ मेरिट वेड को दिया गया ,जिसे 'Auspicious Star of the Punjab' कहा जाता था।¹⁴
1857 की क्रांति का उपयोग अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ किया जा सकता था लेकिन जब क्रांतिकारियों ने मुग़ल शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेतृत्व सौंपा, तो सिखों को यह नागवार गुज़रा, क्योंकि सिख गुरुओं को बेज़ारी से शहीद करने के पीछे मुग़ल इतिहास ही रहा था। ऐसे में सिखों ने उल्टे अंग्रेज़ों के साथ मिलकर 1857 की क्रांति को कुचलने में बतौर फौज पूरा सहयोग दिया।⁶
इसके साथ नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर कैंपेन और सारागढ़ी की जंग के दौरान भी एंग्लो सिख संबंध परखे गए और सिखों ने अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी हर मोर्चे पर निभाई।⁷
1849 में 108-कैरेट का बेशकीमती कोहिनूर हीरा भी सिख महाराजा रणजीत सिंह के वारिस दिलीप सिंह ने ही ब्रिटिश महाराणी को सौंपा था, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दी गई मदद के एवज में⁸।
पंजाब के विलय और खालसा राज के पतन का एक समुदाय के रूप में सिखों पर तत्काल प्रभाव पड़ा क्योंकि खालसा राज में एक अच्छे जीवन के लिए सिख धर्म में परिवर्तित होने वाले कई लोग जल्द ही अपने पुराने हिंदू संप्रदायों में वापस आ गए। बाद में 19वीं शताब्दी में, ब्रिटिश सेना में सिखों की भर्ती, और ब्रिटिश राज में सिखों को जो विशेष मान्यता और विशेषाधिकार प्राप्त होने लगे, उन्होंने इस प्रवृत्ति को कुछ हद तक उलट दिया।⁹ सोशल डार्विनिज्म के मॉडल पर ही सिखों को मार्शल कौम के रूप में मान्यता देकर अंग्रेजों ने सिखों को अपनी फौज में भारी संख्या में भर्ती किया और सिख धर्म के प्रचार प्रसार को पूरा सहारा दिया।¹⁰
1857 भारतीय क्रांति के बाद सिखों के प्रति अंग्रेजों का रवैया बदल गया। सिख विद्वान तेजी से अंग्रेज़ विद्वानों के संपर्क में आए और एक विशिष्ट धर्म के रूप में सिख धर्म के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए सुधार शुरू किए। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, ब्रिटिश प्रभाव ने सिखों की मदद की।
एक अच्छी तरह से संगठित सिख सुधार आंदोलन, श्री गुरु सिंह सभा ने 1 अक्टूबर, 1873 को अपनी पहली बैठक की। विशिष्ट सिख धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को बढ़ावा देने में अंग्रेजों की भूमिका थी।¹¹ सितंबर 1915 में, अमृतसर को ब्रिटिश सरकार के डीसी सीएम किंग CIE द्वारा ही “पवित्र शहर” घोषित किया गया था, जिसमें तम्बाकू/मदिरा को वर्जित किया गया। ¹⁴
पंजाब के सिख अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए युद्धों के दौरान समृद्ध हुए। अधिकांश परिवारों, विशेष रूप से गांवों (जाट सिखों) में कृषक परिवारों के पास ब्रिटिश भारतीय सेना में एक या एक से अधिक परिवार के सदस्य थे। जागीरें (प्रदान की गई सेवाओं के लिए भूमि अनुदान) देने की पुरानी सामंती व्यवस्था को अंग्रेजों द्वारा अधिक प्रगतिशील तरीके से पुनर्जीवित किया गया था। उन्होंने सेवानिवृत्त सैनिकों को 25 से 55 एकड़ और अच्छी सेवा देने वाले अधिकारियों को 500 एकड़ या उससे अधिक जमीन आवंटित की।उदाहरण के लिए, सारागढ़ी के वीरों के निकटतम परिजन को 500 रुपये (उन दिनों एक महत्वपूर्ण राशि) और 50 एकड़ जमीन दी गई थी।¹²
नागरिक सम्मान और नियुक्तियों के साथ सेना की पदोन्नति और सम्मान ने सिख समुदाय के मनोबल को बढ़ाया और गैर-राजनीतिक स्तर पर एंग्लो-सिख संबंधों को मजबूत किया। इसलिए, दो विश्व युद्धों (1918 - 1939) के बीच, पंजाबी सिखों ने किसानों के रूप में और कृषि के लिए सेवाओं के प्रदाता के रूप में समृद्ध हुए।
सिख महाराजाओं ने अंग्रेज़ो के युद्ध प्रयास का तहे दिल से समर्थन किया। सिख रियासतों की सिख रेजिमेंट भारतीय ब्रिटिश सेना के साथ सेवा कर रही थी। इनमें से प्रमुख व्यक्ति पटियाला के सिख महाराजा थे जिन्होंने 20 अगस्त 1918 को फिलिस्तीन में मोर्चे का दौरा किया और सिख इकाइयों के जवानों से मुलाकात की।
स्वर्ण मंदिर के प्रबंधक, अरूर सिंह (सिमरनजीत सिंह मान के दादा) ने जलियांवालान बाग हत्याकांड के तुरंत बाद डायर को श्रद्धांजलि दी। जनरल डायर को अरूर सिंह (सिमरन के दादा) द्वारा सिरोपा दिया गया था और वह अंग्रेजों द्वारा सेवानिवृत्त हो गया था और इंग्लैंड लौट आया था जहाँ लोगों ने उसके लिए 80,000 पाउंड का इनाम रखा था।
अरूर सिंह की निष्ठावान सेवाओं को देखते हुए, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1921 के नए साल के दिन नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें 1913 में सी.आई.ई. वह अब सरदार सर अरूर सिंह, के.सी.आई.ई. (भारतीय साम्राज्य के नाइट साथी)। 1926 में अरूर सिंह की मृत्यु हो गई।¹³
इतिहास में कोई नायक या खलनायक नहीं होते। सब किरदार होते हैं। इसी दृष्टि से देखा जाए तो सिखों ने अपनी लड़ाका प्रवृति का इस्तेमाल कर अंग्रेजों के लिए युद्ध भी लड़े और मधुर प्रशासनिक सम्बंध भी बनाए रखे, जिससे किए सियासी फैलाव और राजसत्ता में हिस्सेदारी की बदौलत सिख आज तक 'डोमिनेंट क्लास’ के तौर पर समाज में काबिज़ हैं।
संदर्भ सूची / References
¹When Marathas had face-off with Sikhs in Punjab: April 1, 2018, 8:18 AM IST Lt General H S Panag in Shooting Straight, India, TOI
² Singh, Raghubir. “ANGLO-SIKH RELATIONS IN THE EARLY NINETEENTH CENTURY : EVIDENCE OF KHUSHWAQT RAI’S TARIKH-I-SIKHAN.” Proceedings of the Indian History Congress, vol. 44, 1983, pp. 376–80.
³ Calendar of Persian Correspondence Vol. iii. No. 868, P. 236).
⁴Treaty of Amritsar | United Kingdom-India [1809]
⁵1857 Indian Mutiny; Sikhs; Gurkhas; https://webcourses.ucf.edu/courses/1274391/pages/1857-indian-mutiny-sikhs-gurkhas-optional?module_item_id=11173844
⁶ Singh, Raghubir. “ANGLO-SIKH RELATIONS IN THE EARLY NINETEENTH CENTURY : EVIDENCE OF KHUSHWAQT RAI’S TARIKH-I-SIKHAN.” Proceedings of the Indian History Congress, vol. 44, 1983, pp. 376–80.
⁷ Singh, Gurmukh. (2021). Anglo-Sikh Relations & The World Wars
⁸ The information was given by the Archaeological Survey of India (ASI) in response to a RTI query.
⁹ Singh, Gurmukh. (2021). Anglo-Sikh Relations & The World Wars
¹⁰ The Oxford Handbook of the Protestant Reformations
edited by Ulinka Rublack, P.752.
¹¹Singh, Gurmukh. (2021). Anglo-Sikh Relations & The World Wars
¹² ibid.
¹³Colvin, Ian (1929). The Life Of General Dyer. London: William Blackwood And Sons
¹⁴ https://eos.learnpunjabi.org/WADE%20SIR%20CLAUDE%20MARTINE%20(1794-1861).html#:~:text=Martine%20Wade%20was%20one%20of,agent%20(1832%2D40).
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